“पहले मैं 4 बीघा खेत में धान और गेहूं की खेती करता था। इनमें लगभग 2 बीघा खेत की जमीन गहरी थी। जब बारिश ज्यादा होती थी, तो फसल बर्बाद हो जाती थी। इसलिए पिछले साल के फरवरी में मैंने मखाना की खेती शुरू की। पिछले साल मुझे लगभग 60-70 हजार रुपए का लाभ मिला। धान और गेहूं के दोनों फसल मिलाकर भी मुझे शायद ही इतना लाभ मिल पाता। इस साल बारिश कम होने की वजह से शुरुआत में पंपिंग सेट से पानी देना पड़ा, इसलिए लागत ज्यादा लग गया। अभी तक अनुदान नहीं मिला है”
मखाना की खेती के चुनाव और मखाना से फायदे के बारे में बात करते हुए उक्त बातें सुपौल जिले के बीना बभनगामा गांव के अमोद कुमार झा ने कहीं।
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पिछले महीने यानी अगस्त 2022 में केंद्र सरकार ने मिथिला के मखाना को जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग दे दिया है। यह एक प्रकार का लेबल होता है जिसमें किसी प्रोडक्ट को विशेष भौगोलिक पहचान दी जाती है। काफी अरसे से किसानों की मांग थी कि मखाना को जीआई टैग मिले।
पग-पग पर मखाना की खेती
बीना बभनगामा के अरुण कुमार झा कृषि विभाग में 35 साल काम कर चुके हैं। वह बताते हैं, “दरभंगा और मधुबनी की तरह सुपौल और सहरसा में मखाना की खेती का प्रचार प्रसार नहीं था। मखाना की खेती में लागत अच्छा लगती है।
सुपौल और सहरसा पैसे की दृष्टि से पिछड़ा रहा है, इसलिए यहां के किसान मखाना की खेती कम करते थे। हम लोगों को भी पहले मखाना की खेती देखने के लिए सुंदरपुर जाना होता था, जो यहां से 4 किलोमीटर दूर है। अभी बीना बभनगामा गांव में ही लगभग 10 से 15 बीघा में मखाना की खेती हो रही है।”
“एक तो इसकी वजह है समृद्धि। पहले की तुलना में यहां की आर्थिक स्थिति में बहुत सुधार हुआ है। दूसरी वजह है बारिश। शायद ही कोई साल होता है जब गहरी जमीन पर धान या मूंग की खेती हो पाती है। साथ ही एक वजह और है-सरकारी अनुदान। लेकिन, यह योजना कम ही लोगों तक सीमित है। अगर वाकई में यह योजना धरातल पर आ जाए तो किसानों की संख्या में 2-3 गुना वृद्धि हो जाएगी” आगे अरुण कुमार झा बताते हैं।
बिहार में मत्स्य योजना के लिए प्रसिद्ध गांव सखुआ सुपौल जिले में स्थित है। यहां मत्स्य योजना की खूबसूरती देखने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी आ चुके हैं। सखुआ गांव के शंकर महतो बताते हैं, “मखाना अमीर किसानों की खेती हुआ करती थी। बताइए, एक हेक्टेयर मखाने की खेती करने में कम से कम एक से डेढ़ लाख रुपये खर्च होते हैं। इतना रुपया गरीब किसान कहां से लाएगा।” वह कहते हैं, “पिछले साल से हम 18 कट्ठे खेत में मखाना की खेती कर रहे हैं। अनुदान के लिए गांव के ही किसान सलाहकार को फॉर्म भर कर दे दिए हैं।”
कोसी इलाके में छोटे किसान तालाब के बजाय खेत को खोदकर मखाना की खेती कर रहे हैं।

नहीं मिल रही सरकारी मदद
सहरसा जिले की महिषी पंचायत में लगभग 10 बीघा नीचले खेत को मखाना के खेत में तब्दील कर दिया गया है। लगभग 7 किसान की जमीन इसमें है। यह पूरा खेत बटाईदार खेती के तहत बभनगामा गांव के सुंदरपुर के रहने वाले राजेंद्र शाह को दिया गया है। राजेंद्र साह जमीन के मालिक को सालाना 500 रुपये प्रति कट्ठा देंगे।
