बिहार का किशनगंज जिला राज्य के सबसे पिछड़े जिलों में से एक जरूर है लेकिन ये जिला अपने अंदर सदियों पुराना इतिहास संजोये बैठा है। किशनगंज मुख्यालय से करीब 65 किलोमीटर की दूरी पर एक ऐसा गांव है जिसका इतिहास मलबे तले दबने लगा है। करीब तीन सौ वर्ष पहले टेढ़ागाछ प्रखंड का धबेली गांव धबेली एस्टेट हुआ करता। कहा जाता है कि धबेली एस्टेट की जागीरदारी टेढ़ागाछ से नेपाल तक फैली हुई थी।
धबेली एस्टेट का इतिहास जानने हम धबेली गांव पहुंचे। धबेली पंचायत मुख्यालय से कुछ मीटर की दूरी पर एक मस्जिद दिखी और मस्जिद के आस पास टूटी इमारतों के अवशेष दिखे। स्थानीय लोगों ने बताया कि यह मस्जिद कुछ सालों पहले बनाई गई है। इससे पहले यहां एक पुरानी मस्जिद हुआ करती थी जो काफी जर्जर हो चुकी थी।
ग्रामीणों ने पुरानी मस्जिद को तुड़वाकर ज़मीन में दफ़्न कर दिया और उसी जगह पर एक नई मस्जिद तैयार की जिसे आज धबेली जामा मस्जिद कहते हैं। मस्जिद के पास एक कुआं दिखा जिसके बारे में लोगों ने बताया कि जब एस्टेट के संथापक पहली बार धबेली आए तो उन्होंने कुआं खुदवाया था, उनके लिए यही पानी का स्रोत था।
ढह गई धबेली एस्टेट की 300 वर्ष पुरानी मस्जिद
पुरानी मस्जिद 300 से 400 साल पुरानी बताई जाती है। तीन गुंबद वाली उस मस्जिद की बनावट मुग़लों के शासनकाल में बनी मस्जिदों जैसी थीं। मस्जिद के सामने तालाब हैं जिसे एस्टेट के संस्थापक ने खुदवाये थे।
धबेली एस्टेट की पुरानी मस्जिद के बारे में एस्टेट के जमींदारों के वंशज राज़िक परवाज़ ने ‘मैं मीडिया’ से बताया, “वैसी मस्जिद तो अब कहीं नहीं है, उस तरह की मस्जिद आज कोई बना ही नहीं सकता है। 30 इंच की उसकी दीवार थी। मस्जिद बहुत दब गई थी इसलिए नई मस्जिद बनवाकर पुरानी मस्जिद को उसी के अंदर दबा दिया गया।”
मस्जिद के पास एक टूटी इमारत है जहां कभी एक इमामबाड़ा हुआ करता था। धबेली एस्टेट के जागीरदार एक आलीशान महल में रहते थे जो दशकों पहले जमींदोज़ हो चुका है। महल के अवशेष अब जंगलों में ढक गए हैं।
लखनऊ से आये थे एस्टेट के संस्थापक
धबेली एस्टेट के प्रांगण में आज 6 परिवार रहते हैं। ये सभी एस्टेट के संस्थापक के वंशज हैं, उनमें से एक महमूद बख़्श ने एस्टेट के इतिहास के बारे में ‘मैं मीडिया’ से बातचीत की। उन्होंने बताया कि धबेली एस्टेट के संस्थापक कौन थे, कहां से आये थे इसके बारे में उन्होंने कहीं कुछ पढ़ा नहीं है हालांकि उन्होंने अपने बुज़ुर्गों से काफी कुछ सुना है।
महमूद बख़्श ने बताया कि मुग़ल के ज़माने में लखनऊ से कुछ लोग टेढ़ागाछ के पास आये थे। कुछ समय बाद वे लोग धबेली आकर बस गए। “यहां के लोग लगभग 300-400 साल पहले लखनऊ से आये थे। जो सबसे पहले आये थे उनको मंगलू मियां बोलते थे। मंगलू मंडल उनका नाम था, वह कलेक्टर बन कर इस तरफ आये थे,” उन्होंने कहा।
भूकंप से संकट में आया धबेली एस्टेट का अस्तित्व
महमूद बख़्श ने आगे बताया कि वह एस्टेट संथापक के नौवीं या संभवतः दसवीं पुश्त हैं। उनके परदादा जब्बार बख़्श के जीवनकाल में धबेली एस्टेट काफी दूर तक फैला। लेकिन 1934 के विनाशकारी भूकंप ने धबेली एस्टेट को काफी क्षति पहुंचाई। इस भूकंप में एस्टेट का महल और मस्जिद के पास स्थित इमामबाड़े की इमारत ढह गई।
महमूद बख़्श ने कहा, “हमलोगों की हालत सही नहीं थी। यह जो घर है यह भी नहीं था। 1934 में भूकंप आया था, बिहार के उत्तरी क्षेत्र में उसका बहुत असर पड़ा। उसमें मकान वगैरह ढह गया था अब सब खंडहर हो गया है।”
