बिहार के किशनगंज और पूर्णिया से सांसद और केंद्रीय संविधान सभा के सदस्य रहे मरहूम मोहम्मद ताहिर सीमांचल के सबसे सफलतम मुस्लिम नेताओं में से एक माने जाते हैं। उन्होंने स्वतंत्रता से पहले राजनीति में कदम रखा और उनका राजनीतिक करियर 5 दशकों तक चला। वह किशनगंज और पूर्णिया लोकसभा सीट से कांग्रेस के सांसद और इससे पहले अमौर विधानसभा से विधायक भी बने।
मोहम्मद ताहिर का जन्म 1903 में पूर्णिया जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर कस्बा प्रखंड के मजगवां में हुआ था। जिला स्कूल पूर्णिया में उनकी प्राथमिक शिक्षा हुई। इसके बाद वह मोहम्मडन एंग्लो इंडियन ओरिएंटल कॉलेज गए और बीए की पढ़ाई पूरी की। उसी दौरान (सन 1921 में) यह कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में तब्दील हो गया। स्नातक करने के बाद उन्होंने एएमयू से ही लॉ की पढ़ाई की।
मोहम्मद ताहिर के सबसे छोटे बेटे शौकत अहमद ने ‘मैं मीडिया’ से बातचीत में बताया कि उनके पिता जब वकील बनकर मजगंवा लौटे तो आस पास के लोग रोज़ उनसे मिलने आते थे। तब उस क्षेत्र में पढ़ाई का उतना चलन नहीं था और गांव से निकल कर बाहर जाकर लॉ की डिग्री हासिल करना बहुत बड़ी बात थी।
मोहममद ताहिर का राजनीतिक सफर
कहा जाता है कि मोहम्मद ताहिर कॉलेज के दिनों से ही राजनीति में सक्रिय हो गए थे। शुरुआती दिनों में वह मुस्लिम लीग से जुड़े थे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर और लेखक मोहम्मद सज्जाद ने अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम पॉलिटिक्स इन बिहार’ में इस बात का ज़िक्र किया। उन्होंने लिखा कि बिहार में मुस्लिम लीग की एक प्रांतीय समिति बनी जिसके अध्यक्ष मौलवी इब्राहिम और सचिव जाफ़र इमाम बनाए गए। कुछ महीनों में राज्य में यह समिति मजबूत होती गई। सिमरी बख्तियारपुर के चौधरी नज़ीरूल हसन, मुजफ्फरपुर के बदरुल हसन और पूर्णिया के मोहम्मद ताहिर भी लीग से जुड़ गए।
मोहम्मद ताहिर 1930 में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड पूर्णिया के सदस्य चुने गए। तीन वर्ष बाद 1933 में सदर लोकल बोर्ड के उपाध्यक्ष बने और 1939 तक वह इस पद पर रहे। 1939 से 1941 तक वह सदर लोकल बोर्ड के अध्यक्ष रहे।
मोहम्मद ताहिर 1941 से 1945 तक पूर्णिया जिला बोर्ड के उपाध्यक्ष रहे। 1946 में वह संविधान सभा के सदस्य बनाए गए और 1950 तक इस पद पर रहे। 1952 के बिहार विधानसभा चुनाव में वह अमौर विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने।
1957 के आम चुनाव में उन्हें कांग्रेस ने किशनगंज से लोकसभा का टिकट दिया जिसमें उन्होंने जीत हासिल की। यह पहली बार था जब किशनगंज लोकसभा सीट पर लोकसभा चुनाव लड़ा गया। इस तरह मोहम्मद ताहिर किशनगंज के पहले लोकसभा सांसद भी बने। पांच साल बाद उन्होंने 1962 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर किशनगंज सीट से जीत हासिल की।
