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बनैली राज: पूर्णिया के आलिशान राजमहल का इतिहास जहाँ आज भी रहता है शाही परिवार

चंपानगर ड्योढ़ी में बनैली एस्टेट के रजवाड़ों के महल का इतिहास डेढ़ सौ साल पुराना है। उस समय चंपानगर बनैली एस्टेट की राजधानी हुआ करता था। यहां के राजमहल की शान-ओ- शौकत आज भी बरकरार है और बनैली एस्टेट के संस्थापक राजा दुलार सिंह की पांचवीं पुश्त के वंशज आज भी राजमहल में रहते हैं। राजमहल में दाखिल होने वाला मुख्य द्वार ‘सिंह दरवाज़ा’ कहलाता है।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
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बनैली राज का चंपानगर राजमहल जिसे राजा बहादुर लीलानंद सिंह ने बनवाया था

पूर्णिया के कृत्यानंद नगर या के. नगर ब्लॉक में स्थित चंपानगर बाज़ार प्रखंड के सबसे बड़े बाज़ारों में से एक है। बाज़ार में प्रवेश करने से पहले एक राजमहल पड़ता है जिसकी चारदीवारी फिल्मों में दिखने वाले किलों जैसी नज़र आती है। के. नगर की उत्तर की तरफ गई सड़क पर मौजूद बनैली राज का चंपानगर ड्योढ़ी अपनी लुभावनी इमारतों में सदियों पुराने इतिहास को संजोए बैठा है।

चंपानगर ड्योढ़ी में बनैली एस्टेट के रजवाड़ों के महल का इतिहास डेढ़ सौ साल पुराना है। उस समय चंपानगर बनैली एस्टेट की राजधानी हुआ करता था। यहां के राजमहल की शान-ओ- शौकत आज भी बरकरार है और बनैली एस्टेट के संस्थापक राजा दुलार सिंह की पांचवीं पुश्त के वंशज आज भी राजमहल में रहते हैं। राजमहल में दाखिल होने वाला मुख्य द्वार ‘सिंह दरवाज़ा’ कहलाता है।

दरवाज़े के ऊपर नौबत खाना बना हुआ है जहां देवी, देवता की श्रद्धा और महल के राजा के सम्मान में शहनाई बजाई जाती थी। चंपानगर राजमहल में रह रहे राजा बहादुर कृत्यानंद सिंह के पोते विनोदानंद सिंह ने हमें बताया कि यह प्रथा आज भी चली आ रही है। हर वर्ष राजमहल के नौबत खाने पर दशहरा के दस दिन शहनाई बजाई जाती है। इसके लिए बिस्मिल्लाह ख़ाँ के भाई के पोतों को बुलाया जाता है। यह परिवार करीब 200 सालों से दशहरा के दौरान चंपानगर में शहनाई बजाने बुलाए जा रहे हैं।


राजमहल में हमें क्या दिखा

सिंह दरवाज़े से अंदर दाखिल होने पर हमें एक तोप दिखा और फूलों के बगीचे और कई छोटे, बड़े पेड़ दिखे। राजमहल के बागान काफी बड़े और इनमें जगह जगह फव्वारे लगे हैं जो दशकों पुराने हैं। यहीं नहीं, कई प्रजातियों के पक्षी भी राजमहल के परिसर में मौजूद हैं।

बागानों के खत्म होते ही इमारतों का सिलसिला शुरू होता है। चंपानगर ड्योढ़ी में कई इमारतें हैं जिनमें ‘नवरत्न’ सबसे मशहूर है। इसके अलावा गणेश भवन, दो महला, लक्ष्मी भवन और पूरण भवन जैसी इमारतें कई दशकों से राजमहल के आभूषण बने हुए हैं।

नवरत्न महल के अंदर एक राजदरबार है जहां एस्टेट के राजा रियासत के रसूखदारों के साथ बैठा करते थे। तब बाकायदा दरबार सजता था और राजा प्रजा की बातें सुना करते थे। विनोदानंद सिंह ने हमें राजदरबार में रखे बनैली राज के राजाओं की पेंटिंग दिखाई और चंपानगर की कई ऐतिहासिक चीज़ों से रूबरू कराया। उन्होंने बताया कि राजदरबार के रखरखाव में हर साल लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं।

vinodanand singh, grandson of king kritianand, showing the royal court of the 'navratna' building of champanagar deodhi
चंपानगर ड्योढ़ी के ‘नवरत्न’ इमारत का राजदरबार दिखाते राजा कृत्यानंद के पोते विनोदानंद सिंह

