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उत्तर प्रदेश और बंगाल के ज़मींदारों ने कैसे बसाया कटिहार का रसूलपुर एस्टेट?

रसूलपुर एस्टेट की पुरानी जामा मस्जिद के लोहे के दरवाज़े पर स्थापना की तिथि 1650 लिखी हुई है। सैय्यद इम्तियाज़ हुसैन ने बताया कि एस्टेट के पुराने कागज़ात में यह तारीख लिखी मिली थी, साथ ही मस्जिद के मुख्य दरवाज़े पर यह तारीख लिखी थी लेकिन धीरे धीरे तारीख धुँधली होती गई।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
Published On :
jama masjid of rasulpur which was built in 1650
रसूलपुर की जामा मस्जिद जो सन् 1650 में बनवाई गई थी

बिहार के कटिहार जिले अंतर्गत सालमारी बाज़ार से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेनी रसूलपुर गांव का इतिहास कई सदी पुराना है। बेनी रसूलपुर जिसे आम तौर पर रसूलपुर ही कहा जाता है, कभी राजाओं का मोहल्ला हुआ करता था। स्थानीय लोग बताते हैं कि सत्रहवीं सदी में उत्तर प्रदेश के जॉली एस्टेट के कुछ ज़मींदार बिहार के इस हिस्से में आकर बस गए थे। वे मुज़फ्फरनगर के एक बड़े ज़मींदार घराने से थे। जॉली एस्टेट के अलावा बंगाल रियासत के मुर्शिदाबाद से भी कुछ लोगों ने इस गांव में पलायन किया था।


एल. एस.एस. ओ माली ने पूर्णिया डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर में बेनी रसूलपुर एस्टेट का ज़िक्र किया है। ओ माली ने लिखा है कि मुज़फ्फरनगर से ताल्लुक रखने वाले बेनी रसूलपुर के सैयद रज़ा अली खान बहादुर की पत्नी बीबी कमरुन्निसा पूर्णिया के आखरी नवाब फौजदार मोहम्मद अली खान के पोते आग़ा सैफ़ुल्लाह खान की भतीजी थीं। आग़ा सैफ़ुल्लाह खान पूर्णिया के जलालगढ़ किले के सेनानायक थे और उनका शुमार पूर्णिया के बड़े फौजदारों में होता था।

बीबी कमरुन्निसा को उनके चाचा आग़ा सैफुल्लाह की संपत्ति मिली थी क्योंकि आग़ा सैफुल्लाह की अपनी कोई संतान नहीं थी। इसके अलावा बीबी कमरुन्निसा को बेनी रसूलपुर एस्टेट की हफ़ीज़ुन्निसा की जायदाद का 4 आना और 8 गंडा हिस्सा मिला था। बीबी कमरुन्निसा ने अपनी जायदाद का कुछ हिस्सा अपने सौतेले बेटे सैयद असद रज़ा खान बहादुर के नाम पर कर दिया था।


जब हम ऐतिहासिक हस्तियों की तलाश में गांव पहुंचे

एल. एस.एस. ओ माली ने अपनी किताब में बेनी रसूलपुर एस्टेट के जिन लोगों का ज़िक्र किया था उनका पता लगाने हम रसूलपुर पहुंचे। सालमारी रेलवे स्टेशन से 6 किलोमीटर दूर रसूलपुर गांव में हमें पुरानी चीज़ों में एक मस्जिद, कुछ खंडहर और ज़मीन पर रखे दो तोप दिखे। गांव निवासी सैयद इम्तियाज़ अहमद ने हमें कुछ पुराने खंडहर और एक पुराना पेड़ दिखाया, जिसके बारे में कहा जाता है कि आम का यह पेड़ करीब 250 साल पुराना है।

सैयद इम्तियाज़ अहमद ने बताया कि सत्रहवीं सदी में उनके पूर्वज मुज़फ्फरनगर जिले के जॉली एस्टेट से कटिहार के बेनी रसूलपुर एस्टेट में आकर बस गए थे। उन्होंने आगे बताया कि रसूलपुर में जागीरदारों के तीन घराने थे जो अलग अलग भागों में बंटे थे। इन्हें उत्तर ड्योढ़ी, दक्षिण ड्योढ़ी और पश्चिम ड्योढ़ी के नाम से जाना जाता था। सैयद इम्तियाज़ अहमद के पूर्वज पश्चिम ड्योढ़ी से ताल्लुक रखते थे।