दो बार के सांसद मोहम्मद ताहिर 1967 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के लखन लाल कपूर से किशनगंज लोकसभा सीट हार गए। इसके बाद 1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें पूर्णिया लोकसभा सीट से उतारा और वह चुनाव जीत गए।
राजा पी.सी. लाल को जिला बोर्ड के चुनाव में हराया
मोहम्मद ताहिर के बेटे शौकत अहमद ने बताया कि 1930 में पूर्णिया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चुनाव में मोहम्मद ताहिर ने राजा पी.सी लाल को हराया था। तब मोहम्मद ताहिर के पिता मोहम्मद ताहा ने उन्हें राजा पी.सी लाल के विरुद्ध चुनाव लड़ने से मना किया था क्योंकि उस समय राजा पी.सी. लाल के विरुद्ध लड़ना और उन्हें हराना लगभग नामुमकिन समझा जाता था।
“उन्होंने राजा पीसी लाल को काफी बड़े मार्जिन से हराया। लोग कहते थे, ‘पूरी जलेबी खाइयो राजा पी.सी. लाल के और वोट दियो मोहम्मद ताहिर के’। राजा पी.सी लाल की तरफ से हर चौक चौराहे पर पूरी, जलेबी और पान-ज़र्दा का इंतज़ाम किया गया था फिर भी लोगों ने मौलवी मोहम्मद ताहिर को वोट दिया था। यह 1930 की बात है।”
संविधान सभा में अपने ‘मित्र’ डॉ भीमराव अंबेडकर से किया प्रश्न
देश की स्वतंत्रता के बाद संविधान की संरचना के लिए एक संविधान सभा बनाई गई थी। इस संविधान सभा में बिहार से 36 सदस्यों को शामिल किया गया था, इनमें से एक मोहम्मद ताहिर थे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई करने वाले मोहमद ताहिर ने संविधान सभा में अपना अहम योगदान दिया। एक बार सभा में चर्चा के दौरान उन्होंने ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर को अपना मित्र कहकर खिताब किया था।
दरअसल, 3 जनवरी 1949 को संविधान सभा में चर्चा के दौरान मोहम्मद ताहिर ने अनुच्छेद 67 के खंड (3) के उप-खंड (ए) में ‘इलेक्टेड’ शब्द हटाने का प्रस्ताव रखा था। इस पर उन्होंने सभा में कहा, “मुझे लगता है कि परिषद (राज्यसभा) के प्रतिनिधियों के चुनाव के संदर्भ में चुने गए सदस्यों और नामित सदस्यों के बीच कोई भेद नहीं होना चाहिए। नामित सदस्य जैसे ही सदन के सदस्य बनते हैं, उन्हें एक सदस्य के सभी अधिकार और विशेषाधिकार मिलने चाहिए।”
वह आगे बोले, “परिषद के प्रतिनिधियों के चुनाव के संदर्भ में, मुझे लगता है कि किसी कारण से संसद के नामित सदस्यों को अपने प्रतिनिधियों के चुनाव में मतदान से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। मैं आशा करता हूँ कि इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सदन मेरा संशोधन स्वीकार करेगा।”
लोअर हाउस की जगह विधानसभा शब्द के प्रयोग का प्रस्ताव रखा
इसके बाद उन्होंने अनुच्छेद 67 के खंड (3) के उप-खंड (ए) के दूसरे हिस्से में ‘लोअर हाउस’ की जगह विधानसभा’ शब्द को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव किया था। इस पर उन्होंने बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर का ध्यान आकर्षित कर कहा था कि अनुच्छेद 148 में राज्यों के विधानमंडल को विधान सभा और विधान परिषद के रूप में परिभाषित किया गया है और अनुच्छेद 67 में सुझाया गया शब्द, ‘निचला सदन’ उसमें नहीं था।
