Main Media

Get Latest Hindi News (हिंदी न्यूज़), Hindi Samachar

Support Us

पूर्णिया के मोहम्मदिया एस्टेट का इतिहास, जिसने शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभाई

मोहम्मदिया गांव में आज एस्टेट की यादगार के तौर पर करीब डेढ़ सौ साल पुरानी मस्जिद है। पास में एक मदरसा है जहां छात्र दीनी तालीम हासिल करते हैं। एस्टेट की कई पुरानी इमारतें भी हैं जिनमें से कुछ जर्जर हो चुकी हैं। एस्टेट के संस्थापक शेख़ अमीर बख़्श के दो छोटे भाई इलाही बख़्श और मोहम्मद आग़ा थे।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
Published On :
history of mohammadia estate of purnia
करीब डेढ़ सौ साल पुरानी मस्जिद जिसे मोहम्मदिया एस्टेट के संस्थापक अमीर बख़्श ने बनवाई थी

बिहार के पूर्णिया शहर मुख्यालय से करीब 16 किलोमीटर दूर मोहम्मदिया गांव कुछ दशकों पहले मोहम्मदिया एस्टेट हुआ करता था। उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में दूसरे राज्य से कुछ लोग मोहम्मदिया गांव आकर बसे। उन्होंने गांव में जमींदारी की शुरुआत की और अगले कुछ ही सालों में मोहम्मदिया एस्टेट की जमींदारी पूर्णिया से बंगाल के कुछ इलाकों तक पहुंच गई।


एस्टेट की शुरुआत शेख़ अमीर बख़्श ने 1880 के दशक में की थी। शेख़ अमीर बख़्श, पिता शेख़ रहमतुल्लाह के तीन बेटों में सबसे बड़े थे। कहा जाता है कि उनके पूर्वज गुजरात से बिहार के पूर्णिया आए थे।

मोहम्मदिया गांव में आज एस्टेट की यादगार के तौर पर करीब डेढ़ सौ साल पुरानी मस्जिद है। पास में एक मदरसा है जहां छात्र दीनी तालीम हासिल करते हैं। एस्टेट की कई पुरानी इमारतें भी हैं जिनमें से कुछ जर्जर हो चुकी हैं। एस्टेट के संस्थापक शेख़ अमीर बख़्श के दो छोटे भाई इलाही बख़्श और मोहम्मद आग़ा थे।


एस्टेट के इतिहास को लेकर मोहम्मद आग़ा के परपोते शम्स तबरेज़ ने ‘मैं मीडिया’ से बताया कि मोहम्मदिया आने से पहले उनके पूर्वज पास के कुनैली गांव में आए थे। कुछ समय बाद वे मोहम्मदिया गांव आकर बस गए।

“यह एस्टेट जो बना तो अमीर बख़्श के नाम से ही बना। वो ‘एस्टेट ऑफ़ शेख़ अमीर बख़्श’ कहलाया। एस्टेट में जो पहला निर्माण हुआ, वह मस्जिद थी। यहां घर से पहले मस्जिद का निर्माण कराया गया,” शम्स तबरेज़ बोले।

शम्स तबरेज़ ने आगे बताया कि मोहम्मदिया एस्टेट में मवेशियों का एक बड़ा हाट लगता था जो कई सालों पहले खत्म हो गया। अररिया जिले के फॉरबिसगंज में धर्मगंज मेला लगता था वह भी मोहम्मदिया एस्टेट के अधीन था।

शम्स तबरेज़ ने एस्टेट के इतिहास के बारे में कहा, “जमींदारी के दिनों में मोहम्मदिया रेवेन्यू मौजा हुआ करता था। सब खज़ाना इसी स्टेट में जमा करते थे। फिर यहां से साल में एक बार पूर्णिया कलेक्ट्रेट में ले जाकर जमा किया जाता था। हज़रत शेख़ अमीर बख़्श ने मस्जिद और मदरसे के लिए अपनी जायदाद को वक्फ कर दिया था। उन्होंने मस्जिद और मदरसे की तामीर की। मदरसे में पढ़ाई लिखाई और मस्जिद के बाकी खर्चे वक्फ के फंड से किए जाते थे।”

