मखाना में खनिज, विटामिन और फाइबर की प्रचुरता की वजह से इसे सुपरफूड भी कहा जाने लगा है। आने वाले दिनों में मखाना पॉपकॉर्न की जगह ले सकता है।
दुनिया की 80 फीसद से ज़्यादा मखाना का उत्पादन हमारा देश भारत करता है। भारत में भी 80 फीसद से ज़्यादा मखाना का उत्पादन अकेले बिहार कर रहा है। और बिहार में भी इसका सबसे ज़्यादा उत्पादन आज सीमांचल के चार जिलों पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज और अररिया में हो रहा है। इसी को देखते हुए अगस्त 2020 में भारत सरकार ने ‘मिथिला मखाना’ को GI टैग दिया है।
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क़र्ज़ में डूबे मखाना किसान
पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड की पिपरा पंचायत अंतर्गत बिशनपुर बहादुर के दीप नारायण यादव तीन साल से मखाना की खेती कर रहे हैं। लेकिन अभी लाखों के क़र्ज़ में डूबे हुए हैं। इस नुकसान से वह डर गए हैं, इसका नतीजा ये हुआ कि उन्होंने इस बार मखाना की खेती कम कर दी। दीप नारायण ने पिछले साल 10 बीघा खेत में मखाना की खेती की थी, लेकिन इस बार सिर्फ तीन बीघा में मखाना की खेती कर रहे हैं।
इसी तरह, रिकबगंज गाँव के किसान उत्तम लाल दास ने पिछले साल 10 बीघा खेत में मखान की खेती की थी। एक बीघा में 50-60 हज़ार रुपये की लागत आई। लेकिन, नुकसान इतना भारी हुआ कि उन्होंने मखाना की खेती ही छोड़ दी और वापस धान की खेती करने लगे हैं।
बालेश्वर मंडल बनमनखी इलाके के सबसे पुराने मखाना किसानों में से एक हैं। करीब 23 साल पहले उन्होंने मखाना की खेती शुरू की थी। लेकिन मखाना के खेती से वह ज़्यादा खुश नहीं हैं। इस साल की उपज पिछले साल के मुक़ाबले बेहतर है, फिर भी लागत की रकम तक वापस नहीं आ पा रही है।
बालेश्वर के बेटे राज कुमार मंडल के अनुसार उनका परिवार 20-25 लाख रुपये के क़र्ज़ में डूबा है। इस डर से उन्होंने मखाना की खेती भी कम कर दी है, ऊपर से खेतों में अब उपज भी उम्मीद से कम ही हो रही है। उन्होंने बताया पिछले साल मखाना का रेट 14000-15000 रुपये प्रति क्विंटल से सीधे 2000 – 2500 रुपये क्विंटल तक आ गया था।
मखाना विकास योजना
किसानों की परेशानी को देखते हुए पूर्णिया ज़िले के कसबा स्थित भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय ने मखाना फसल पर कई अनुसंधान किये। इसका परिणाम ये हुआ कि कॉलेज ने 2015 में मखाना की एक उन्नत किस्म ‘सबौर मखाना-1’ विकसित की। कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. पारस नाथ का दावा है कि ‘सबौर मखाना-1’ से उपज को दुगुना किया सकता है।
मखाना की खेती को बढ़ावा देने के लिए, बिहार सरकार ने मखाना विकास योजना की शुरुआत की है। इस योजना के अंतर्गत, किसानों को 75 प्रतिशत तक अनुदान दिया जा रहा है। मखाना विकास योजना के तहत, किसान भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय से सबौर मखाना-1 किस्म के बीज ले सकते हैं।
फिलहाल, बिहार के 10 जिलों कटिहार, पूर्णियाँ, मधुबनी, किशनगंज, सुपौल, अररिया, मधेपुरा, सहरसा, दरभंगा एवं खगड़िया के किसान इस योजना का लाभ उठा सकते हैं। पूर्णिया के श्रीनगर निवासी किसान चिन्मयानंद सिंह सबौर मखाना-1 किस्म से खेती कर रहे हैं।
क़र्ज़ में क्यों डूबे किसान?
