किशनगंज जिले के पोठिया प्रखंड स्थित पनासी एस्टेट का इतिहास करीब 2 सदी पुराना है। पनासी के ज़मींदार सैकड़ों एकड़ में फैले एस्टेट की जागीरदारी संभालते थे। यह बंगाल के इस्लामपुर एस्टेट से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, वहीं किशनगंज जिला मुख्यालय पनासी से 25 किलोमीटर दूर है।
2011 की जनगणना में पनासी की आबादी 2997 बतायी गयी है। पनासी स्टेट में करीब साढ़े पांच सौ घर हैं और यहां की पक्की सड़क इसे राष्टीय राजमार्ग से जोड़ती है। पश्चिम बंगाल स्थित गुंजरिया बस हॉल्ट से ढाई किलोमीटर दूर बिहार के पनासी एस्टेट पहुँचने पर हमें एक सूखा तालाब दिखा। स्थानीय लोगों ने बताया कि पनासी एस्टेट के ज़मींदार जब पहली बार यहां पहुंचे थे, तो सबसे पहले यह तालाब खुदवाया था।
शाही इतिहास की गवाही देती पनासी एस्टेट की इमारतें
तालाब से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक मस्जिद दिखी जिसकी बनावट किशनगंज के बाकी एस्टेट की मस्जिदों से थोड़ी अलहदा थी। मस्जिद के पास ही पीले रंग की एक कोठी दिखी जिसके सामने लाल रंग की कुटियानुमा दो इमारतें थीं। कोठी में पनासी एस्टेट के जागीरदारों के वंशज आज भी रहते हैं, हालाँकि टाली की छप्पड़ वाली लाल ईंट की बनी दोनों इमारतें खाली पड़ी थीं।
कहा जाता है कि इन लाल इमारतों में बिस्वास बिरादरी के लोग रहते थे, जो पनासी स्टेट के भूमि-कर और दूसरे खर्चों का हिसाब किताब लिखा करते थे। पनासी स्टेट की यह पीली कोठी की बनावट किशनगंज के खगड़ा नवाब की कोठी से बहुत समानता रखती है। कोठी से चंद कदम के फासले पर एक पुराना कुआं दिखा जो अब भर चुका है।
कोठी से सटे पनासी स्टेट की मशहूर जामा मस्जिद के अंदर जाने पर नक्काशी से भरी दीवारें दिखती हैं। यह कलाकृति सीमांचल की बाकी एस्टेटों की मस्जिदों में भी देखने को मिलती है लेकिन इस मस्जिद का आकार और गुम्बंद के भीतरी भाग पर नक़्क़ाशी इसे बाकी मस्जिदों से जुदा करती है। हमने आसपास के लोगों से मस्जिद के स्थापना की तारीख मालूम करना चाहा तो पता चला कि यह मस्जिद 1830 से 1840 के बीच बनाई गई थी। हालांकि, मस्जिद के निर्माण की सटीक तारीख के बारे में स्थानीय लोग भी अनजान हैं।
करीब 2 सदी पहले हुआ था पनासी एस्टेट का निर्माण
पनासी स्टेट के ज़मींदारों के वंशज आज भी इसी गांव में रहते हैं। उन्हीं में से एक अबुल फैज़ मोहममद आदिल ने ‘मैं मीडिया’ से बताया कि पनासी एस्टेट की जामा मस्जिद को उनके पूर्वज हाजी अहमद हुसैन ने बनवाया था। उनके अनुसार, 1830 के दशक में मस्जिद और कोठी का निर्माण कराया गया था और मस्जिद की स्थापना की तारीख को भी इसकी दिवार पर नक़्श किया गया था।
दिवार पर लिखी गई तारीख चूँकि कैथी लिपि में लिखी गई थी इसलिए उसको पढ़ना बेहद मुश्किल होता था। स्थापना तिथि की नक्काशी अब मिट चुकी है।
पनासी एस्टेट की जामा मस्जिद से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक और मस्जिद है जिसे रतनपुर मस्जिद कहते हैं। कहा जाता है कि यह मस्जिद भी कम से कम 150 साल पुरानी है, हालांकि यह मस्जिद एस्टेट के जामा मस्जिद से छोटी है।