डेढ़ सौ साल पुरानी मस्जिद व मदरसे का इतिहास

मोहम्मद अनवार उल हक़ तब्बस्सुम ने अपनी पुस्तक ‘औराक़ ए पारीना’ में मोहम्मदिया एस्टेट का ज़िक्र किया है। उन्होंने लिखा कि 1852 में पूर्णिया जिल स्कूल की स्थापना हुई। इसके बाद मदरसा ए असाक़त रहमत मोहम्मदिया को 1888 में मोहम्मदिया एस्टेट के जमींदार शेख़ अमीर बख़्श द्वारा बनाया गया। इसके लिए अमीर बख्श ने 50 एकड़ से अधिक जमीन वक्फ की। मदरसे में 40 छात्रों के मुफ्त खाने पीने और रहने का बंदोबस्त किया गया।

madrasa e asaqat rehmat which was started in 1888
मदरसा ए असाक़त रहमत जिसे 1888 में शुरू किया गया था

मोहम्मद अनवार ने अपनी किताब में आगे लिखा कि मोहम्मदिया एस्टेट अपने फंड से हर साल शिक्षा पर एक बड़ी रक़म खर्च करता था। स्वतंत्रता से पहले एस्टेट में मौजूद मदरसे ने शिक्षा में बड़ी भूमिका निभाई। राजनीतिक दुनिया की कई बड़ी शख्सियतों ने इस संस्था से शिक्षा हासिल की जिनमें पूर्व सांसद मोहम्मद ताहिर और मोहम्मद तस्लीमुद्दीन के नाम शामिल हैं।

वह लिखते हैं, “आज़ादी से पहले इस संस्था ने तालीम के मैदान में अहम किरदार अदा किया है। इस मदरसे से तालीम हासिल करने वालों में इलाक़े की कई अहम शख्सियतें हैं। इस सिलसिले में खास तौर से सियासतदानों में मोहम्मद ताहिर, मोहम्मद तैयब, हबीबुर रहमान, हसीबुर रहमान और मोहम्मद तस्लीमुद्दीन शामिल हैं।”

इस पुस्तक के लेखक अनवार उल हक़ तब्बस्सुम से हमने बात की। उन्होंने कहा कि मोहम्मदिया एस्टेट की ड्योढ़ी बहुत बड़े हिस्से में फैली है। आज अधिकतर चीज़ें ख़त्म हो चुकी हैं लेकिन मस्जिद और मदरसा उस गांव की इतिहास की याद दिलाते है।

“उस एस्टेट की ड्योढ़ी बहुत बड़ी थी। बिहार में वैसी ड्योढ़ी शायद ही कहीं थी। हमने भी जो लिखा तो उसके बारे में बहुत कुछ पहले से लिखा हुआ नहीं था। हमने वक्फ नामा देख कर पुस्तक में लिखा है। अकमल यज़दानी साहब ने भी लिखा था लेकिन उसमें बहुत कम है,” अनवार उल हक़ ने कहा।

गांव में शिक्षा को बढ़ावा देने में मोहम्मदिया एस्टेट की भूमिका

मोहम्मदिया एस्टेट के रज़ी अहमद ने ‘मैं मीडिया’ से बताया कि आज़ादी के पहले से मोहम्मदिया एस्टेट ने शिक्षा पर काफी ज़ोर दिया। खास कर 1960 के दशक में एस्टेट के फंड ने कई लोगों की शिक्षा में मदद की।

