देश की राजधानी दिल्ली से 1100 किलोमीटर और राज्य की राजधानी पटना से 300 किलोमीटर दूर सुपौल के त्रिवेणीगंज मुख्यालय से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित नेपाली गांव के लोगों को आजादी के 75 वर्षों बाद भी मुख्य मार्ग तक जाने के लिए एक सड़क नसीब नहीं हो सकी है। जल-नल योजना का पाइप नहीं पहुंच पाया है। ऐसा लग रहा है कि सरकारी योजनाएं गांव आते-आते दम तोड़ देती हैं।
दो महीने ही शादी ब्याह जैसे जरूरी काम
बिहार के सुपौल जिला के त्रिवेणीगंज की लतौना दक्षिण पंचायत स्थित शिवनगर गांव के नेपाली गांव में लगभग 400 से 500 लोग रहते हैं। नए दस्तावेज के मुताबिक नेपाली गांव का नाम शिवनगर रखा गया है। यहां अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। पुरुष सदस्य रोटी की तलाश में दिल्ली और पंजाब में रहते हैं। गांव के लोगों के अनुसार ये लोग 300 साल पहले नेपाल के भोजपुर पहाड़ से आए थे, वे आज भी सूअर पाल कर खाते है। सन् 1910 ई. के आसपास लतौना दक्षिण पंचायत में नेपाली गांव बसा था। उस समय से अब तक यहां सड़क नहीं बन सकी।
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गांव के ललन सिंह बताते हैं कि, “आजादी के इतने साल के बाद भी हमारे गांव के लोग रोड के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पगडंडियों के सहारे ही या खेतों से होकर ही आप इस गांव में जा सकते हैं। गांव के लोग साल के तीन महीने तक चारों ओर पानी से घिरे होते हैं। बाकी के महीनों में गांव की चारों तरफ लगी फसलों की वजह से परेशानी होती है। गांव में फसल के समय चारों तरफ खेती हो जाती है, जिससे गांव में किसी तरह का वाहन प्रवेश नहीं कर पाता है। इसलिए गांव के लोग नवंबर और दिसंबर महीने में ही शादी और अन्य आयोजन से जुड़े काम को निबटाना पसंद करते हैं। मजबूरी हो गयी, तो अलग बात है।”
“जमीन वाले गाली देते हैं”
लगभग 47 साल की सुनीता गांव के बगीचे में जलावन इकट्ठा कर रही हैं। वह बताती हैं, “फसल के वक्त जमीन वाले गांव के लोगों को गाली देते हैं, अगर हम लोग उनके खेत होते हुए गांव से बाहर जाते हैं। बारिश के वक्त ऐसी स्थिति हो जाती है कि बच्चे और महिलाएं घर से बाहर भी नहीं निकल पाते हैं। घुटना भर-भर पानी लगा रहता है।”
“अधिकांश खेत दूसरे गांव वाले के हैं। इस गांव में कुछ ही घर के पास अच्छी खासी जमीन है। क्योंकि हम लोग यहां के मूल निवासी नहीं हैं। इसलिए अधिकांश लोग दिल्ली और पंजाब के भरोसे रहते हैं। दूसरों के खेत से होते हुए लोग जाते हैं तो कुछ फसल का नुकसान हो जाता है, तो खेतों के मालिक मन भर के गाली देते हैं। लेकिन हमारे पास चारा ही क्या हैं,” गांव के दीपक कुमार बताते हैं।
“अगर खेत वाले चाहें, तो आसानी से रास्ता मिल जाए। लेकिन वे लोग अपनी जमीन नहीं देना चाहते हैं। सरकार भी इस दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही है। बरसात के मौसम में साइकिल को कंधे पर लादकर मेन रोड ले जाना पड़ता है” गांव के 75 वर्षीय चंद्रशेखर सिंह बताते हैं।
रास्ते के लिए 100 सालों से संघर्ष
गांव के लोगों के मुताबिक छोटे से छोटे ऑफिस से लेकर बड़े से बड़े कार्यालय तक हम लोगों ने सड़क के लिए अर्जी दी है। विधायक से लेकर संसद तक अपनी बात पहुंचाई है।