महमूद ने आगे बताया कि आशिक़ मियां नाम से एस्टेट के एक जागीरदार हुआ करते थे। उनके दौर में धबेली एस्टेट का काफी विस्तार हुआ। कुछ सालों बाद एस्टेट के जमींदार कर्ज़ में डूब गए जिससे एस्टेट की कई जमीनें खत्म हो गईं। एक समय में सिकटी, देहगांव, परहरिया, मियांपुर और बहादुरगंज में धबेली एस्टेट की जमींदारी थी।
“एस्टेट को आशिक़ मियां उरूज पर ले गए, जैसा हम सुने हैं। यह एस्टेट हमारे दादा तक सही रहा लेकिन बाद में एस्टेट पर कुछ क़र्ज़ हो गया था। एस्टेट वाले मारवाड़ी व्यापारी से पैसा लिए थे वो मैनेजर जिससे पैसा लिए थे वह अपने नाम पर कागज़ बना लिया उसके बाद वह कागज़ को थेरानी एस्टेट में बेच दिया,” महमूद बख़्श ने कहा।
“नीलामी में काफी जमीन चली गई, एस्टेट निस्तोनाबूद हो गया। हम तो फूंस के घर में सोये। बच्चे लोग बड़े हुए बाहर जाकर मेहनत मज़दूरी किए तो यह थोड़ा बहुत घर बनाये,” महमूद बख़्श बोले।
धबेली एस्टेट के इमामबाड़े की कहानी
एक इमारत जिसका कुछ हिस्सा अभी भी मौजूद है वह एक पुराना इमामबाड़ा है। मुहर्रम के दिनों में वहां करबला की जंग में शहीद हुए पैग़म्बर रसूल के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद मनाई जाती थी। आज भी यह प्रथा कायम है लेकिन अब पहले से अंदाज़ थोड़ा अलग है।
Also Read Story
महमूद बख़्श ने बताया कि इस इमामबाड़े में पहले लोग मातम करते थे। बता दें कि इस्लामी कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम में शिया समुदाय के लोग करबला के शहीदों की याद मनाते हैं और मातम करते हैं।
वह कहते हैं, “यह इमामबाड़ा जो बना हुआ है यहां पर लोग मुहर्रम बहुत मनाते थे। यहां के लोग शिया थे या क्या थे यह कहना मुश्किल है। यहां का लोग मातम करता था, औरत भी आती थी और मर्द सब भी करता था मातम, हम बचपन में देखे हैं। उस समय शिया था या क्या था नहीं कह सकेंगे। अभी हमलोग सुरजापुरी में हैं।”
धबेली एस्टेट की जमीन पर आज भी हर साल मुहर्रम के दौरान बड़ा मेला लगता है। आसपास के दर्जनों गांवों से लोग ताज़िया लेकर यहां पहुंचते हैं। लोग इस जगह को धबेली करबला नाम से जानते हैं।
क्यों बंद हो गया धबेली एस्टेट का फुलबड़िया मेला
एक ज़माने में धबेली एस्टेट का एक मशहूर मेला हुआ करता था। यह मेला पास में मौजूद फुलबड़िया में लगाया जाता था। धबेली के जागीरदार इलाही बख़्श के वंशज महमूद बख़्श ने बताया कि नदी के कटाव से मेला खत्म हो गया और फिर फुलबड़िया हाट लगने लगा। एक बार एक पुलिस कर्मी और लोगों के बीच झड़प हो गई जिसमें पुलिस वाले की जान चली गई। इसका इल्ज़ाम एस्टेट पर गया और जमीन एस्टेट के हाथ से चली गई।
एस्टेट की जागीरदारी सैकड़ों एकड़ में फैली थी। धबेली एस्टेट के शाही महल को नवरत्न गढ़ी बोलते थे। महल में बड़ा सा ‘मुहाफ़िज़ खाना’ हुआ करता था जिसमें एस्टेट के अहम कागज़ात से लेकर एस्टेट के कर्मचारियों का जरूरी सामान रखा जाता था। कोई भी सामन या कागज़ निकालने के लिए एस्टेट के मुख्य भंडारी की अनुमति लेनी होती थी।
कहा जाता है कि धबेली एस्टेट का अलता एस्टेट, देसिया टोली एस्टेट, पदमपुर एस्टेट, बैगना एस्टेट आदि से अच्छे ताल्लुकात थे। इलाही बख़्श ने अपनी बेटी का विवाह देसिया टोली एस्टेट के जमींदार से कराया था। अलता एस्टेट से भी धबेली एस्टेट की रिश्तेदारी थी।
