बिहार के जननायक व पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को उनकी मृत्यु के लगभग साढ़े तीन दशक के बाद भारत रत्न दिया गया।
भारत रत्न अवार्ड देने की घोषणा के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्पूरी ठाकुर पर एक लम्बा लेख लिखा। उन्होंने लिखा कि कर्पूरी ठाकुर का जीवन दो पायों के बीच घूमता रहा – सादा जीवन और सामाजिक न्याय। अपने लेख में प्रधानमंत्री मोदी ने कर्पूरी ठाकुर के सादा जीवन से जुड़े उन तमाम प्रसंगों का जिक्र किया, जो सार्वजनिक है, मसलन फटा कुर्ता पहनना, अपने निजी खर्च से बेटी की शादी आदि।
केंद्र सरकार की घोषणा के बाद जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल ने उनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का दावा किया और कहा कि वे लगातार उन्हें भारत रत्न देने की मांग केंद्र सरकार से कर रहे थे, इसलिए भारत रत्न मिलने का क्रेडिट उनको जाता है। वहीं, भाजपा ने भारत रत्न का क्रेडिट प्रधानमंत्री मोदी को दिया।
लोकसभा चुनाव की बेला में कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने के पीछे राजनीतिक निहितार्थ है। दरअसल, भाजपा इस कदम के जरिए दो निशाने साधना चाहती है। अव्वल, पार्टी अतिपिछड़ा वर्ग को आकर्षित करना चाहती है क्योंकि इस समूह की आबादी 36.01 प्रतिशत है, जो ओबीसी समूह (27.12 प्रतिशत) से भी अधिक है। बताया जाता है कि ओबीसी में सबसे बड़ी जाति यादव है जिसकी आबादी लगभग 16 प्रतिशत है। यादवों की एक बड़ी आबादी राजद का वोट बैंक है, वहीं, कुर्मी और कुशवाहा जातियों के वोट जदयू को मिलते हैं। ऐसे में अतिपिछड़ा वर्ग एक बड़ा समूह है, जिसे साधकर भाजपा अपना वोट बैंक बढ़ा सकती है।
वहीं, दूसरी तरफ कर्पूरी ठाकुर के बहाने भाजपा को राजद और जदयू पर हमला करने का मौका मिल गया है। द प्रिंट के लिए लिखे एक लेख में भाजपा नेता गुरु प्रकाश पासवान ने लिखा, “दुखद है कि ठाकुर के स्वघोषित समर्थक लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने ठाकुर की परम्परा को जन्म व मृत्यु सालगिरहों के सांकेतिक कार्यक्रमों तक सीमित कर दिया है।”
उन्होंने लेख में फटे कुर्ते के प्रसंग का उल्लेख करते हुए तेजस्वी यादव पर हमला किया। “यह घटना डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव जैसों के लिए सीख और मौका है, जिनके नाम पर दिल्ली के न्यू फ्रैंड्स कॉलोनी में 150 करोड़ रुपये का बंगला है,” उन्होंने लिखा।
वहीं, भाजपा नेता व राज्यसभा सांसद सुशील कुमार मोदी ने कहा, “लालू प्रसाद यादव, कर्पूरी ठाकुर को कपटी ठाकुर कहा करते थे। कर्पूरी ठाकुर का सबसे ज्यादा विरोध लालू यादव ही किया करते थे।”
कर्पूरी ठाकुर का बचपन
कर्पूरी ठाकुर नाई या हज्जाम समुदाय से आते हैं, जो बिहार में अतिपिछड़ा समुदायों में गिना जाता है। जाति गणना के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में नाई की आबादी 20,82,048 है, जो कुल आबादी का महज 1.59 प्रतिशत है। राज्य में नाई जाति के कुल 4,33,828 परिवार हैं, जिनमें से 38.37 प्रतिशत परिवार गरीब हैं। नाई का मुख्य पेशा बाल काटना है और इसके अलावा शादी व मृत्यु के वक्त धार्मिक कर्मकांडों में भी उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है। लेकिन, ज्यादातर गांवों में इनकी आबादी अंगुलियों पर गिनी जा सकती है और इसकी वजह ये है कि गांवों में गैर नाई जाति के लोगों ने नाई को लाकर बसाया ताकि उनके बाल काटे जा सकें और धार्मिक कर्मकांडों में उनकी मौजूदगी रहे।
कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 (हालांकि, पत्रकार संतोष सिंह ने अपनी किताब ‘जेपी टू बीजेपी’ में लिखा है कि असल में उनका जन्म 1921 में हुआ था) को समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव में हुआ, जिसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बदल कर अब कर्पूरी ग्राम कर दिया है।
जब वह 8 साल के थे, तभी उनकी शादी कर दी गई थी। जेपी टू बीजेपी किताब में संतोष सिंह लिखते हैं कि उन्होंने (कर्पूरी ठाकुर) अपने पिता-माता से साफ लफ्जों में कह दिया था कि वह पत्नी को मायके से तभी लाएंगे, जब भारत आजाद हो जाएगा क्योंकि वह चाहते हैं कि उनका बच्चा आजाद देश में पैदा हो।
उन्होंने लड़कपन से ही पिछड़ों पर ऊंची जातियों की दबंगई देखी थी और वह खुद भी इसके भुक्तभोगी थे। जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी, तो उनके पिता गोकुल ठाकुर, उन्हें गांव के एक जमींदार पास ले गये और खुश होकर कहा कि उनके बेटे ने मैट्रिक पास किया है, तो उक्त जमींदार ने बिना कोई शाबाशी दिये कर्पूरी से पैर दबाने को कह दिया। कर्पूरी ने भी उसके पैर दबाए।
साल 1942 में उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की और स्नातक में दाखिला लिया। उसी साल भारत छोड़ा आंदोलन हुआ, तो उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और आंदोलन में कूद पड़े। वह जय प्रकाश नारायण (जेपी) के संगठन आजाद दस्ता में शामिल हो गये। आजाद दस्ता का हिस्सा रहते हुए वह नेपाल गये और वहां भूमिगत जेपी से उनकी मुलाकात हुई। कर्पूरी ठाकुर से जेपी बेहद प्रभावित हुए और उनके कहने पर वह कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना 1934 में जेपी, राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव ने की थी। यह कांग्रेस के भीतर ही सक्रिय गुट था, जो गांधी के कुछ विचारों से असहमति रखता था लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से भी सहमत नहीं था, हालांकि इस गुट का रुझान वामपंथ की तरफ था।
सन् 47 में मुल्क आजाद हुआ, तो यह गुट कांग्रेस से अलग हो गया और सोशलिस्ट पार्टी के रूप में नया राजनीतिक संगठन खड़ा हुआ, तो कर्पूरी ठाकुर सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गये और अहम पद संभाला। पार्टी वर्करों और आम लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता धीरे धीरे बढ़ने लगी और पार्टी वर्करों की चाह पर साल 1952 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्हें ताजपुर से टिकट दिया गया। इस चुनाव में उन्होंने जीत दर्ज की। उसी साल सोशलिस्ट पार्टी और जेपी कृपलानी के नेतृत्व वाली किसान मजदूर प्रजा पार्टी का विलय हो गया और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी नाम से नई पार्टी का जन्म हुआ, तो कर्पूरी ठाकुर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये। 1964 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में टूट हुई और एक धरा संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी, तो कर्पूरी ठाकुर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का हिस्सा बने।
राजनीतिक अस्थिरता के बीच बढ़ा राजनीतिक कद
साल 1967 में बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनने के बाद से लेकर 1980 तक का दौर बिहार की राजनीति में भीषण अस्थिरता वाला रहा और यह अस्थिरता राज्य के मतदाताओं में कांग्रेस को लेकर भारी नाराजगी लेकिन दीगर पार्टियों को लेकर मजबूत भरोसे की कमी की वजह से थी।
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इस सियासी अस्थिरता के दौर में कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति की धुरी बने रहे और उप-मुख्यमंत्री (1967 में बनी सरकार में), मंत्री और फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी पहुंचे।