मोहम्मदिया गांव का कलाम हाई स्कूल एस्टेट के संयोजक हाजी अबुल कलाम ने बनवाया था। गांव में बीबी नौशाबा के नाम से डिस्पेंसरी भी खोली गई थी। इन दोनों को एस्टेट ने सरकार को दे दिया था। दसवीं कक्षा वाला कलाम हाई स्कूल अब कलाम प्लस टू हाई स्कूल हो चुका है।

Also Read Story

बेतिया राज: सिंगापुर जैसे देशों से भी बड़े क्षेत्र में फैले बिहार के एक साम्राज्य का इतिहास

बैगना एस्टेट: गंगा-जमुनी तहज़ीब, शिक्षा के सुनहरे दौर और पतन की कहानी

बिहार सरकार की उदासीनता से मैथिली, शास्त्रीय भाषा के दर्जे से वंचित

कैथी लिपि का इतिहास: कहां खो गई धार्मिक ग्रंथों और मस्जिदों की नक्काशी में प्रयोग होने वाली कैथी लिपि

एक गांव, जहां हिन्दू के जिम्मे है इमामबाड़ा और मुस्लिम के जिम्मे मंदिर

पूर्णिया की मध्यरात्रि झंडोत्तोलन को राजकीय समारोह का दर्जा नहीं मिला, फिर भी हौसला नहीं हुआ कम

पूर्णिया की ऐतिहासिक काझा कोठी में दिल्ली हाट की तर्ज़ पर बनेगा ‘काझा हाट’

स्वतंत्रता सेनानी जमील जट को भूल गया अररिया, कभी उन्होंने लिया था अंग्रेज़ों से लोहा

पदमपुर एस्टेट: नदी में बह चुकी धरोहर और खंडहरों की कहानी

रज़ी अहमद कहते हैं, “मोहम्मदिया एस्टेट ने अपने फंड से कई लोगों को पढ़ाया, जो आगे चल कर लोकसभा सांसद बने, फज़लुर रहमान, ताहिर साहब जो बिहार,ओडिशा, बंगाल के संविधान बोर्ड के सदस्य बने। उसके बाद डॉ अब्दुस सलाम, डॉ नैयर हबीब (कनाडा), डॉ रिज़वान हैं। एस्टेट के मदरसा और मस्जिद हैं और हमको लगता है बिहार का सबसे बड़ा वक्फ वही है अभी। एक में 80 एकड़ जमीन है और एक में 60 एकड़ जमीन है।”

वह आगे कहते हैं, “मस्जिद के लिए जायदाद वक्फ कर दी गई थी। उससे जो आमदनी होगी वह मस्जिद पर खर्च होगा और जो मुसाफिर मस्जिद में ठहरेंगे उन्हें हर रोज़ 1 रुपया दिया जाएगा। कहीं से कोई भी मुसाफिर आए उसे एक रुपया दिया जाता था।”

रज़ी अहमद ने आगे बताया कि मोहम्मदिया एस्टेट के शेख़ अमीर बख़्श ने एस्टेट की जमींदारी बहुत दूर तक पहुंचा दी थी। उनकी मानें तो मोहम्मदिया एस्टेट की जमींदारी बंगाल के दार्जिलिंग तक फैली हुई थी। उन्होंने अमीर बख़्श के छोटे भाई मोहम्मद आग़ा के बेटे हाजी मजीदुर रहमान के बारे में एक प्रचलित किस्सा सुनाया।

mehman khana of mohammadia estate was where the meetings of the estate landlords were held
मोहम्मदिया एस्टेट का ‘मेहमान खाना’ जहां एस्टेट के ज़मींदारों की बैठकी लगती थी

एक बार पूर्णिया सिटी के नवाब सैयद असद रज़ा डेढ़ लाख रुपए के कर्ज़दार हो गए। पैसा न चुकाने के कारण नवाब असद रज़ा के धारक ने उनकी संपत्ति की नीलामी करने का फैसला किया। तब नवाब असद रज़ा मोहम्मदिया एस्टेट आए और उस समय के जमींदार हाजी मजदुर रहमान से मदद मांगी।

