मान्यता है कि मध्य प्रदेश के उज्जैन से कुछ लोग पास के बैसा गांव आए और उनमें से कुछ बैगना में आकर बस गए।
गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से उत्तर बिहार जाने वाले या फिर वहां से आने वाले नेता-मंत्री लगभग दावे के साथ कहते पाए जाते रहे हैं कि शास्त्रीय भाषाओं में मैथिली को स्थान मिलना चाहिए।
भैरव लाल दास 'कैथी का इतिहास' में लिखते हैं कि उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कैथी लिपि का प्रयोग पारिवारिक और व्यापारिक दस्तावेज़ में प्रयोग होने लगा। बिहार और उत्तर प्रदेश में कैथी जबकि गुजरात और राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में महाजनी लिपि आम लोगों में काफी प्रचलित थीं।
करीब 250 साल पहले, एक मुस्लिम सूबेदार ने मुस्लिम टोला में मंदिर और हिंदू बस्ती में इमामबाड़ा बनवा दिया। इस प्रकार, मंदिर की देखभाल मुस्लिम समुदाय और इमामबाड़ा की देखभाल हिंदू समुदाय के जिम्मे आ गई। बिहार के अररिया जिले के इस गांव में आज भी यह परंपरा धार्मिक सौहार्द्र का प्रतीक बनी हुई है।
पूर्णियावासियों की मांग है कि इस ऐतिहासिक झंडोत्तोलन को राजकीय महोत्सव का दर्जा मिले। इसे लेकर पूर्णिया सदर विधायक विजय खेमका ने बिहार विधानसभा में आवाज भी उठाई, लेकिन, सरकार ने मांग को खारिज कर दिया। हालांकि, उसके बाद भी पूर्णियावासियों का हौसला कम नहीं हुआ और वे लगातार इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं। पूर्णिया सदर विधायक विजय खेमका ने बताया कि वह आगे भी इस मांग को उठायेंगे।
जिला पदाधिकारी कुंदन कुमार ने बताया कि काझा कोठी का विकास एक आइकॉनिक प्रोजेक्ट होगा। इसमें दिल्ली हाट की तर्ज पर 'काझा हाट' का निर्माण किया जाएगा। इस हाट में 20 स्टॉल होंगे, जिनमें से 10 स्थाई और 10 पोर्टेबल स्टॉल होंगे। इन स्टॉल्स का उपयोग फूड और क्राफ्ट स्टॉल्स के रूप में किया जाएगा, जहां पूर्णिया के स्थानीय कौशल और क्राफ्ट को बढ़ावा दिया जाएगा।
अंग्रेजी साम्राज्य के दांत खट्टे करने वाले स्वतंत्रता सेनानी जमील जट आज अपने ही ज़िला अररिया में गुमनाम होकर रह गये हैं। अररिया जिले के सिमराहा मदारगंज के रहने वाले जमील जट को सीमांचल ने भुला दिया है। हालांकि, सरकार ने उनके योगदान को याद करते हुए फारबिसगंज प्रखंड परिसर में लगे शिलापट्ट में स्वतंत्रता सेनानियों की लिस्ट में सबसे पहला नाम जमील जट का ही रखा है, इसके बावजूद लोगों को उनके बारे में जानकारी नहीं है।
पदमपुर एस्टेट के संस्थापक हाजी फ़ज़्लुर्रहमान के पिता हसन अली का परिवार कनकई नदी के उस पार हांडीपोखर में रहता था। पदमपुर एस्टेट के शुरुआती दिनों में एस्टेट के लोग वहीं रहे लेकिन नदी कटाव के कारण उन्हें गांव छोड़कर पदमपुर आकर बसना पड़ा।
खान मोहम्मद फ़ज़्लुर्रहमान ने देसियाटोली एस्टेट की जमींदारी को फैलाया और स्वतंत्रता से पहले बड़े सरकारी पद पर भी रहे। अमानुल्लाह ने बताया कि उनके दादा खान फ़ज़्लुर्रहमान 1947 तक बिहार विधानसभा के सदस्य रहे। इसके अलावा उन्होंने लोकल बोर्ड की अध्यक्षता की और एसडीओ कोर्ट में मानद मजिस्ट्रेट रहे।
एस्टेट की जमीन पर कुछ बेहद पुराने वृक्ष आज भी मौजूद हैं। यह पेड़ 300 वर्ष से अधिक पुराने बताए जाते हैं। महमूद बख़्श की मानें तो एस्टेट के पास कई बगीचे थे लेकिन धीरे धीरे सब बिक गए और अब केवल तीन चार पुराने पेड़ ही बचे हैं। महमूद कहते हैं, "यहां 10 बीघा का बगीचा था, बहुत सारे पेड़ पौधे थे। हमलोग को जरूरत पड़ी तो वो सब बेच दिए।"
देश की स्वतंत्रता के बाद संविधान की संरचना के लिए एक संविधान सभा बनाई गई थी। इस संविधान सभा में बिहार से 36 सदस्यों को शामिल किया गया था, इनमें से एक मोहम्मद ताहिर थे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई करने वाले मोहमद ताहिर ने संविधान सभा में अपना अहम योगदान दिया।
मोहम्मदिया गांव में आज एस्टेट की यादगार के तौर पर करीब डेढ़ सौ साल पुरानी मस्जिद है। पास में एक मदरसा है जहां छात्र दीनी तालीम हासिल करते हैं। एस्टेट की कई पुरानी इमारतें भी हैं जिनमें से कुछ जर्जर हो चुकी हैं। एस्टेट के संस्थापक शेख़ अमीर बख़्श के दो छोटे भाई इलाही बख़्श और मोहम्मद आग़ा थे।