2012 में प्रकाशित ‘आधुनिक बिहार का सृजन’ नामक पुस्तक में डॉ वीसी प्रसाद चौधरी ने लिखा कि 1870 के दशक में बिहार की जनसंख्या 1 करोड़ 95 लाख थी जबकि इसका क्षेत्रफल 32,000 वर्गमील के आस पास था। तब बिहार बंगाल प्रांत का हिस्सा था और 1878 में बंगाल के राज्यपाल सर एडेन ने बिहार के किसानों की दयनीय आर्थिक स्थिति और उनकी असंतुष्टी को स्वीकार किया था।
‘बंगाल मैगज़ीन’ के 1880-81 के संस्करण में बिहार के किसानों को असहाय बताया गया था और लिखा गया था कि बिहार के किसानों में ख़ुशी का भाव न के बराबर है। ‘बंगाल मैगज़ीन’ का यह लेख बंगाल के लोगों का ध्यान बिहार के पिछड़ेपन की तरफ आकर्षित करने का एक प्रयास माना जाता है। पत्रकारिता के द्वारा बिहार की बदहाली और पिछड़ेपन को दर्शाने का यह पहला प्रयास नहीं था।
डॉ वीसी प्रसाद चौधरी की इस पुस्तक और इसके अलावा प्रभाष पी. सिंह और रमेश पंडित द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द अर्बन स्टडीज़’ में ऐसे कई अख़बारों का ज़िक्र मिलता है जिन्होंने 1870 के दशक में ही बिहार राज्य की मांग या यूँ कहें कि बिहारियों के लिए आवाज़ उठाना शुरू कर दिया था।
1874 में सबसे पहले ‘नादिर उल अखबार’ नाम के एक उर्दू समाचार पत्र ने लिखा था कि सरकार बिहारी अखबारों के साथ भेदभाव करती है। उसमें दलील दी गई कि सरकार दूसरे प्रांतों के अखबारों का हौसला बढ़ाने के लिए उनकी प्रतियां खरीदती हैं लेकिन बिहार के अख़बारों को नहीं खरीदती। डॉ वीसी प्रसाद चौधरी अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि शुरू शुरू में बिहार को बंगाल से अलग करने की कोई ठोस मांग पेश नहीं हुई थी बल्कि सरकार की विभेद नीति के विरुद्ध समाचार पत्रों ने अपने हिस्से की आवाज़ उठाई थी।
7 फरवरी 1876 में ‘मुर्ग ए सुलेमान’ नामक एक अखबार ने अपने लेख में ‘बिहार बिहारियों के लिए’ के नारे का प्रयोग किया था। उसी साल अप्रैल में ‘बिहार-बन्धु’ नामक एक पत्रिका ने बंगाली वकीलों के विरुद्ध शिकायत की थी कि वे न्यायलयों में देवनागरी लिपि के व्यवहार में अड़ंगा लगा रहे थे। 22 जनवरी 1877 में ‘कासिद’ नाम की पत्रिका ने लिखा था, “बंगाल और बिहार का संघ उतना ही कृत्रिम है जितना इंग्लैंड और फ्रांस को संयुक्त कर देने से हो सकता है।” इस पत्रिका ने बिहार में सरकारी पदों में बंगाल के लोगों की अधिक नियुक्तियां और बिहार के लोगों की न के बराबर नियुक्तियों को प्रमुखता से छापा था।
1900 के आरंभ में बिहार राज्य की मांग हुई तेज़
सन 1900 के आते आते बिहार के लोगों में भेदभाव और पिछड़ेपन का शिकार होने का भाव आ चुका था। 1893 में बर्तानिया से लॉ की डिग्री ले कर आए डॉ सच्चिदानंद सिन्हा ने बिहार को बंगाल से अलग कर एक अलग राज्य की पहचान दिलाने का सपना देखा। डॉ सच्चिदानंद ने 1944 में प्रकाशित हुई अपनी पुस्तक ‘सम एमेनेंट बिहार कंटेम्परेरीज़’ में लिखा कि 1893 में जब वह लंदन से बैरिस्टर बनकर लौटे तो बिहार के एक रेलवे स्टेशन पर उन्हें एक कॉन्स्टेबल दिखा।