मोहम्मद आदिल ने बताया कि पनासी एस्टेट के संस्थापक हाजी अहमद हुसैन सन् 1800 के दूसरे या तीसरे दशक में अपने भाइयों के साथ पनासी एस्टेट आए थे। कोठी और मस्जिद उनके आने के कुछ सालों बाद तैयार की गई थी।
वह बांग्लादेश की किसी रियासत से पनासी एस्टेट पहुंचे थे। उस समय बांग्लादेश, भारत का हिस्सा हुआ करता था। मोहम्मद आदिल ने यह भी बताया कि वह ज़मींदार हाजी अहमद हुसैन की छठी पुश्त हैं।
वह कहते हैं, “यह जो खाली ज़मीन देख रहे हैं, यहाँ कई घर बने हुए थे। उनमें दरबान और एस्टेट के बाकी कर्मचारी रहा करते थे। इधर, आम का बग़ीचा है, इसके आगे एक किलोमीटर तक काफी मकान हुआ करते थे। यहाँ बहुत लोग रहते थे, जो एस्टेट में काम किया करते थे। यह जो तालाब देख रहे हैं यह भी उसी समय का खुदवाया हुआ है।”
मोहम्मद आदिल के अनुसार पनासी स्टेट के ससंथापक हाजी अहमद खान के चार बेटे थे, जिनके बीच एस्टेट की ज़मीनों का बंटवारा हुआ था और उन चार बेटों के वंशज किशनगंज के पनासी एस्टेट के अलावा कोलकाता के 34 कॉलोनी एस्टेट में रहते हैं। पनासी के ज़मींदारों के वंशज के कई लोग आज़ादी से पहले बंगलदेश जाकर बस गए थे।
मोहम्मद आदिल ने आगे बताया कि पनासी एस्टेट आसपास के कई इलाकों के कर जमा करता था। सोनापुर, विधान नगर, दासपाड़ा, खरखरी, पौआखाली, बरचौंदी, तैयबपुर जैसे इलाके पनासी एस्टेट का हिस्सा हुआ करते थे।
“पनासी स्टेट बहुत बड़ा एरिया हुआ करता था। हमलोग बचपन में सुनते थे कि पनासी एस्टेट के जागीरदारों को शिकार का शौक था और यहां एस्टेट में हाथी और घोड़े जैसे जानवर रखे जाते थे। यहां दस दस हाथी थे पचासों घोड़े थे।”
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“वह जो आपने टाली वाला घर देखा, उसमें बिस्वास लोग रहते थे। बिस्वास लोग ही एस्टेट का पूरा हिसाब किताब करते थे, जिसको हम लोग एस्टेट का अकाउंटेंट बोल सकते हैं। उनके पास एस्टेट का पूरा हिसाब किताब रहता था,” आदिल ने कहा।
आदिल ने आगे बताया कि पुराने जमाने में पनासी की भूमि बहुत उपजाऊ हुआ करती थी। पनासी एस्टेट के आमदनी का बड़ा हिस्सा कृषि से ही आता था।
“पहले तो यहां कई बीघा जमीन में खेती होती थी, अब भी होती है लेकिन अब जमीन तो बहुत कम है । अभी यहां धान और पटवा की सबसे ज्यादा खेती होती है”, उन्होंने बताया।
इतिहास की किताब में पनासी एस्टेट
सीमांचल के बाकी एस्टेट की तरह ही पनासी स्टेट की जानकारी भी मुख्य धारा के ऐतिहासिक पुस्तकों में न के बराबर है। इंटरनेट पर भी पनासी के इतिहास की कोई ख़ास जानकारी मौजूद नहीं है। लेकिन ‘अर्ली हिस्टोरिकल पर्सपेक्टिव ऑफ़ नार्थ बंगाल’ नाम की एक पुस्तक में पनासी एस्टेट का ज़िक्र ज़रूर मिलता है। इस्लामपुर स्टेट के ज़िक्र के दौरान पनासी एस्टेट का उल्लेख है। इसमें लिखा गया कि पनासी स्टेट में ‘पट्टानिदार’ को एस्टेट के लिए टैक्स वसूलने के लिए नियुक्त किया जाता था। पट्टानिदार उन पैसों को एस्टेट के राजा के हवाले करते थे। उन दिनों ज़मींदारों को बंगाल और सीमांचल में राजा पुकारा जाता था।
