5 जुलाई 1978 को दिन के तीन बजे देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी संसद भवन के पहले माले के एक कमरे में पहुंचती हैं। उन्हें विशेषाधिकार समिति यानी प्रिवलेज कमेटी के सामने पेश होना था, लेकिन कमेटी द्वारा उन्हें बाहर इंतज़ार करने को कहा गया और एक घंटे बाद उन्हें अंदर बुलाया गया। विशेषाधिकार समिति ने करीब 15 मिनट के सवाल जवाब के बाद इंदिरा गांधी को जाने को कहा।
22 नवंबर को समर गुहा की अध्यक्षता वाली विशेषाधिकार समिति ने इंदिरा गांधी को अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में आपातकाल के दौरान विशेषाधिकार का उल्लंघन और लोकसभा की अवमानना का दोषी पाया। 15 लोगों की जिस विशेषाधिकार समिति ने इंदिरा गांधी को दोषी ठहराया था, उनमें किशनगंज के तत्कालीन सांसद हलीमुद्दीन अहमद भी शामिल थे।
मोहम्मद हलीमुद्दीन अहमद का जन्म 15 नवंबर 1921 को बिहार के अररिया जिला स्थित खरैय्या बस्ती में हुआ। उनके पिता स्वतंत्रता सैनानी थे और वह खुद स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े रहे। वह महात्मा गांधी के विचारों से काफी प्रभावित थे। हलीमुद्दीन 1977 में किशनगंज से लोकसभा चुनाव जीते, उन्होंने उस समय कांग्रेस के सांसद रहे जमीलुर रहमान को 80 हजार 130 वोट से हराया था।
शरुआती दिनों से पढ़ने और पढ़ाने का रहा शौक
हालीमुद्दीन अहमद ने अररिया हाई स्कूल से शुरुआती पढ़ाई की और फिर पटना कॉलेज से स्नातक की डिग्री ली। पटना कॉलेज में उनके उस्तादों में मशहूर शायर और कथाकार सोहेल अज़ीमाबादी और उर्दू साहित्यकार अख्तर ओरेनवी जैसे बड़े नाम शामिल रहे।
पटना से स्नातक की पढ़ाई कर लौटने के बाद हलीमुद्दीन अहमद किशनगंज के बहादुरगंज स्थित रसल हाई स्कूल में कई सालों तक शिक्षक रहे, तब किशनगंज, पूर्णिया जिले का हिस्सा हुआ करता था।
हलीमुद्दीन अंग्रेजी ज़बान में अच्छी पकड़ रखते थे, इसका फायदा उन्हें वकालत में मिला। उन्होंने पटना उच्च न्यायालय से वकालत का सर्टिफिकेट लिया और वकालत शुरू की। रसल हाई स्कूल में कुछ साल पढ़ाने के बाद उन्होंने 1947 में अररिया में वकालत शुरू कर दी थी और कई सालों तक अररिया जिला अदालत में सरकारी वकील के तौर पर काम करते रहे।
वह उर्दू भाषा में भी काफी निपुण थे और मीर तक़ी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब, मोहम्मद इक़बाल जैसे उर्दू के दिग्गज शायरों को खूब पढ़ा करते थे। कुरआन और हदीस का भी उन्हें काफी इल्म था जिसका सबूत उनके ख़ुत्बा (धार्मिक भाषण) में मिलता है, जो उन्होंने सन् 1966 में अररिया के मदरसा इस्लामिया यतीम ख़ाना के जलसे में दिया था। उस ख़ुत्बे को कटिहार के नेशनल आर्ट प्रेस ने पुस्तिका की शक्ल में छापा था।
रफ़ीक़ आलम, अकमल यज़दानी जैसे शागिर्द
रसल हाई स्कूल में हलीमुद्दीन पूर्व केंद्रीय मंत्री, राज्यसभा सदस्य व विधायक रफीक आलम के शिक्षक रहे। सीमांचल के मशहूर इतिहासकार अकमल यज़दानी भी उनके शागिर्दों की सूची में शामिल रहे। हलीमुद्दीन अहमद के बड़े बेटे पूर्णिया निवासी डॉक्टर शमशाद अहमद ने ‘मैं मीडिया’ से बात करते हुए कहा, “अब्बा नाज़ करते थे कि ये दो छात्र मेरा बहुत लायक निकला।”
वह आगे कहते हैं, “रफ़ीक आलम केंद्रीय मंत्री थे लेकिन जब भी अररिया आते थे तो ज़रूर आकर अब्बा से मिलते थे। अकमल यज़दानी साहब बीरनगर हाईस्कूल शुरू किये थे, वह भी अक्सर घर आकर अब्बा से मिलते थे। उस्ताद का एहतेराम करते मैंने उन दोनों को देखा है।”
शिक्षा के क्षेत्र में अहम योगदान