जब उन्होंने उस बिहारी सिपाही के वर्दी पर टंगे बैज पर ‘बंगाल पुलिस’ लिखा देखा तो उन्हें असहजता महसूस हुई। वह अपनी पुस्तक में लिखते हैं, “उस कांस्टेबल के बैज पर बंगाल पुलिस लिखा देख कर विदेश से 3 साल बाद घर लौटने की ख़ुशी कड़वी सी हो गई थी। तब मैंने संकल्प लिया के मैं अपनी पूरी शक्ति से बिहार को एक प्रतिष्ठित प्रशासनिक प्रान्त का दर्जा दिलाऊंगा।”
उन्होंने अपनी किताब में लंदन में पढ़ाई के दौरान एक और घटना का ज़िक्र किया। उन दिनों भारत के कई लॉ के छात्र अपनी पढ़ाई के लिए बर्तानिया में रहते थे। डॉ सच्चिदानंद सिन्हा उन्हीं छात्रों में से एक थे। जब वह नए नए लंदन पहुंचे और उन्होंने बताया कि वह बिहार से हैं तो लोगों ने उनका मज़ाक़ उड़ाया और कहा कि भूगोल की पुस्तक खोल कर दिखाओ कि बिहार नाम की जगह हिंदुस्तान में कहाँ हैं, इस नाम की कोई जगह के बारे में हमने नहीं पढ़ा। डॉ सच्चिदानंद कहते हैं कि इस घटने से उन्हें बड़ा दुख हुआ और ऐसा लगा जैसे उनके अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिया गया हो।
जब सच्चिदानंद बिहार लौटे तो उन्होंने पटना में वकालत की शुरुआत की। उस समय बिहार में सय्यद अली इमाम, मज़हरूल हक़ और नंद किशोर लाल जैसे वकालत और साहित्य क्षेत्र के कई दिग्गज मौजूद थे।
सच्चिदानंद सिन्हा ने जनवरी 1894 में ‘द बिहार टाइम्स’ नाम के अखबार की शुरुआत की। महेश नारायण इस अखबार के संपादक हुआ करते थे जबकि सच्चिदानंद सिन्हा सहित बिहार के कई मशहूर लेखक, बैरिस्टर और बुद्धिजीवी लेख लिखा करते थे। ‘द बिहार टाइम्स’ ने बिहार राज्य की मांग को एक नया आयाम दिया और 1900 के शुरुआती वर्षों में इसमें छपे लेख और नारे इतने मशहूर हुए कि अंग्रेजी ओहदेदार बिहार को बंगाल से अलग करने के विषय पर अपनी बैठकों में चर्चा करने लगे।
सन 1894 में जब चित्तगोंग कमिश्नरशिप ऑफ़ बंगाल की असम में स्थानांतरण करने की बातें शरू हुईं तो डॉ सच्चिदानंद ने इस अवसर का फायदा उठाते हुए बिहार को अलग प्रांत का दर्जा देने की वकालत शुरू कर दी। उन्होंने अपने अखबार में लेख छापे और पैम्फलेट बांटने शुरू कर दिए।
1903 में अंग्रेजी वॉइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल को विभाजित करने का प्रस्ताव रखा था। तब इसे बंगाल प्रेसिडेंसी में बढ़ते बोझ के कारण लिए जाने वाला फैसला बताया गया था। जब 16 अक्टूबर 1905 में हिन्दू और मुस्लिम आबादी के आधार पर बंगाल का विभाजन हुआ तो दोनों धर्मों के लोगों ने इसका खूब विरोध किया। इसके बाद स्वदेशी आंदोलन की सफलता के बाद 12 दिसंबर 1911 को पूरब और पश्चिम बंगाल को फिर से मिला दिया गया लेकिन असम, बिहार और ओडिसा को बंगाल से अलग कर दिया गया।

बिहार बनने से पहले क्या क्या हुआ