वंशज ने कहा, ‘मालदा से नेपाल तक फैली थी रसूलपुर एस्टेट की रियासत’

पश्चिम ड्योढ़ी के जागीरदारों के वंशजों में से एक सैयद मुश्ताक़ हुसैन हाश्मी ने ‘मैं मीडिया’ को बताया कि बेनी रसूलपुर एस्टेट में इन तीनों ड्योढ़ी की आपस में अनबन चलती रहती थी। पश्चिम ड्योढ़ी के जागीरदार सन 1837 में उत्तर प्रदेश के जॉली एस्टेट से बेनी रसूलपुर आए थे। उस समय उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर से ही ताल्लुक रखने वाले सैयद रज़ा अली खान बहादुर बेनी रसूलपुर एस्टेट के पश्चिम ड्योढ़ी के जागीरदार थे, जिनका ज़िक्र एल.एस. ओ माली ने पूर्णिया गज़ेटियर में किया है।

”उस वक्त जॉली एस्टेट में महामारी फैली हुई थी तभी मेरे दादा मीर सैयद आला अली बेनी रसूलपुर एस्टेट आए थे। तब वह 7-8 साल के थे। उनके गांव में तेज़ी से मौतें हो रही थीं इस लिए उन्हें लाव लश्कर के साथ गांव से दूर भेज दिया गया। मीर सैयद आला अली के मामू सैय्यद रज़ा अली खान बहादुर रसूलपुर एस्टेट के पश्चिम ड्योढ़ी के वारिस थे। उनकी कोई औलाद नहीं थी, तो उनकी जायदाद मेरे दादा को मिल गई थी,” मुश्ताक़ हुसैन हाश्मी कहते हैं।

उन्होंने आगे बताया कि रसूलपुर एस्टेट के उत्तर ड्योढ़ी और पश्चिम ड्योढ़ी के दोनों जागीरदार आपस में चचेरे भाई थे। एस्टेट की जागीरदारी पश्चिम बंगाल के राजमहल, मालदा से लेकर नेपाल के मोरंग तक फैली हुई थी। गांव में यह बात प्रचलित है कि बेनी के पीर साहब ने रसूलपुर एस्टेट को वरदान दिया था कि उनकी जागीरदारी बंगाल से नेपाल तक फैलेगी।

इतिहासकार डॉक्टर अकमल यज़दानी अपनी किताब ‘पूर्णिया पर फ़ौजदारों की हुकूमत’ में लिखते हैं कि पश्चिम ड्योढ़ी के जागीरदार सैयद रज़ा अली खान बहादुर को उनकी पत्नी बीबी कमरुन्निसा से कोई संतान नहीं थी हालांकि दूसरी पत्नी के बेटे सैयद असद रज़ा को कमरुन्निसा ने अपने चाचा आग़ा सैफुल्लाह से मिली हुई जागीर का एक हिस्सा दिया था।

बेनी रसूलपुर एस्टेट के दक्षिण ड्योढ़ी के जागीरदार सैयद ग़ुलाम अब्बास थे। उनके वंशज भी रसूलपुर गांव में मौजूद हैं। दक्षिण ड्योढ़ी का एक राजमहल हुआ करता था जो आज पूरी तरह से खत्म हो चुका है। महल की निशानी के तौर पर ‘हवाखाना’ कही जाने वाली इमारत के सामने महल के अवशेष के तौर पर लाल ईंटों की ज़मीन दिखती है।

बेनी रसूलपुर एस्टेट के उत्तर ड्योढ़ी के जागीरदार राजा हाशिम अली की पोती सैय्यदा बेगम ने बताया कि उनके दादा का निकाह मुर्शिदाबाद में हुआ था। उनकी दादी सिराजुद्दौला के रिश्तेदारों में से थीं इस लिए जब वह बेनी रसूलपुर आईं तो लश्कर, हाथी और कुछ तोप साथ लाई थीं। उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेजों ने जब कब्ज़ा करना शुरू किया तो उन्होंने एस्टेट के तोपों को ज़ब्त कर लिया जिनमें से 2 तोप एस्टेट वालों ने निशानी के तौर पर छुपाकर रख लिए थे।