चुनाव में वोट लेने वाले स्थानीय जनप्रतिनिधि से कई बार गांव के लोगों ने रास्ते के लिए कहा। कार्यालयों में जाकर कागजात भी जमा किये, पर कहीं से आज तक मदद नहीं मिली।
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“गांव की चारों तरफ पंचायत के अन्य लोगों की जमीन है, जिस पर रास्ते के लिए 100 सालों से संघर्ष किया जा रहा है, लेकिन आज तक न तो स्थानीय प्रशासन रास्ता दिला सका और न ही हर चुनाव में वोट लेने वाले कोई स्थानीय या क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों ने कोई प्रयास किया,” गांव के हरिशंकर सिंह बताते हैं।
सड़क के अभाव में हो चुकी है मौत
“लगभग 6 साल पहले नेपाली टोले के वीरेंद्र साह के पुत्र का ससमय इलाज नहीं होने के कारण मौत हो गई थी। स्थिति ऐसी है कि मरीज को खाट पर लादकर सड़क पर ले जाते हैं, तब एंबुलेंस नसीब हो पाता है। टोले से पूर्व दिशा में पगडंडी है वहीं पश्चिम दिशा नदी बहती है। बारिश के समय में टोला झील में तब्दील हो जाता है,” गांव के विकास कुमार बताते हैं।
“टोला का कोई बुजुर्ग व्यक्ति बीमार हो जाए तो बहुत परेशानी होने लगती है। सड़क के अभाव में मरीजों को खाट पर टांगकर ले जाना पड़ता है। पड़ोसी पंचायत कशहा-मचहा की पक्की सड़क भी लगभग 2 किलोमीटर दूर है। जहां तक जाने के लिए भी आधे घंटे का समय लगता है। ऐसे में मरीज की जान भी चली जाती है। बारिश के समय की समस्या को आप सोच भी नहीं सकते हैं, जब पगडंडी पानी में डूब जाती है,” गांव के राजकिशोर कुमार बताते हैं। राज किशोर रिटायर्ड आर्मी जवान हैं।
“जब से पैदा हुए हैं, ऐसे ही गांव की हालत को देख रहे हैं। सड़क नहीं होने की वजह से पढ़ाई-लिखाई में भी समस्या होती है। 5वीं कक्षा के बाद गांव से बाहर पढ़ने जाना पड़ता है। कई बार कपड़ा भींग जाता है। बरसात के मौसम में तो जाना भी संभव नहीं हो पाता है। रोड के नाम पर चुनाव जीतने के बाद नेता आते भी नहीं है,” गांव की रहने वाली नमिता राय बताती हैं।
सड़क के अभाव में दरक रहे रिश्ते
ग्रामीणों के मुताबिक, सड़क के अभाव में इस गांव में लोग रिश्ता करना भी नहीं चाहते हैं।
गांव के लोग 2 महीने ही शादी कर पाते हैं, ऐसा क्यों? इस सवाल के जवाब पर राज किशोर कुमार कहते हैं, “नवंबर दिसंबर के अलावा अगर दूसरे महीने में शादी करते हैं, तो गांव के बाहर ही गाड़ी खड़ी करनी पड़ती है। वहीं से बारात भी जाती है और बारात आने पर भी दुल्हा दुल्हन को पैदल उतरकर आना-जाना पड़ता है। बाकी मौसम में तो ग्रामीणों की मदद से किसी प्रकार से काम चला लेते हैं। लेकिन बारिश के मौसम में इस रास्ते से निकलना नामुमकिन होता है।”
जल-नल योजना भी नहीं पहुंची है
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ड्रीम प्रोजेक्ट जल-नल योजना भी नेपाली टोला तक नहीं पहुंची है।
ग्रामीणों के मुताबिक, नदी होने की वजह से नल जल की योजना को दूसरी तरफ ही रोक दिया गया है। इस गांव के लिए सरकार को अलग से टंकी बैठाना पड़ेगा। “हम लोगों को शुद्ध पेयजल नहीं मिलता है। टेम्पो गांव आ नहीं सकता, इसलिए खरीद कर पानी पीना संभव नहीं है। जल नल योजना आ जाती, तो पेयजल की समस्या दूर हो जाती,” गांव के पंचम कुमार बताते है।
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