1906 में सच्चिदानंद सिन्हा और नारायण मिश्रा ने बिहार को बंगाल से अलग करने की मुहिम को और तेज़ी देते हुए देश भर में पैम्फलेट भेजना शुरू किया। सच्चिदानंद ने अपनी किताब में लिखा कि बंगाल को बिहार से अलग करने के लिए उन्होंने कई तरह से प्रयास तेज़ कर दिए, लेकिन बंगाल के अधिकतर पत्रकार ने उनकी मुहिम के विरुद्ध छापना शुरू कर दिया।
यहाँ तक कि बिहार कि पहले अंग्रेजी अख़बार ‘द बिहार हेराल्ड’ के संपादक गुरु प्रसाद सेन भी बिहार को बंगाल से अलग करने के विचार के खिलाफ थे क्योंकि वह मानते थे कि ऐसा होने से बिहार आर्थिक रूप से और कमज़ोर हो जाएगा।
1906 में लॉर्ड मिंटो को नया वॉयसरॉय बनाया गया। उस समय तक बिहारियों में अलग राज्य का सपना बहुत भीतर तक घर कर चुका था। प्रभाष पी. सिंह और रमेश पंडित की पुस्तक ‘द अर्बन स्टडीज़’ में मिलता है कि बिहार राज्य के गठन के लिए बिहार के हिन्दू और मुसलमान साथ साथ आवाज़ उठा रहे थे और साथ ही साथ उनका रवैया काफी नरम था। इस मुहीम के दौरान किसी तरह की हिंसक या उग्र प्रदर्शन देखने को नहीं मिला, जिस ने अंग्रेजी हुकूमत को इस मुहिम से किसी समस्या में नहीं डाला।
सन 1908 में पटना में सय्यद अली इमाम की अध्यक्षता में पहले ‘बिहार प्रांतीय सम्मेलन’ आयोजित हुआ। इस सम्मलेन में सय्यद मोहम्मद फखरुद्दीन ने बिहार को एक अलग राज्य बनाने को लेकर एक प्रस्ताव पत्र पेश किया जिसे बिहार के सभी जिलों से आए प्रतिनिधियों द्वारा समर्थन मिला। 14 अगस्त 1908 को बिहार के भूमि धारक संघ, बिहार प्रांतीय संघ और बिहार प्रांतीय मुस्लिम लीग ने एक प्रतिनिधि मंडल को नियुक्त किया।
इस प्रतिनिधि मंडल ने लेफ्टिनेंट गवर्नर को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें बिहार को एक अलग राज्य और पटना को बिहार की राजधानी बनाने की मांग की गई थी।
इसके साथ साथ बिहार को शिक्षा, स्वास्थ, न्याय और प्रशासनिक सुविधा देने की भी मांग की गई थी। लेफ्टिनेंट-गवर्नर सर एडवर्ड बेकर ने इसके बाद भरोसा दिलाया था कि बिहार और बिहारियों के विकास में आने वाली अड़चनों को हटाने के लिए शीघ्र कदम उठाये जाएंगे। 1909 में दूसरा बिहार प्रांतीय सम्मेलन भागलपुर में आयोजित हुआ जिसके अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा थे।
अब बिहार की उन्नति के लिए बिहार के बुद्धिजीवियों को भारत सरकार में अच्छे पद मिलने लगे थे। मज़हरूल हक़ और सच्चिदानंद सिन्हा को इंपीरियल विधान परिषद का सदस्य बनाया गया जबकि सय्यद शरफुद्दीन को कलकत्ता उच्च न्यालय का न्यायाधीश बनाया गया। इसके कुछ समय बाद सय्यद अली इमाम को भारत सरकार का स्थायी कौन्सेल बनाया गया।
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सच्चिदानंद सिन्हा ने अपनी पुस्तक में लिखा कि सदस्य के तौर पर वह 1910 में इंपीरियल विधान परिषद के एक समारोह में शामिल होने गए थे। उस दौरान उन्हें वायसराय लॉर्ड मिंटो के साथ लंच पर बुलाया गया। लॉर्ड मिंटो ने सच्चिदानंद सिन्हा से उस समय भारत सरकार के लॉ मेंबर एम पी. सिन्हा के संन्यास लेने के बाद नया भारतीय लॉ मेंबर को ढूढंने की बात कही। लार्ड मिंटो ने कहा कि वह यह पद किसी योग्य मुसलमान व्यक्ति को देना चाहते हैं।