एस्टेट की जमीन पर कुछ बेहद पुराने वृक्ष आज भी मौजूद हैं। यह पेड़ 300 वर्ष से अधिक पुराने बताए जाते हैं। महमूद बख़्श की मानें तो एस्टेट के पास कई बगीचे थे लेकिन धीरे धीरे सब बिक गए और अब केवल तीन चार पुराने पेड़ ही बचे हैं। महमूद कहते हैं, “यहां 10 बीघा का बगीचा था, बहुत सारे पेड़ पौधे थे। हमलोग को जरूरत पड़ी तो वो सब बेच दिए।”
धबेली वासियों ने बताया कि कुछ समय पहले दिल्ली से आये कुछ लोग एस्टेट की जमीनों की खुदाई करना चाहते थे। धबेली एस्टेट के जमींदारों के वंशज ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी।
एस्टेट की जमीन पर बना स्कूल और पंचायत भवन
धबेली गांव में शीशा गाछी मध्य विद्यालय है। एस्टेट के जागीरदार इलाही बख़्श के वंशज निसार बख़्श जब्बारी ने बताया कि इस स्कूल के लिए धबेली एस्टेट ने जमीन दी थी जो अभी भी एस्टेट के ही नाम पर है।
उन्होंने बताया, “जहां स्कूल है वह जमीन एस्टेट वालों ने ही दी थी। अभी भी जमीन लिखित में एस्टेट के नाम पर है। यह खतियानी जमीन है जो करीब एक एकड़ है। हमलोग ऐसे ही दे दिए हैं। स्कूल के साइड में धबेली पंचायत भवन भी है वह भी जमीन एस्टेट ने दी थी। एस्टेट ने जमीन दी ताकि गांव में स्कूल बन जाये नहीं तो स्कूल कहीं और चला जाता।”
बंगाल गज़ेटियर में धबेली का जिक्र
धबेली एस्टेट के बारे में इतिहास के पन्नों में बहुत कुछ नहीं लिखा जा सका। एस्टेट के पुराने कागज़ात और महल की निशानी 1934 में आए भूकंप के भेंट चढ़ गई। 1907 में छपी बंगाल डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर में एल.एस.एस ओ’मैली ने नेपाल-भारत व्यापार मार्गों की सूची में धबेली का जिक्र किया है। 11 बड़े व्यापार मार्गों में धबेली से नेपाल के चैलगाज़ी वाला मार्ग भी शामिल था जो पूर्णिया जिले के धबेली से कोचाहा होते हुए नेपाल के चैलगाज़ी तक जाता था। धबेली एस्टेट के महमूद बख़्श ने बताया कि उस समय धबेली एस्टेट का नेपाल के साथ व्यापारिक संबंध था। एस्टेट की जागीरदारी नेपाल के अंदर तक फैली थी।
आज धबेली एस्टेट का इतिहास मलबों में दफ़्न हो चुका है। इमारतों के अवशेषों में एक कुआं और कुछ पुराने पेड़ों के अलावा एस्टेट की निशानी के तौर पर कुछ भी नहीं बचा है। आज धबेली में जो जागीरदारों के वंशज मौजूद हैं वह कभी एस्टेट की शानो शौकत नहीं देख सके। एस्टेट की निशानी के तौर पर जो एक सदियों पुरानी मस्जिद थी वह भी अब नहीं रही।
धबेली एस्टेट में जमींदारी का अस्तित्व वर्षों पहले खत्म हो चुका था लेकिन बची हुई निशानियां भी धीरे धीरे भूमि में समाकर खत्म हो रही है। इस पर धबेली एस्टेट के जागीरदार के वंशजो में सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति महमूद बख़्श कहते हैं, “मेरी उम्र 80-90 बरस हो गई है। हमलोग बस एस्टेट के बारे में सुने हैं कभी देखे नहीं। 1934 में बहुत तबाही हुई और सब बर्बाद हो गया। अब एस्टेट में कुछ नहीं बचा है। दुःख तो है लेकिन मेरे दिल में तो यह वही एस्टेट लगता है। एस्टेट उस वक्त कहा जाता है जब बहुत मालदारी हो लेकिन हम फिर भी अपने हर कागज़ में धबेली को धबेली एस्टेट ही लिखते हैं।”
सीमांचल की ज़मीनी ख़बरें सामने लाने में सहभागी बनें। ‘मैं मीडिया’ की सदस्यता लेने के लिए Support Us बटन पर क्लिक करें।