जमीन के मालिक आदित्य मोहन झा बताते हैं,” हम लोग पटना में रहते हैं। इससे पहले गांव के ही अशर्फी यादव को धान- गेहूं के खेती के लिए दिया था। लगभग 20 साल में इस जमीन से ना के बराबर रुपया मिला है। बेचारे को खुद नहीं हो पाता था, तो वह हम लोगों को क्या देता। गांव के खेत में कोसी का भी पानी आ जाता है। पहली बार इस जमीन से भी रुपया आ रहा है, यह जानकर खुश हूं।”
वहीं, जमीन बटाई पर लेने वाले राजेंद्र शाह बताते हैं, “मखाना की खेती में पूंजी के अनुपात में अधिक लाभ मिल जाता है, लेेकिन अनुदान के लिए सरकारी दफ्तर जाते जाते जूते घिस चुके हैं। मखाना खेती में सरकार की ओर से जो सहायता मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल पा रही है।”
ज्यादातर उपज मखाना का बाजार न गिरा दे
पटना के पुनाई चौक स्थित पोस्ट ऑफिस गली में गुड्डू यादव मखाना बेचते हैं। वह बताते हैं, “पर्व त्यौहार छोड़कर बाकी दिनों में मखाना की ज्यादा बिक्री नहीं होती है। अभी पहले की तुलना में कीमत में कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है। लेकिन, कीमत कम जरूर हुआ है। इस बार सात-आठ नए लोगों यानी कंपनी का फोन आया था मखाना लेने के लिए।”
बीना बभनगामा गांव के सुंदरपुर टोला के संजीत मंडल लोगों से जमीन लेकर मखाना की खेती करते है। वह बताते हैं, “पहले मखाना बेचने के लिए अपने क्षेत्र के अलावा भागलपुर तक जाना पड़ता था। इस बार नेपाल भी बेचना पड़ा।
हालांकि कीमत उतनी ही मिली। लेकिन जिस तरह से मखाना की खेती बढ़ रही है, डर है कि अगर ग्राहक नहीं मिलेगा, तो ज्यादा उपज मखाना का बाजार न गिरा देगी।”
संजीत मंडल तालाब पद्धति से मखाना व मछली पालन एक साथ कर रहे हैं।
विशेषज्ञों की राय
पूसा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक शंकर झा बताते हैं, “पहले बिहार में मखाना की खेती मुख्य रूप से दरभंगा व मधुबनी में ही होती थी। लेकिन अब इसकी खेती सुपौल, सहरसा, पूर्णिया, कटिहार, अररिया, किशनगंज आदि जिलों में होने लगी है। एक तो कोसी की वजह से 10 से 15 फीट पर पानी मिल जाता है। साथ ही इन जिलों की मिट्टी में जिंक की मात्रा अधिक है, जो मखाना की खेती के लिए उपयुक्त है।”
मखाना विशेषज्ञ प्रो डॉक्टर अनिल कुमार बताते हैं, “दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी में तालाब में मखाना की होती है जबकि कोसी और सीमांचल क्षेत्र में निचले खेत और वेटलैंड में हो रही है। अच्छे उत्पादन के लिए किसानों को पारंपरिक खेती की जगह तकनीक को अपनाना होगा।
क्या कहते हैं अधिकारी
सहरसा उद्यान विभाग में कार्यरत संजीव कुमार झा बताते हैं, “प्रधानमंत्री सूक्ष्म खाद्य उद्योग उन्नयन योजना के जरिए एक जिला एक उत्पाद के तहत सहरसा को मखाना के लिए चयनित किया गया है। इसी तरह सरकार की और भी कई योजनाएं हैं, जो मखाना खेती को प्रोत्साहित कर रही है। कृषि विभाग इस खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के साथ प्रशिक्षण देने की भी व्यवस्था करती है। अनुदान को लेकर मुख्य दिक्कत तब पैदा होती हैं जब पोखर या खेत विवादित हो।”
सुपौल कृषि विभाग में कार्यरत एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, “अनुदान मुख्य रूप से सभी किसानों के लिए होता है। लेकिन, मिलता नहीं है सबको। ऊपर से ही आंकड़े तय होते हैं कि किस जिले में कितने किसानों को बांटना है। उसी हिसाब से अधिकारी अपने लोगों को दे देते हैं।”
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