राजमहल में कई तरह के फूल, सब्ज़ी और फलों के पेड़ भी उगाए जाते हैं। इसके लिए वहां छः माली और कई मज़दूर रोज़ाना काम करते हैं। विनोदानंद सिंह के पिता कुमार विमलानंद सिंह के 11 बेटे थे। वे अब राजमहल की अलग अलग इमारतों में रहते हैं।

कैसे हुई बनैली एस्टेट की शुरुआत

बनैली एस्टेट या बनेली राज की शुरुआत राजा दुलार सिंह ने की थी। गरिजानंद सिंह ने अपनी पुस्तक “बनैली रूट्स टू राज” में लिखा कि परमानंद चौधरी बिहार के बैगनी से मुंगेर और पूर्णिया की तरफ आए तो उनकी पत्नी ने दो बेटों को जन्म दिया। बड़े पुत्र का नाम एकलाल चौधरी रखा गया जबकि छोटे पुत्र को दुलाल सिंह बुलाया जाने लगा, हालांकि दुलाल सिंह का असली नाम तेजानंद सिंह था।

1750 में पैदा हुए दुलाल चौधरी के बड़े भाई एकलाल चौधरी का 1785 में देहांत हो गया। इसके बाद वह अपने पिता परमानंद चौधरी के एकलौते वारिस बचे। उनके पिता अपने इलाके से जमा होने वाली आय नवाबों को भेजते थे। चौधरी का शीर्षक उन्हें ही मिलता था जो आय जमा करने का काम करते थे। दुलाल चौधरी अपने पिता और चचेरे भाई हीरालाल के साथ पूर्णिया के अमौर में आकर बस गए।

भैरव मलिक तब पूर्णिया के मुख्य आय संग्रहकर्त्ता थे। भैरव मलिक के घर डकैतों ने लूटपाट को अंजाम दिया जिसके बाद उनकी मौत हो गई। वह दुलाल चौधरी के बड़े गहरे मित्र थे। उनकी मृत्यु के बाद दुलाल चौधरी पूर्णिया और दिनाजपुर के सबसे बड़े आय संग्रहकर्त्ता बने। उन्हें सरकार की तरफ से सालाना 1,037 रुपये मिलते थे।

दुलाल चौधरी अब राजा दुलार सिंह बन चुके थे। उन्होंने अपने नाम के आगे सिंह लगाया। उस समय सिंह राजाओं का टाइटल हुआ करता था। अंग्रेज़ इतिहासकार फ्रांसिस बुकानन ने उन्हें अपनी पुस्तक में दुलाल चौधरी और दुलार सिंह दोनों नामों से संबोधित किया है।

दुलार सिंह ने आय संग्रहकर्ता के तौर पर जो पैसे कमाए उसे उन्होंने व्यवसाय में लगाया। व्यवसाय में खूब पैसे कमाए और उन्होंने काफी ज़मीनें खरीद लीं। इस दौरान उनके चचेरे भाई हीरालाल से उनकी अनबन हुई। बंटवारे में हीरालाल को अस्जा परगना मिला, वहीं तिरखार्दा परगना राजा दुलार सिंह के हिस्से में आया।

1772 के दशक में राजा दुलार सिंह बनैली आए और वहां अपना महल बनाकर रहने लगे। बनैली सौरा नदी से घिरा था इस लिए वह दुलार सिंह के महल के लिए प्राकृतिक किले जैसा था।

इस पर राजा दुलार सिंह के वंशज विनोदानंद सिंह कहते हैं, “हमलोग (हमारे पूर्वज) कुंवारी से बनैली आए थे और अमौर में पूर्वजों का गढ़ था। राजा दुलार सिंह बनैली में जहां आए थे वहां अभी एक मंदिर और कुछ पुराने खंडहर हैं। बनैली में सौरा नदी बहती है जो बनैली को प्राकृतिक किला बना देती है। उस किले को आज बनैली मौजा ‘एक बटे दो’ कहते हैं और किले के बाहर वाले मौजा को ‘एक बटे एक’ कहते हैं।”

आगे उन्होंने कहा, “मलेरिया की बीमारी से परेशान होकर हमारे पूर्वज ने बनैली छोड़ दिया। बनैली को छोड़कर मुंगेर जिले के सुल्तानगंज चले गए। वहां पर असरगंज में एक किला बनाया। 3,600 मौजा था बनैली राज में। रकबा में बंगाल रियासत के सबसे बड़े थे हम। वसूली में हम दूसरे नंबर पर थे, दरभंगा हम से ज्यादा था। हमलोग बनैली राज के आठ आना हैं, हमलोग 50% हैं बनैली राज के और 50% में तीन किले और हैं। एक सुल्तानगंज है, एक गढ़बनैली है और एक बगल में है रामनगर।”