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मो. ताहिर ने सभा में कहा, “मुझे लगता है कि मेरे मित्र डॉ. अंबेडकर मुझसे अधिक जागरूक थे क्योंकि जब हम अनुच्छेद 43 पर चर्चा कर रहे थे तो उन्होंने एक स्पष्टीकरण पेश किया। इसमें और अगले पैराग्राफ में जहां विधानमंडल द्विसदनीय है अभिव्यक्ति ‘राज्य का विधानमंडल’ का अर्थ विधानमंडल का निचला सदन है।”
“अनुच्छेद में स्थिति स्पष्ट करने के लिए मेरा विचार है कि मेरे संशोधन को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। मैं अपने मित्र डॉ. अंबेडकर से अनुरोध करूंगा कि वे एक स्पष्टीकरण प्रस्तुत करें जैसा कि उन्होंने अनुच्छेद 43 में किया है, क्योंकि जब तक ऐसा नहीं किया जाता, अनुच्छेद का अर्थ स्पष्ट नहीं होगा,” मोहम्मद ताहिर ने सभा में अपनी बात खत्म की।
इंदिरा गांधी से अपने आखिरी दिनों में क्यों नाराज़ हुए मो. ताहिर
मोहम्मद ताहिर के पुत्र शौकत अहमद ने ‘मैं मीडिया’ से कहा कि उनके पिता 1930 या 40 के दशक से कांग्रेस से जुड़ गए थे। एक वकील और राजनीतिज्ञ के तौर पर उन्होंने जो मकाम हासिल किया उसके कारण वह बहुत जल्दी कांग्रेस के शीर्ष कमान की नज़र में आ गए थे। वह पंडित जवाहरलाल नेहरू के करीबी हुआ करते थे।
शौकत अहमद आगे बताते हैं कि अपनी राजनीतिक जीवन के आखिरी दिनों में मोहम्मद ताहिर की इंदिरा गांधी से नाराज़गी हुई थी। आपातकाल लागू होने के बाद उनसे कुछ वैचारिक मतभेद पैदा हो गया था।
“इंदिरा गांधी उन्हें चचा कह कर मुखातिब करती थीं। वह चाचा के लायक थे भी। वह जवाहरलाल नेहरू के समय के थे और लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री थे तब वह सांसद बने। आखरी दिनों में उनका इंदिरा गांधी से कुछ वैचारिक मतभेद रहा। वह बहुत संजीदा और खामोश तबीयत के इंसान थे। हक़ बात कहते थे और उसमें कोई समझौता नहीं करते थे,” शौकत अहमद बोले।
इसके बाद शौकत ने मोहम्मद ताहिर के बारे में एक रोचक घटना का ज़िक्र किया। 1975 में लगे आपातकाल के बाद कांग्रेस में विघटन हुआ। जगजीवन राम, मोहम्मद ताहिर के दोस्त थे। एक दिन वह जगजीवन से मिलने जा रहे थे उसी दौरान किसी जानने वाले से उनकी भेंट हुई और पता चला कि जगजीवन राम ने कांग्रेस छोड़ दिया है। यह सुनते ही मोहम्मद ताहिर ने अपनी गाड़ी वापस घुमाने को कहा और जगजीवन से मिलने नहीं गए।
“उनका कहना था कि ठीक है हम मतभेद रखते हैं लेकिन अपने आप को दाग़दार नहीं करना चाहते कि ताहिर ने पार्टी छोड़ दी। उनमें स्वाभिमान का भाव बहुत था,” शौकत अहमद मुस्कुराकर बोले।