पनासी स्टेट के ज़मींदार हाजी अहमद हुसैन के वंशज मोहम्मद आदिल ने बातचीत के दौरान ‘मैं मीडिया’ से बताया कि पनासी एस्टेट से जमा किया गया टैक्स बंगाल रियासत की राजधानी मुर्शिदाबाद भेजा जाता था। बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल की सभी ज़मींदारी प्रणाली पर कब्ज़ा जमा लिया।
सन 1793 में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रमुख लॉर्ड कार्नवालिस ने ‘द परमानेंट सेटलमेंट’ नाम से एक अधिनियम की शुरूआत की, जिसके अंतर्गत पहले बंगाल और फिर बिहार और ओड़िसा के सभी ज़मींदारों को हर साल एक तय शुदा रक़म टैक्स के तौर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को देना होता था।
157 वर्ष बाद सन् 1950 में पूर्वी बंगाल राज्य अर्जन किराएदारी अधिनियम ( द ईस्ट बेंगाल स्टेट एक्युइज़ेशन एंड टेनेंसी एक्ट) पारित हुआ जिससे भारत के पश्चिम बंगाल में ज़मींदारी प्रथा का अंत हुआ और इस अधिनियम के अंतर्गत राज्य में कई भूमि सुधार योजनाएं भी लागू की गईं।
जागीरदारों के वंशज एस्टेट की इतिहास संजोने में दिखे अनिच्छुक
स्थानीय लोगों का मानना है कि इस समय बिहार राज्य में आने वाला पनासी एस्टेट आज़ादी से पहले बंगाल रियासत का हिस्सा हुआ करता था। हालांकि, इसकी आधिकारिक पुष्टि कर पाना मुश्किल है।
ग़ौरतलब है कि बीएन मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘अर्ली हिस्टोरिकल पर्सपेक्टिव ऑफ़ नार्थ बंगाल’ में दो बार पनासी एस्टेट का ज़िक्र किया है और दोनों बार पनासी एस्टेट की बात इस्लामपुर स्टेट के संदर्भ में की गई है।
इतिहास की पुस्तकों में पोठिया प्रखंड के पनासी एस्टेट की हाज़री बेहद कम है। पनासी की इतिहास को और करीब से जानने के लिए हमने ज़मींदार हाजी अहमद के वंश के कई लोगों से स्टेट से जुड़ी स्मृति या किसी तरह के कागज़ात मांगने का काफी प्रयास किया। हमारी टीम दो बार पनासी एस्टेट गई, लेकिन वे अपने पूर्वज के इतिहास को साझा करने के लिए ज़्यादा इच्छुक नज़र नहीं आए।
पहले तो उन्होंने कहा कि वे एस्टेट का वक्फ-नामा सहित दूसरे कागज़ात साझा करेंगे, लेकिन बार बार संपर्क करने के प्रयास के बावजूद वे एस्टेट से संबंधित कोई भी दस्तावेज साझा करने से कतराते नज़र आए।
जब हम पनासी एस्टेट से लौटने लगे, तो पीली कोठी से निकले एक स्कूटर पर सवार व्यक्ति ने चीख कर हमसे कहा, “हमारे लिए आवाज़ उठाइये हमें कॉम्पेन्सेशन (मुआवज़ा) भी नहीं मिलता है।”
पनासी स्टेट की भव्य इमारतें और मस्जिदों की कलाकृतियां पुराने वक्तों में इस एस्टेट की महत्व के बारे में बहुत कुछ बताती हैं। इतिहास के पन्नों में पनासी की हिस्सेदारी कम होने का कारण क्या था, बता पाना कठिन है।
एक धारणा यह है कि बंगाल और बिहार की सीमा पर बसा हुआ पनासी एस्टेट अपनी अनोखी अवस्थिति के कारण बिहार के पूर्णिया डिवीज़न और बंगाल के दिनाजपुर के बाकी एस्टेटों के मुकाबले इतिहासकारों का ध्यान केंद्रित करने में असफल रहा।
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