ब्रिटिश-नेपाल युद्ध में दुलार सिंह ने अंग्रेज़ों को भेजी सैन्य सहायता

1809 -1810 में छपे “ऐन अकॉउंट ऑफ़ डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ पूर्णिया” में फ्रांसिस बुकानन ने राजा दुलार सिंह का ज़िक्र किया है और उन्हें “पूरनिया हवेली” का बड़ा जागीरदार बताया। बुकानन ने अपनी पुस्तक में एक और राजा दुलार सिंह के पिता परमानंद और दादा मानिकचंद्र का भी ज़िक्र किया है।

गरिजानंद सिंह ने अपनी पुस्तक “बनैली रूट्स टू राज” में 1816 में हुई सुगौली संधि (ट्रीटी ऑफ़ सुगौली) का ज़िक्र किया। उन्होंने लिखा कि जब 1814 में ब्रिटिश-नेपाल युद्ध शुरू हुआ तो राजा दुलार सिंह ने अंग्रेज़ों की मदद की और कई सैनिक और हाथी लड़ाई में भेजे। सुगौली संधि पर जब हस्ताक्षर हुए, तो पूर्व में सिक्किम, पश्चिम में कुमाऊं और गढ़वाल राजशाही जबकि दक्षिण में तराई भूमि का अधिकतर क्षेत्र नेपाल को गंवाना पड़ा।

अब ईस्ट इंडिया कंपनी को काफी भूमि मिल चुकी थी। अंग्रेजी हुकूमत ने नेपाल से हुई लड़ाई में राजा दुलार सिंह से मिली सहायता से खुश होकर उन्हें ‘राजा बहादुर’ की उपाधि दी। इसके अलावा तिरखार्दा से जुड़ने वाले 14 माइल की भूमि भी पुरस्कार के तौर पर सौंपी।

इस घटना के बारे में राजा दुलार सिंह के वंशज विनोदानंद ने “मैं मीडिया” से बताया, “उस समय लार्ड हेस्टिंग्स गवर्नर जनरल हुआ करते थे। लार्ड हेस्टिंग्स और बनैली राज के रजवाड़े ने मिलकर नेपाल पर चढ़ाई कर दी। बनैली राज सेना और रसद (खाना) सप्लाई करती थी लार्ड हेस्टिंग्स को। हमलोग तोप भी दिए, हाथी भी दिए और घोड़े भी। फिलहाल जो नेपाल का बॉर्डर है, उससे 15 किलोमीटर हमने छीना।”

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वह आगे कहते हैं, “ट्रेटी ऑफ़ सुगौली के बाद यह इलाका बनैली राज को दे दिया गया। इसमें ठाकुरगंज और जोगबनी भी आता था। उस ज़माने में हम लोग कुंवारी में रहते थे। हमलोग कुंवारी से बनैली आए थे तब अमौर में (हमारे) पूर्वजों का गढ़ था।”

कैसे बसा चंपानगर का राजमहल

1773 में लार्ड कॉर्नवालिस के ‘परमानेंट सेटलमेंट’ से ज़मींदारी प्रथा की शुरुआत हुई और फिर ज़मीनों की नीलामी हुई। विनोदानंद सिंह ने बताया कि उस समय उनके पूर्वजों ने तीराखारड़ा और अस्जा परगना को नीलामी में खरीदा। इसके साथ उन्होंने मुंगेर और संथाल भी खरीद लिए। 1772 से उनकी रियासत राज बनैली कहलाने लगी।

राजा बहादुर दुलार सिंह का देहांत 1821 में हुआ, तब उनके पुत्र राजा बहादुर बेदानंद सिंह ने बनैली एस्टेट की बागडोर संभाली। वह बनैली में रहे जबकि उनके भाई रुद्रानंद 6 किलोमीटर दूर श्रीनगर में आकर बस गए। बेदानंद सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राजा बहादुर लीलानंद सिंह ने बनैली को छोड़ रामनगर आकर बस गए।

paintings of raja bahadur dular singh and raja bahadur kritianand singh present in the royal court of champanagar
चंपानगर के राजदरबार में मौजूद राजा बहादुर दुलार सिंह और राजा बहादुर कृत्यानंद सिंह की पेंटिंग

कहा जाता है कि उस समय बनैली में महामारी फैली हुई थी जिसमें लीलानंद के दो चचेरे भाई की मृत्यु हो गई थी।