मोहम्मद ताहिर के बारे में एक और घटना प्रचलित है। जब वह 1971 में पूर्णिया के सांसद बने, उस दौरान एक दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्णिया स्थित उनके घर वाले नंबर पर फ़ोन किया। घर में काम करने वाले एक व्यक्ति ने फ़ोन उठाकर इंदिरा गांधी को बताया कि सांसद ताहिर की तबीयत ख़राब है और वह इलाज कराने सदर अस्पताल गए हैं।
इस घटना के बारे में शौकत अहमद ने कहा, “यह भी मानने की बात है कि एक सांसद सदर अस्पताल इलाज कराने गया हुआ हो। फोन उठाने वाला वह व्यक्ति इंदिरा गांधी से बात कर के डर सा गया था लेकिन बाद में सबको बताने लगा कि मैंने इंदिरा गांधी से बात की। वह बहुत खुश हुआ और घूम घूम कर सबको बताने लगा।”
सांसद बनने के बाद भी फूंस के मकान में रहे मो. ताहिर
मोहम्मद ताहिर अपने सादा सवभाव के लिए जाने जाते थे। पूर्णिया के लाइन बाजार में उनका घर था। उसी सड़क पर पूर्व विधायक हसीबुर रेहमान और पूर्व सांसद जमीलूर रहमान भी रहते थे। मोहम्मद ताहिर 1957 में पहली बार किशनगंज सीट से जीत कर लोकसभा पहुंचे। उनके पुत्र शौकत अहमद ने बताया कि सांसद बन जाने के बाद भी वह फूंस के मकान में रहते थे।
शौकत कहते हैं, “एक साहब राजस्थान से मिलने आए थे। जब रिक्शा वाला घर पर लेकर आया तो वह उसे डांटने लगे कि मैंने तुम्हे सांसद ताहिर के घर जाने को कहा था, तुम मुझे कहां लेकर आ गए। वह उस रिक्शे वाले से उलझ गए। आवाज़ सुनकर ताहिर साहब घर से बाहर आए और उनसे मिले, तो वह बहुत हैरत में पड़ गए कि सांसद जी इस घर में रहते हैं।”
“दिल्ली के नार्थ एवेन्यू में भी जब वह रहते थे तो वहां सोफा वगैरह नहीं रखते थे, कालीन या दरी रखते थे। पूर्णिया में बाद में उन्होंने अपनी जमीन बेच कर एक मकान बनाया। मकान भी बहुत साधारण सा था उसमें 4-5 कमरे थे। आजकल हम उसी में रह रहे हैं,” शौकत अहमद बोले।
मोहम्मद ताहिर के पिता मोहम्मद ताहा के 7 में से तीन बेटों ने अलीगढ़ से पढ़ाई की थी। मोहम्मद ताहिर वकालत खत्म कर जब पूर्णिया लौटे तो उन्होंने शिक्षा पर काफी काम किया। उन्होंने इलाके में कई स्कूल खुलवाए और किशनगंज, पूर्णिया सहित सीमांचल के कई शिक्षा संस्थानों के लिए फंड मुहैया कराया।
मोहम्मद ताहिर 3 बार संसद रहे और कई बार विधायक भी रहे। वह देश की स्वतंत्रता के पहले से कांग्रेस से जुड़े रहे और आजादी के संघर्ष में अपनी भूमिका निभाई। मृत्यु के 4 दशक बाद आज मोहम्मद ताहिर के नाम से कोई संस्था या सड़क देखने को नहीं मिलती। इस पर उनके नाती इम्तियाज़ आलम ने ‘मैं मीडिया’ से कहा कि मोहम्मद ताहिर शुरू से अपना प्रचार प्रसार करने से गुरेज़ करते रहे।
“वह जो जो कर के गए, वो आज के दिन करना मुश्किल है। आज कोई नेता वैसा कोई थोड़ी कर पाएगा। वह अपना नाम नहीं करना चाहते थे। उनकी मौत के बाद उनके नाम से कहीं कुछ नहीं बनाया गया। वह खुद भी नहीं चाहते थे की उनके नाम से कुछ हो। वह केवल सेवा के ख्याल से राजनीति में थे,” इम्तियाज़ आलम ने कहा।
लोगों ने कहा, “ताहिर साहब ने सीमांचल को पाकिस्तान में जाने से बचा लिया”