हलीमुद्दीन अहमद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद ख़ान से काफी प्रभावित थे, जनवरी 1961 में उन्होंने भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम पर अररिया में आज़ाद अकादमी उच्च माध्यमिक विद्यालय की स्थापना की।
अगले साल स्कूल को पूर्ण मान्यता मिली और इस तरह आज़ाद अकादमी स्वतंत्र भारत में शुरू होने वाले सबसे पहले मुस्लिम अल्पसंख्याक स्कूलों में से एक बना। हलीमुद्दीन ने आज़ाद अकादमी प्रबंधन समिति की ओर से अंग्रेजी में 21 पन्नों का विद्यालय संविधान लिखा था जो आज भी स्कूल में लागू है।
अररिया के अल शम्स मिलिया कॉलेज के बनने में भी हलीमुद्दीन अहमद का अहम किरदार रहा। दरअसल कॉलेज शुरू करने के लिए जमीन नहीं मिल रही थी जिसके बाद कॉलेज के संस्थापक सह निवेशक डॉक्टर मसूद शम्स ने हलीमुद्दीन अहमद से मदद मांगी, जिसके बाद उन्होंने अपने समधी मुजीबुर रहमान से अररिया जीरो माइल के करीब वाला प्लॉट दिलवाया और फिर 1979 में अल शम्स मिलिया कॉलेज की स्थापना हुई।
देश की आजादी के बाद अररिया के शिक्षा संस्थानों में हलीमुद्दीन अहमद ने कई बड़ी जिम्मेदारी निभाई। वह अररिया कॉलेज के संयोजक और संस्थापक सदस्य रहे। अल शम्स मिलिया कॉलेज के संस्थापक सदस्य, अररिया पब्लिक उर्दू लाइब्रेरी के सह संस्थापक और मदरसा इस्लामिया यतीम ख़ाना के समिति सदस्य रहे। इसके अलावा पूर्णिया जिले के कई बड़े संगठनो में उन्होंने अपनी सेवा दी।
उन्होंने किशनगंज के मारवाड़ी कॉलेज के लिए भी सरकारी मदद दिलाई थी। अपने सांसदीय कार्यकाल में उन्होंने मारवाड़ी कॉलेज का छात्रावास बनाने की पहल कि थी जिसके बाद दिसम्बर 1978 में मारवाड़ी कॉलेज को यूजीसी के तरफ से 3 लाख रुपये कि राशि दी गई।
EWS आरक्षण के लिए पहली आवाज़
जनवरी 2019 को ईडब्ल्यूएस यानी आर्थिक रूप से कमज़ोर सामान्य वर्ग के लिए 10% आरक्षण देने का प्रावधान लाया गया। 1978 के लोकसभा सत्र में जिस सांसद ने पहली बार ईडब्ल्यूएस आरक्षण की मांग की थी, वह हलीमुद्दीन अहमद ही थे।
हलीमुद्देन ने किशनगंज लोकसभा क्षेत्र और आसपास के बाढ़ प्रभावित इलाकों के लिए ‘परवान प्रोजेक्ट’ नाम की योजना पारित करवाई थी। इसके अलावा उन्हें बरौनी से कटिहार तक बड़ी लाइन रेल सेवा की मंजूरी दिलाने में बड़ी भूमिका निभाने का श्रेय दिया जाता है।
एएमयू संशोधन बिल पर अपनी ही पार्टी का विरोध
2 मई 1979 को हलीमुद्दीन ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी संशोधन बिल 1978 पर एक भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि मुसलमानों को देश के तरक्की में बराबर का हिसादार बनाने के लिए इस तरह के अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान का बड़ा किरदार होगा। देश में 10 करोड़ मुसलमान हैं, जो भरपूर काबिलियत रखते हैं, लेकिन मुसलमानों को अलग-अलग मसलों में उलझा कर रखा जाता है।
सत्ताधारी पार्टी के सांसद रहने के बावजूद हालीमुद्दीन अहमद ने अपनी पार्टी (जनता पार्टी) पर दबाव बनाया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा बहाल किया जाए। उन्होंने अल्पसंख्यक का दर्जा दिए बिना अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी संशोधन बिल के पक्ष में वोट करने से इनकार कर दिया था और सदन को छोड़ बाहर निकल आए थे।
अपने भाषण में उन्होंने अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर अत्याचारों की निंदा करते हुए कहा था कि अंग्रेजों ने जो देश के साथ किया उसके जवाब में मुल्लाओं ने अंग्रेजी भाषा से दूरी बना ली, इसका परिणाम यह हुआ कि दुनियावी तालीम में मुसलमान पीछे रह गया। अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसी संस्था हाशिये पर पड़े मुसलामानों को देश की तरक्की में योगदान देने का मौका देती है।