लेकिन सवाल ये उठता है कि पिछले साल आखिर ऐसा क्या हुआ कि मखाना किसान लाखों के क़र्ज़ में डूब गए। कुछ किसान मानते हैं कि बारिश कम होने की वजह से खेत सूख गए, जिस वजह से मखाना की क्वालिटी घट गई। कुछ अन्य किसान पिछले साल मखाना की उपज में अचानक हुई बढ़ोतरी से कीमत में गिरावट को मुख्य वजह मानते हैं। लेकिन एक्सपर्ट्स की मानें तो पिछले साल मखाना के मार्केट को कुछ व्यापारियों द्वारा कृत्रिम रूप से गिराया गया।
डॉ. पारस नाथ मानते हैं कि अगर किसान एकजुट होकर ‘मखाना ग्रोअर एसोसिएशन’ बना लें और मखाना का दाम खुद तय करें, तो रेट के इस उतार चढ़ाव से किसान बच सकते हैं।
मिथिला मखाना GI टैग
14 अगस्त, 2020 को ‘मिथिला मखाना‘ को GI टैग दिया गया। GI टैग यानी Geographical Indication Tag, ये बतलाता है कि इस किस्म के मखाना का उत्पादन एक ख़ास इलाके में ही होता है। जीआई टैग का मकसद किसी क्षेत्र के उत्पाद की विशिष्ट पहचान, विरासत और प्रतिष्ठा को नकल और दुरुपयोग से बचाना है।
मखाना की खेती कैसे होती है?
मखाना किसान चिन्मयानंद सिंह ने मखाना खेती का तरीका बताया और कहा कि मार्च महीने में किसान मखाने के लिए खेत तैयार करते है। खेत में घुटने भर कीचड़ रखी जाती है। इसके बाद खेत में पाटा चला कर तीन दिनों तक छोड़ देते हैं ताकि मिट्टी के कण पूरी तरह से ज़मीन पर बैठ जाएं। मिट्टी बैठ जाने पर करीब 24 से 26 इंच लंबे मखाना के पौधे लगाए जाते हैं।
इस दौरान खेत में लगातार पानी डालना ज़रूरी होता है। खाद के लिए रासायनिक या जैविक दोनों तरह की खाद का प्रयोग किया जा सकता है लेकिन मखाने की फसल में यूरिया का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। फसल को 6 महीने तक रखा जाता है जिसमें 2 बार कुमौनी देने की ज़रूरत पड़ती है। चिन्मयानंद मानते हैं कि फसल को 6 महीने तक रखने पर सबसे अच्छा परिणाम देखने को मिलता है।
मखाना की खेती में इस बात का ख्याल रखा जाता है कि फसल जब पुष्पन अवस्था में हो तो पानी की कमी न हो। सही मात्रा में पानी देने से मखाना की गुणवत्ता और मात्रा दोनों अच्छी रहती है।
मखाना फोड़ी
लेकिन मखाना की कहानी किसानों तक ही सीमित नहीं है। दरभंगा और मधुबनी के मल्लाह समुदाय के लोग खेत की उपज को कई दिनों की मेहनत से लावा में तब्दील करते हैं। यही लावा मार्केट में जाता है। लावा बनाने वाले को फोड़ी कहते हैं। दरभंगा और मधुबनी इलाके में हज़ारों मल्लाह अपने परिवार के साथ पूर्णिया और कटिहार के इलाके में फोड़ी का काम करते हैं।
दरभंगा के विजय साहनी करीब 150 मज़दूरों को पूर्णिया लाकर फोड़ी का काम करवा रहे हैं। दरभंगा के ही मंतोष साहनी और भोला साहनी पूर्णिया ज़िले के हरदा में अपने परिवार के साथ फोड़ी का काम कर रहे हैं।
लेकिन फोड़ी का काम करने वाले भी लावा के रेट से खुश नहीं हैं। विश्वनाथ साहनी के अनुसार , वर्तमान रेट से उनकी मेहनत का फल नहीं आ पाता है। वहीं डॉ. पारस नाथ के अनुसार बिहार सरकार ने इस ओर भी काम करना शुरू कर दिया है।
MSP की मांग
दूसरी तरफ किसान लगातार मखाना पर भी MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कर रहे हैं। किसान बालेश्वर मंडल के अनुसार MSP 18000 से 20000 रुपये के बीच होनी चाहिए। डॉ. विद्यानाथ झा और डॉ. पारस नाथ भी MSP की इस मांग के साथ खड़े हैं।
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