हाजी मजदुर रहमान ने उन्हें डेढ़ लाख रुपये दे दिए और उसके बदले में कुछ नहीं लिया। “हाजी मजिदुर रहमान ने उन्हें पैसा निकाल कर दिया और कहा कि जाईये अपने घर में आबाद रहिए,” रज़ी अहमद बोले।

“हमारे पूर्वज सऊदी अरब से आए थे”

रज़ी अहमद की मानें तो उनके पूर्वज सदियों पहले सऊदी अरब से भारत आए थे। उनमें से आधे लोग केरल गए और आधे गुजरात में आए। उन्नीसवीं सदी के दूसरे भाग में गुजरात से कुछ लोग मोहम्मदिया गांव आ कर बस गए।

“हमारे अजदाद (पूर्वज) सऊदी अरब से थे, ये लोग तिजारत करते थे। उस समय आधा कबीला केरल की तरफ चला गया और आधे लोग गुजरात में आकर रहे। हमारे पूर्वज गुजरात से यहां आये। यह 300 हिजरी (1879 ई) की बात होगी। अमीर बख़्श से भी पहले लोग यहां आकर बसे थे। अमीर बख़्श ने एस्टेट को बसाया। यह एस्टेट दार्जिलिंग जिले तक फैला था। दार्जिलिंग में अंजुमन (इस्लामिया) को कायम करने वाले यही लोग थे,” रज़ी अहमद ने बताया।

उन्होंने आगे कहा कि सन् 1928 में मोहम्मदिया एस्टेट के पास कार हुआ करती थी। उनके अनुसार, उस समय जिले में खगड़ा नवाब के अलावा सिर्फ मोहम्मदिया एस्टेट के पास निजी कार थी। रज़ी अहमद ने पूर्णिया के पूर्व सांसद मोहममद ताहिर के बारे में कहा कि वह मोहम्मदिया एस्टेट के दामाद थे और उनका विवाह हाजी मजीदुर रहमान की बेटी से हुआ था।

भारतीय राजनीति में मोहम्मदिया एस्टेट का किरदार

रज़ी अहमद ने पूर्णिया के पूर्व सांसद मोहम्मद ताहिर के बारे में कहा कि उन्होंने स्वतंत्रता के समय पूर्णिया की धरती को पूर्वी पाकिस्तान में जाने से बचाने में अहम भूमिका निभाई थी। वह कहते हैं, “हिंदुस्तान के क्षेत्रफल को बढ़ाने में मोहम्मदिया वालों का बहुत बड़ा हाथ है। उस समय यह हुआ कि (कहा गया) आप लोग पूर्वी पाकिस्तान चले जाइये तब ताहिर साहब बिहार, बंगाल, ओडिशा संविधान बोर्ड के सदस्य थे। उन्होंने इंकार किया और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के पास गए। वह अबुल कलाम आज़ाद से लिखवाकर लाए और यह जगह भारत में रही।”

रज़ी अहमद आगे कहते हैं, “पूर्व सांसद जमीलूर रहमान साहब और हसीबुर रहमान साहब एस्टेट के फंड से पढ़े। ताहिर साहब की शादी मोहम्मदिया एस्टेट के मजीदुर रहमान की बेटी से हुई। मोहम्मदिया के कई लोग सरकारी नौकरियों में अच्छे अच्छे पदों पर रहे।”

इस बारे में हमने पूर्व सांसद मोहम्मद ताहिर के नाती इम्तियाज़ आलम से बात की। उन्होंने रज़ी अहमद की इस बात को सही बताया और कहा, “यह तो ताहिर साहब की देन है कि अभी हम हिन्दुस्तान में हैं। यह इलाका बांग्लादेश में छट गया था फिर ताहिर साहब ने पार्लियामेंट में यह बात रखी कि इसको भारत में रखा जाए तो इसे भारत में रखा गया।”