भाषण के दौरान हलीमुद्दीन ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान का दर्ज दिलाने की मांग करते हुए कहा, “जो लोग बंटवारा चाहते थे, वे पाकिस्तान चले गए और जिन्हें इस मिट्टी से मोहब्बत है वे देश के साथ खड़े हैं। इस हकीकत से मुंह मोड़ना मुमकिन नहीं कि (अलीगढ़) मुस्लिम युनिवेर्सिटी मुसलामानों के जरिये कायम किया गया अक़लियती इदारा है।“
सांप्रदायिक तनाव के बीच दुर्गा पूजा जुलूस
हलीमुद्दीन अहमद कुल्हैया समाज से ताल्लुक रखते थे। कुल्हैया डेवलपमेंट ऑर्गनाइज़ेशन की प्रयासों से कुल्हैया मुस्लिम बिरादरी को अति पिछड़ा जाति घोषित कराने में उनका भी योगदान रहा।
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गांधी जी से प्रभावित रहे हलीमुद्दीन हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षदर थे। अररिया में वह 1960 के दशक से ही सामाजिक कार्यों में सक्रिय थे। उनके बेटे डॉक्टर शमशाद अहमद ने एक घटना का जिक्र किया।
सन् 1967 में दुर्गा पूजा त्यौहार में मूर्ति विसर्जन और रमज़ान महीने का अलविदा जुमा एक ही दिन होना था। ऐसी अफवाह फैली कि इस बार दुर्गा पूजा का जुलूस अररिया जामा मस्जिद के बगल वाले रास्ते से गुजरेगा।
यह सुन कर मुसलमानों कि बड़ी भीड़ जुमा पढ़ने अररिया के जामा मस्जिद पहुंची और मस्जिद के पास जमा हो गई। माहौल खराब होता देख हलीमुद्दीन अहमद ने जिला प्रशासन से कहकर दुर्गा पूजा के जुलूस को निकलवाने का ज़िम्मा अपने ऊपर लिया। इसके बाद दुर्गा पूजा का जुलूस परंपरागत रास्ते से शांतिपूर्वक तरीके से निकला।
कुछ दिनों बाद अररिया के सिविल एसडीओ ने इस घटना की आधिकारिक रिपोर्ट तैयार कर सरकार को भेजी। उसमें उन्होंने हलीमुद्दीन अहमद कि प्रशंसा करते हुए लिखा, “वह अररिया के समाज के लिए एक सरमाया हैं।“
कैसा रहा राजनैतिक सफर
हलीमुद्दीन अहमद ने अपने जीवन का पहला चुनाव 1967 में लड़ा था। उस समय अररिया ज़िले के जोकीहाट विधानसभा से कांग्रेस के टिकेट पर खड़े हुए थे, हालांकि उनके पहले चुनाव में उन्हें हार का मुंह का देखना पड़ा। 11,188 वोट लाकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नज़मुद्दीन ये चुनाव जीते और 6,904 लाकर हलीमुद्दीन तीसरे स्थान पर रहे।
हलीमुद्दीन अहमद के बेटे डॉक्टर शमशाद अहमद ने बताया कि उनके पिता कांग्रेस के बड़े समर्थक थे, लेकिन 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के द्वारा आपातकाल घोषित करने के बाद वह कांग्रेस से दूर हो गए। हालांकि 1985 में वह फिर कांग्रेस से जुड़े और अररिया विद्यानसभा से विधायक चुने गए।
“राजनीति में इनकी शुरुआत छात्र जीवन से हुई। उनके पिता शेख बदरुद्दीन अहमद 1920 की दहाई में शुरू हुए खिलाफत आंदोलन से जुड़े और अररिया ख़िलाफ़त आंदोलन के महासचिव रहे। यह सियासी समझबूझ मेरे वालिद को उनके अब्बा से मिली थी,” डॉक्टर शमशाद ने बताया।
वह आगे बताते हैं, “उनको कोई दौलत या जायदाद उनके वालिद से नहीं मिली, बस इल्म और पहचान मिली। मेरे अब्बा सांसद और विधायक बनने के बाद भी आलीशान घर में नहीं रहे। वह गांव में खपरैल की छत वाले घर में रहते थे।”
हलीमुद्दीन अहमद ने 1977 के लोकसभा चुनाव में किशनगंज सीट से जीत हासिल की और संसद पहुंचे। उस चुनाव में वह किस पार्टी के टिकट पर लड़े थे, इसमें स्पष्टता की कमी है। इलेक्शन कमीशन की आधिकारिक वेबसाइट पर लिखा गया है कि हलीमुद्दीन अहमद 1977 में भारतीय लोक दल की पार्टी से चुनाव लड़े थे, जबकि पुराने अखबारों में उनकी पार्टी का नाम ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ यानी सीएफडी दिया गया है।