जागीरदारी के बारे में सय्यदा बेगम ने कहा कि रसूलपुर एस्टेट की रियासत बहुत दूर तक फैली थी और हर साल इसके टैक्स से एक भारी रकम जमा होती थी।

दक्षिण ड्योढ़ी के जागीरदार राजा हाशिम अली भी जॉली एस्टेट से आए थे। ऐसा कहना है सैय्यदा बेगम की भांजी सादिका बेगम का जो रिश्ते में राजा हाशिम अली की परनातिन हैं। उन्होंने कहा कि उनके दादा सैयद इब्राहिम हुसैन मुर्शिदाबाद से ताल्लुक रखते थे जबकि उनके नाना राजा हाशिम अली जॉली से आए थे जिनकी पत्नी का नाम हफ़ीज़ुन्निसा था। यह वही हफ़ीज़ुन्निसा हैं जिनका एल.एस.एस. ओ माली ने पूर्णिया गज़ेटियर में ज़िक्र किया है।

हम जब रसूलपुर गांव पहुंचे तो हमें वे दोनों तोप दिखाई दिए। उन तोपों को कुछ दिनों पहले सड़क निर्माण के दौरान निकाला गया था। लोगों ने बताया कि ज़मीन से खुदाई के दौरान तोप के कुछ गोले भी बरामद हुए।

cannons kept hidden from the british
अंग्रेजों से छुपा कर रखे गए तोप

रसूलपुर की 300 साल पुरानी जामा मस्जिद

रसूलपुर एस्टेट की पुरानी जामा मस्जिद के लोहे के दरवाज़े पर स्थापना की तिथि 1650 लिखी हुई है। सैय्यद इम्तियाज़ अहमद ने बताया कि एस्टेट के पुराने कागज़ात में यह तारीख लिखी मिली थी, साथ ही मस्जिद के मुख्य दरवाज़े पर यह तारीख लिखी थी लेकिन धीरे धीरे तारीख धुँधली होती गई।

मस्जिद का आकार सीमांचल के बाकी पुराने मस्जिदों जैसा है। इसका आकार किशनगंज के हलीम चौक इलाके में स्थति पुरानी ड्योढ़ी की मस्जिद के आकर से बहुत मेल खा रहा था। मस्जिद से थोड़ी सी दूरी पर एक खंडहर दिखा जो कभी पश्चिम ड्योढ़ी के जागीरदारों का महल हुआ करता था। कहा जाता है कि यह खंडहर कभी पश्चिम ड्योढ़ी के सैयद याकूब हुसैन का महल हुआ करता था जो केलाबाड़ी के नाम से मशहूर है।

वहां से पूर्व की तरफ कुछ कदम पर एक ऊंची इमारत दिखी जो चकौर मीनार जैसी लग रही थी। गांव निवासी और सेवानिवृत्त शिक्षक सैयद ज़ाहिद हुसैन ने बताया कि माना जाता है कि इस इमारत पर चढ़कर दक्षिण ड्योढ़ी के लोग आसपास के इलाके का जायज़ा लेते थे। कुछ लोग इस इमारत को हवाखाना नाम से भी याद करते हैं।

'hawakhana' as a symbol of the palace
महल की निशानी के तौर पर ‘हवाखाना’

सैयद ज़ाहिद हुसैन ने आगे बताया कि पश्चिम ड्योढ़ी के जागीरदारों के कई लोग दूर उत्तर की तरफ जाकर बस गए थे और वहां कई बस्तियां बसाई थीं जिसमें अधिकतर इलाके आज के पाकिस्तान में पड़ता है।

उत्तर ड्योढ़ी के राजा हाशिम अली के खानदान के कुछ लोग अभी भी रसूलपुर गांव में मौजूद हैं जबकि उनके वंशज का एक परिवार किशनगंज ज़िले में रहता है। इनमें से अधिकतर लोग मज़दूर वर्ग के हैं। साल 1947 में बिहार जमींदारी उन्मूलन अधनियम लागू हुआ जिसे 1950 में बिहार भूमि सुधार अधिनियम में तब्दील किया गया। इन अधिनियमों से राज्य में ज़मींदारी का अंत हो गया।

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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