इम्तियाज़ आलम ने आगे कहा कि पूर्व सांसद मोहम्मद ताहिर ने दो शादियां की थीं। उनकी बड़ी पत्नी ज़ाहिदा खातून मोहम्मदिया एस्टेट की थीं इसलिए मोहम्मदिया एस्टेट मोहम्मद ताहिर की ससुराल थी और इस तरह एस्टेट से उनका गहरा नाता रहा।

मोहम्मदिया एस्टेट के मोहम्मद आग़ा के पोते हसीबुर रहमान राजनेता थे और 1962 से 1977 तक बायसी विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे। मोहम्मद आग़ा के परपोते शम्स तबरेज़ ने बताया कि हसीबुर रहमान कानून मंत्री भी रहे। 1980 के बाद से मोहम्मदिया एस्टेट की राजनीति के मैदान में सक्रियता कम होती गई।

इतिहास के पन्नों में जगह नहीं बना पाया मोहम्मदिया एस्टेट

आज़ादी के 4 साल बाद 1951 में भारत के संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 31 के पास होते ही राज्यों द्वारा जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए कानून बनाने का रास्ता साफ हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने 1952 में बिहार भूमि सुधार अधिनियम, 1950 को सही ठहराते हुए लागू करने की अनुमति दी।

जमींदारी खत्म होने के बाद मोहम्मदिया एस्टेट द्वारा संचालित मोहम्मदिया का मदरसा शिक्षा का काम करता रहा। एस्टेट के फंड ने लोगों को पढ़ाई करने में मदद दी जिनमें कई बड़े नाम उभर कर आये। मोहम्मदिया एस्टेट के बारे में कितना लिखा गया है यह बता पाना कठिन है लेकिन हमारे अनुसंधान के दौरान एस्टेट के बारे में बहुत सीमित चीज़ें ही लिखित में मिलीं। जिस एस्टेट ने अपने फंड से सालों शिक्षा को बढ़ावा दिया इतिहास के पन्नों में उस मोहम्मदिया एस्टेट को बहुत अधिक जगह नहीं मिल सकी।

सीमांचल की ज़मीनी ख़बरें सामने लाने में सहभागी बनें। ‘मैं मीडिया’ की सदस्यता लेने के लिए Support Us बटन पर क्लिक करें।

Support Us

सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

Related News

पुरानी इमारत व परम्पराओं में झलकता किशनगंज की देसियाटोली एस्टेट का इतिहास

मलबों में गुम होता किशनगंज के धबेली एस्टेट का इतिहास

किशनगंज व पूर्णिया के सांसद रहे अंबेडकर के ‘मित्र’ मोहम्मद ताहिर की कहानी

पूर्णिया: 1864 में बने एम.एम हुसैन स्कूल की पुरानी इमारत ढाहने का आदेश, स्थानीय लोग निराश

कटिहार के कुर्सेला एस्टेट का इतिहास, जहां के जमींदार हवाई जहाज़ों पर सफर करते थे

कर्पूरी ठाकुर: सीएम बने, अंग्रेजी हटाया, आरक्षण लाया, फिर अप्रासंगिक हो गये

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Latest Posts

Ground Report

सहरसा के इस गांव में CM आएंगे, लेकिन यहाँ विकास कब पहुंचेगा?

किशनगंज: ठिठुरती रातों में खुले में सोने वाले बेघर लोग क्यों नहीं जा रहे सरकारी रैन बसेरा

चचरी के सहारे सहरसा का हाटी घाट – ‘हमको लगता है विधायक मर गया है’

अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस पर प्रदर्शन – सिर्फ 400 रुपया पेंशन में क्या होगा?

फिजिकल टेस्ट की तैयारी छोड़ कांस्टेबल अभ्यर्थी क्यों कर रहे हैं प्रदर्शन?