पूर्णिया और आस पास के क्षेत्रों में मोहम्मद ताहिर को पूर्णिया सहित सीमांचल के बड़े हिस्से को पूर्वी पाकिस्तान में जाने से रोकने का श्रेय दिया जाता है। हमें इस दावे का कोई ठोस सबूत नहीं मिला, हालांकि पूर्णिया के करीब आधे दर्जन लोगों ने ‘मैं मीडिया’ से मोहम्मद ताहिर के बारे जो एक बात बताई वह यही थी।
कहा जाता है कि स्वतंत्रता के समय सीमांचल का कुछ भाग पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में जा रहा था। मोहम्मद ताहिर ने पंडित नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से दिल्ली में मुलाकात की और इसे भारत में ही रखने में एक बड़ी भूमिका निभाई।
उनके पुत्र शौकत अहमद ने इस बारे में कहा, “इस इलाके को पाकिस्तान में जाना था और एक दूसरी जगह को भारत में लेना था। ताहिर साहब ने ज़िद की कि इस इलाके को हिन्दुस्तान से नहीं जाना चाहिए बल्कि जो दूसरा इलाका आप रखना चाह रहे हैं वह आप दे दीजिए। शायद वह दूसरा इलाका गुजरात का एक क्षेत्र था।”
निजी जीवन में ईमानदारी और शिक्षा के पक्षधर रहे
मोहम्मद ताहिर ने दो शादियां की जिससे उन्हें 7 बेटे और 3 बेटियां हुईं। उनकी पहली पत्नी ज़ाहिदा खातून मोहम्मदिया एस्टेट के जमींदार मजीदुर रहमान की बेटी थीं। ज़ाहिदा खातून के निधन के बाद उन्होंने बीबी खदीजा खातून से निकाह किया। खदीजा खातून के बेटे शौकत अहमद ने अपने पिता के बारे में कहा कि वह शुरू से ईमानदारी और तालीम पर ज़ोर देते थे।
“मेरे वालिद बहुत ईमानदार थे और मज़हब को अपनी ज़िंदगी में रखने वाले शख्स थे। वह घर में काम करने वालों को अपने साथ दस्तरखान में साथ बिठाते थे। उनका खुदा के साथ अलग तरह का जुड़ाव था। वह बचपन से हमलोग को तालीम के बारे में कहते थे कि बेटा तालीम हासिल करो, यह ऐसी दौलत है जो तुमसे कोई छीन नहीं सकता,” शौकत अहमद ने कहा।
“लोगों ने उन्हें अभी तक भुलाया नहीं है”
पूर्व सांसद मोहम्मद ताहिर धार्मिक लीडर भी थे और इलाके में वह मौलवी मोहम्मद ताहिर के नाम से ही जाने गए। इस पर शौकत अहमद ने कहा कि सबसे ख़ास बात ये थी कि वह समाज के हर वर्ग और समुदाय के लोगों के साथ अच्छा संबंध रखते थे और सभी लोग उन्हें बहुत पसंद करते थे।
“सहरसा से लेकर किशनगंज तक और जोगबनी से लेकर कटिहार तक तमाम लोगों से उनके ताल्लुकात थे। आज भी हर जगह के लोग उनको जानते हैं। पूर्णिया, जोकी, बारसोई कटिहार, किशनगंज, हर जगह के लोग कहते हैं कि ताहिर साहब आते थे और सब से मिलते थे। वह अक्सर बैलगाड़ी पर आते थे,” शौकत अहमद ने कहा।
वह आगे कहते हैं, “मैं किसी फंक्शन में रुपौली गया था। लोगों को पता चला के मैं ताहिर साहब का बेटा हूँ तो वहां मौजूद 15-20 युवाओं ने वालिद साहब के बारे में कसीदा पढ़ना शुरू कर दिया। वह हर समाज में पॉपुलर थे, चाहे हिन्दू हो, मुसलमान, सेखरा हो या कुल्हैया। अभी हम क़स्बा इलाके में गए थे तो वहां जो शेख लोग थे, वे उनका नाम सुनकर ही एकदम खुश हो गए। लोगों ने उन्हें अभी तक भुलाया नहीं है।”
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