राजा बहादुर लीलानंद सिंह 1869 में रामनगर से चंपानगर आ गए और वहां राजमहल बनाया जहां आज नवरत्न, गणेश भवन, दो महला, लक्ष्मी भवन और पूरण भवन जैसी इमारतें हैं। ये इमारतें अलग अलग समयावधि में बनाई गईं।

1911 में छपे पूर्णिया डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर में एलएस ओ’माली ने बेदानंद सिंह और रुद्रानंद सिंह के बारे में लिखा कि उन दो भाइयों की रियासत बनैली और श्रीनगर में बंट गई और इनकी जागीरें भागलपुर, मुंगेर, मालदा और संथाल में मौजूद थीं। हालांकि परिवार के कई लोग श्रीनगर, रामनगर और चंपानगर में रहे।

एलएस ओ’माली ने आगे लिखा कि राजा लीलानंद सिंह और खुसकाहपुर की रानी सीताबाई के दो बेटे कलानंद सिंह और कृत्यानंद सिंह ने बनैली एस्टेट की जागीरदारी संभाली।

बिहार के शिक्षा संस्थानों में रहा बनैली राज का योगदान

राजा बहादुर लीलानंद सिंह के पुत्र राजा बहादुर कृत्यानंद सिंह ने चंपानगर में रहकर रियासत को आगे बढ़ाया और शिक्षा में अहम् योगदान दिया। 1883 में उन्होंने भागलपुर के सबसे पुराने डिग्री कॉलेज टीएनबी कॉलेज की स्थापना में अहम रोल निभाया। टीएनबी कॉलेज की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार, कॉलेज के निर्माण के लिए बनैली एस्टेट की तरफ से 60 एकड़ ज़मीन और 6 लाख रुपये मिले थे।

टीएनबी कॉलेज का पूरा नाम तेज नारायण बनैली कॉलेज है। इस कॉलेज के दो संस्थापकों में राजा बहादुर तेज नारायण सिंह और चंपानगर के राजा बहादुर कृत्यानंद सिंह हैं। राजा कृत्यानंद के नाम पर पूर्णिया के कृत्यानंद नगर प्रखंड (के नगर) का नाम रखा गया है।

राजा कृत्यानंद के पोते विनोदानंद ने पटना मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई की है। उन्होंने हमें बताया कि चंपानगर के राजघराने में शिक्षा को हमेशा काफी अधिक महत्व दिया गया।

वह कहते हैं, “हमारी आमदनी आज, जो रजवाड़े में थी उससे 4 गुना पांच गुना ज्यादा है। यहां शिक्षा है, यहां सब पढ़े लिखे मिलेंगे आपको। आधे तो डॉक्टरेट हैं बाकी मैनेजमेंट के टॉपर मिलेंगे। पटना मेडिकल कॉलेज के बनाने में हमारे पूर्वज शामिल हैं। भागलपुर यूनिवर्सिटी और टीएनबी कॉलेज में भी बनैली राज फॉउन्डिंग मेंबर रहे हैं।”

गुजरात से आए थे बनैली एस्टेट के पूर्वज

विनोदानंद ने हमें आगे बताया कि उनके पूर्वज कई सदी पहले गुजरात के अलै (या अलय) से आए थे। उन्होंने कहा “मोहम्मद बिन क़ासिम और मेहमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय गुजराती ब्राह्मण भाग कर उत्तरी बिहार में बस गए थे। ये लोग मैथली ब्राह्मण कहलाए। इसमें हमलोग भी थे। हमलोग बिहार के बैगनी, नवादा में आकर बस गए।”

उनके अनुसार, उनके पूर्वज जब बैगनी-नवादा में तुगलक राज के मनसबदार बने, तो वे दिल्ली के सुलतान के लिए हज़ार घोड़े की फ़ौज तैयार रखते थे। इसके लिए दिल्ली के सुलतान ने उन्हें इलाके की कुछ ज़मीनें दी हुई थीं, ताकि इसकी आमदनी से वह फ़ौज का खर्च निकालें और जब सल्तनत को ज़रूरत पड़े, फ़ौज भेज दें। उन्हें दिल्ली सल्तनत की तरफ से सालाना वेतन भी मिलता था।

“गयासुद्दीन तुगलक के समय दिल्ली सल्तनत कमज़ोर हो गई। इस इलाके में दरभंगा बेल्ट वालों ने उसको नज़राना देना बंद कर दिया। फिर तुगलक ने इस इलाके में चढ़ाई कर दी। बाकी लोग उससे लड़ गए। बनैली राज के लोग भाग कर तुगलक सल्तनत के इलाके से बाहर कुंवारी में आकर बस गए और साथ में सोना चांदी घोड़ा हाथी लेकर आए। हमलोग जलालगढ़ किले से बाहर बसे हुए थे ताकि दिल्ली के सल्तनत वाले इलाके से दूर रहें,” विनोदानंद बोले।