डॉक्टर शमशाद अहमद की मानें तो उनके पिता हलीमुद्दीन ने 1977 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस से अलग हुए जगजीवन राम द्वारा बनाई गई सीएफडी पार्टी के टिकट पर लड़ा था। कुछ महीने बाद सीएफडी ने सत्ताधारी जनता पार्टी में अपना विलय कर लिया था।
तीन साल बाद यानी 1980 में अगला लोकसभा चुनाव हुआ। इस बार हलीमुद्दीन जनता पार्टी के टिकट पर किशनगंज से चुनाव लड़े, लेकिन वह अपनी सीट बचा नहीं पाए और कांग्रेस के जमीलूर रहमान से हार गए।
1985 में वह अररिया विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़े और 32,918 वोट लाकर चुनाव जीतने में कामयाब रहे।
कांग्रेस में शामिल होने के बाद वो पूर्णिया जिला कांग्रेस कमेटी से लेकर बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का हिस्सा रहे। हालीमुद्दीन ने बिहार राज्य कॉपरेटिव मार्केटिंग यूनियन और बिहार सुन्नी वक्फ बोर्ड में भी अपना योगदान दिया।
14 जनवरी 1990 को अररिया, पूर्णिया से अलग होकर एक नया जिला बना। यह हलीमुद्दीन अहमद के कार्यकाल में ही हुआ और इसमें उनका अहम योगदान रहा।
समय के साथ भुला दिए गए हलीमुद्दीन अहमद
अपने जमाने में हलीमुद्दीन अहमद पूर्णिया जिले के एक बड़े राजनेता और समाज सुधारक के तौर पर जाने गए। शिक्षा के मैदान में उन्होंने सबसे अधिक योगदान दिया। जब वह किशनगंज से लोकसभा सांसद और अररिया से विधायक बने, तो उनका जिला पूर्णिया था हालांकि अररिया के मूल निवासी होने के कारण उनका अधिकतर समय अररिया में ही गुज़रा।
हलीमुद्दीन अहमद के बारे में इंटरनेट पर या पुस्तकों में बहुत कुछ नहीं लिखा गया। उनके बारे में जानकारी इकट्ठा करते समय सार्वजानिक माध्यमों पर हमें अधिक जानकारी नहीं मिली।
कुछ साल पहले अररिया जिला परिषद ने शहर में स्थित विकास मार्केट का नाम बदल कर हलीमुद्दीन अहमद मार्केट रखा और एक पत्थर पर उनके नाम को अंकित किया, लेकिन शहर में अब तक लोग उस जगह को विकास मार्केट ही बुलाते हैं और दुकानों के बोर्ड पर भी विकास मार्केट ही लिखा मिलता है।
हलीमुद्दीन के परिवार वालों का कहना है कि जिला परिषद ने बस खानापूर्ति की नीयत से यह कदम उठाया, लेकिन बाजार को उनके नाम की पहचान दिलाने में कभी भी दिलचस्पी नहीं दिखाई।
जब उन्हें “अररिया का गांधी” कहा जाता था
हलीमुद्दीन अहमद ने अपने 75वें जन्मदिन से एक दिन पहले 14 नवंबर 1996 को अररिया स्थित अपने घर में आखिरी सांस ली। वह लंबे समय से कैंसर से जूझ रहे थे। कहा जाता है कि उनके आखिरी दिनों में केंद्र और राज्य सरकार ने उनकी कोई मदद नहीं की। करीब 3 साल तक लड़ने के बाद अंततः वह कैंसर से हार गए।
उनकी मौत के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में एक छोटा सा लेख छपा जिसमें उन्हें ‘अररिया का गांधी’ लिखा गया। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ अखबार ने उनकी मौत पर छपे लेख में उन्हें “नेग्लेक्टेड एमपी” लिखा। इस पर उनके बेटे डॉक्टर शमशाद ने ‘मैं मीडिया’ से कहा कि उनके पिता ने शुरू से अपने किसी काम का प्रचार प्रसार नहीं किया, वह हमेशा गुमनामी में काम करना चाहते थे।
डॉक्टर शमशाद की मानें, तो बिहार और खासकर सीमांचल में ऐसे राजनेताओं की लंबी सूची है जो हलीमुद्दीन अहमद से सलाह और मार्गदर्शन लिया करते थे। उन्होंने इस सूची में जो बड़े नाम गिनवाए उनमें जमिलुर रहमान, शीतल प्रसाद गुप्ता, मोहम्मद ताहिर, जियाऊर रहमान, रफ़ीक़ आलम, मोहम्मद तसलीमुद्दीन और मुन्ना मुश्ताक जैसे बड़े नेता शामिल हैं।
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