सच्चिदानंद सिन्हा ने अच्छा अवसर देख कर अपने मित्र बैरिस्टर सैय्यद अली इमाम का नाम आगे किया।
अगले दिन वायसराय लार्ड मिंटो ने एमपी सिन्हा द्वारा सय्यद अली इमाम को लिखे गए पत्र को सच्चिदानंद सिन्हा को सौंप दिया। सच्चिदानंद सिन्हा ने अली इमाम को जब पत्र दिखाया तो वह राज़ी न हुए, लेकिन उन्होंने जब यह कहा कि इस पद के मिलने से बिहार को अलग राज्य का दर्जा मिलना काफी आसान हो सकता है तो सय्यद अली इमाम ने इस पद को स्वीकार कर लिया।
इस चालाकी से बिहार को राज्य और कार्यकारिणी परिषद का दर्जा मिला
सच्चिदानंद सिन्हा अपनी किताब में आगे लिखते हैं कि अगले साल 1911 के इंपीरियल विधान परिषद समारोह के दौरान वह लॉ मेंबर नियुक्त किये जा चुके सैय्यद अली इमाम के साथ शिमला स्थित उनके मकान पर रुके थे। उस समय ब्रिटेन के राजा के भारत आने की बहुत चर्चा थी। सच्चिदानंद के एक मित्र मोहम्मद अली ने उनसे बताया कि ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम दिल्ली में दरबार लगाकार खुद को भारत का ‘एम्पेरर’ घोषित करने वाले हैं और यह भी मुमकिन है कि दिल्ली को अंग्रेजी हुकूमत की राजधानी भी बना दिया जाए। इस पर सच्चिदानंद सिन्हा ने सय्यद अली इमाम से बिहार को एक अलग प्रशासनिक राज्य बनाने के लिए कदम उठाने की मांग की और कहा कि कुछ ऐसा कीजिये के अंग्रेजी राजा के हाथों बिहार वासियों को अब तक की सबसे बड़ी सौग़ात मिलजाए।
सय्यद अली इमाम ने सच्चिदानंद से उनके द्वारा छापे गए पैम्फ्लेट को पढ़ा और कहा, “मान लीजिये बंगाल में कोई क्षेत्रीय परिवर्तन होता है फिर भी बिहार को कार्यकारिणी परिषद नहीं मिल सकेगा। सच्चिदानंद ने कानून की कई किताबों को छाना और फिर उन्होंने यह पाया कि ‘कॉउंसिल’ शब्द को अगर ‘गवर्नर’ या ‘लेफ्टिनेंट गवर्नर’ के साथ जोड़ा जाए तो संविधान की किताब में उसे कार्यकारिणी परिषद माना जाएगा।
सय्यद अली इमाम को जब सच्चिदानंद ने यह बात बताई तो उन्होंने कहा कि बिहार राज्य के प्रस्ताव लिखने पर वह ‘एक्जिक्यूटिव कॉउंसिल फॉर बिहार’ (बिहार कार्यकारिणी परिषद) की जगह ‘लेफ्टिनेंट-गवर्नर इन कॉउंसिल’ के अभिव्यंजना का प्रयोग करेंगे।
12 दिसंबर 1911 को ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम ने दिल्ली दरबार में बिहार-ओड़िसा को ‘लेफ्टिनेंट-गवर्नर इन कॉउंसिल’ के तहत नए राज्य का दर्जा देने का एलान कर दिया।
अंततः 22 मार्च 1912 को बिहार एक नए राज्य में तब्दील हो गया, वह भी एक कार्यकारिणी परिषद के साथ और साल 1916 में बिहार को अपना उच्च नियालय भी मिल गया।
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