बनैली राज के एक और अंग श्रीनगर एस्टेट का इतिहास

बनैली राज के एक और अंग श्रीनगर एस्टेट में अब चंपानगर जैसी रौनक तो नहीं है पर यहां का महल इलाके में काफी चर्चित है। एस्टेट के संथापक राजा रुद्रानंद सिंह, राजा दुलार सिंह के बेटे राजा बेदानंद सिंह के छोटे भाई थे। रुद्रानंद सिंह बनैली से 6 किलोमीटर दूर श्रीनगर आए थे।

कहा जाता है महामारी में बचने वाले अपने परिवार में वह एकलौते बच्चे थे। श्रीनगर एस्टेट के संस्थापक रुद्रानंद के बेटे कलिकानंद सिंह के वंशज चिन्मयानंद सिंह ने ‘मैं मीडिया’ को बताया कि सन् 1900 के आस पास श्रीनगर का महल बना। जब यह महल बना तब राजा रुद्रानंद सिंह की मृत्यु हो गई थी। उनकी 2 पत्नियों से 3 बच्चे हुए। एक पत्नी से नृत्यानन्द सिंह हुए और दूसरी पत्नी से 2 बेटे कमलानंद सिंह और कलिकानंद सिंह हुए।

the palace of srinagar estate which was built by the sons of raja rudranand singh
श्रीनगर एस्टेट का महल जिसे राजा रुद्रानंद सिंह के बेटों ने बनवाया था

कमलानंद सिंह कवि और लेखक थे। उनकी कई कवितायेँ ‘कविता कोश’ वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। उन्होंने बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के बंगाली उपन्यास ‘आनन्द मठ’ का हिंदी अनुवाद लिखा था।

श्रीनगर एस्टेट में शिक्षा पर हमेशा रहा ज़ोर

चिन्मयानंद सिंह ने आगे बताया कि श्रीनगर स्टेट में ज़मींदारी 1940 आते आते लगभग खत्म हो गई थी। हालांकि स्टेट में शिक्षा पर काफी ज़ोर दिया गया था। 1952 में पूर्णिया जिले का दूसरा हाई स्कूल श्रीनगर में ही खुला था। आज भी यह स्कूल मौजूद है। इसका नाम सर्वोदय उच्च विद्यालय है। इस 10+2 हाई स्कूल में कृषि विज्ञान की पढ़ाई होती है। पूर्णिया का जिला शिक्षा व प्रशिक्षण संस्थान (DIET) भी श्रीनगर में ही है। इसे शिक्षा विभाग ने अपनी ज़मीन पर बनाया है।

“उस समय की व्यवस्था में यह था कि गांव से काम करवाना और गांव वालों को अच्छा वेतन देना, ताकि कोई चोरी वगैरह न करे। अक्सर ऐसा होता है कि ऊंचे वर्ग के लोग गांव के लोगों को पढ़ने नहीं देना चाहते लेकिन श्रीनगर में शिक्षा को लेकर काफी काम हुआ। एस्टेट की तरफ से कई एकड़ ज़मीन शिक्षा संस्थानों और अस्पतालों के लिए दान में दी गई,” चिन्मयानंद सिंह ने कहा।

प्राचीन मंदिर है एस्टेट की पहचान

श्रीनागर में पुराने महल के अलावा एक प्राचीन शिव मंदिर है जो सैकड़ों साल पुराना है। एस्टेट में एक विशाल दुर्गा मंदिर भी हुआ करता था जो 1934 में आई प्राकृतिक आपदा में गिर गया। गांव में एक ऐतिहासिक काली मंदिर है। इस मंदिर में 160 वर्षों से भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन हो रहा है जिसमें, बकौल चिन्मयानंद सिंह, लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुँचते हैं।

श्रीनगर से थोड़ी दूर पर स्थित बनैली गांव कभी बनैली एस्टेट हुआ करता था। आज यहां केवल एक तालाब और कुछ मंदिर बचे हुए हैं। कहा जाता है कि सौरा नदी के पास बसा बनैली एस्टेट बार बार सैलाब का शिकार हो रहा था, जिससे गांव में महामारी फैलने लगी। जिस कारण एस्टेट के राजाओं को अपने परिवार सहित बनैली छोड़कर पास के श्रीनगर, रामनगर और चंपानगर इलाके में बसना पड़ा।

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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