फरवरी 1969 में बिहार में हुए मध्यावधि चुनाव में कुल 317 सीटों में से कांग्रेस केवल 118 सीटें ही जीत सकी थी, जो बहुमत से कम थी। वहीं, कर्पूरी ठाकुर की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 52 सीटें जीतकर दूसरे स्थान पर रही। जन संघ (अभी भारतीय जनता पार्टी) ने 34, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) ने 25, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने 17 और जनता पार्टी ने 14 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इसके अलावा 23 निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी जीत हासिल की थी।
हालांकि, साल 1967 की तरह इस बार भी गैर-कांग्रेसी सरकार बनने की पूरी संभावनाएं थीं, मगर पार्टियों की बढ़ी आकांक्षाओं और वैचारिक विरोध के चलते यह मुमकिन नहीं हो सका। साल 1967 में गैर कांग्रेसी सरकार बनाने के लिए दो वामपंथी पार्टियां CPI और CPI(M) व जन संघ ने हाथ मिलाया था। मगर, इस बार वामपंथियों ने घोषणा कर दी कि वे ऐसे किसी भी गठबंधन सरकार को समर्थन देने को तैयार हैं, जिसमें जनसंघ न हो। अंततः कांग्रेस विरोधी पार्टियां एकजुट नहीं हो सकीं और कांग्रेस ने छोटे दलों झारखंड पार्टी, सोशित दल, हुल झारखंड, जनता पार्टी तथा कुछ निर्दलीय विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनाई। यह बिहार में पहली कांग्रेस-नीत गठबंधन सरकार थी। मगर, यह सरकार मुश्किल से 5 महीने भी नहीं टिक पाई। कांग्रेस के भीतर विभागों को लेकर अंतर्कलह और जनता पार्टी को अपेक्षाकृत अधिक विभाग दिये जाने को लेकर नाराजगी के चलते कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार आखिरकार गिर गई।
21 जून 1969 को विपक्षी दलों के नेता भोला पासवान शास्त्री को राज्यपाल नित्यानंद कानूनगो ने सरकार बनाने का न्यौता दिया। अगले दिन उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। भोला पासवान शास्त्री की सरकार में सोशित दल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, सीपीआई, पीएसपी, जन संघ समेत कई कांग्रेस विरोधी पार्टियां और कांग्रेस से बगावत करने वाले विधायक शामिल थे। लेकिन यह सरकार दो हफ्ते भी नहीं टिकी। जनसंघ ने सीधे गवर्नर को चिट्ठी लिखकर अपना समर्थन वापस ले लिया। नतीजतन 4 जुलाई 1969 को राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। लगभग 6 महीने तक बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू रहा। 16 फरवरी 1970 को कांग्रेस ने छह पार्टियों का समर्थन लेकर सरकार बनाने का दावा किया। दारोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने, लेकिन इस सरकार का भी वही हश्र हुआ, जो पूर्व की सरकारों का हुआ था। दिसम्बर 1970 में विधानसभा में गठबंधन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, जिस पर हुई वोटिंग में बहुमत कांग्रेस-नीत गठबंधन सरकार के खिलाफ गई।
कर्पूरी ठाकुर की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की पहलकदमी से साल 1967 की तरह फिर एक बार संयुक्त विधायक दल (कांग्रेस विरोधी पार्टियों को लेकर बना गठबंधन) का गठन हुआ। कर्पूरी ठाकुर संयुक्त विधायक दल का चेयरमैन बने और 22 दिसंबर 1970 को सरकार बनाने का दावा पेश किया। उनके पास 169 विधायकों का समर्थन प्राप्त था। गवर्नर ने उन्हें सरकार बनाने का न्यौता दिया और इस तरह वह पहली बार मुख्यमंत्री बने।
1967 में सीएम बनने से क्यों चूक गये
हालांकि, इससे पहले 1967 के चुनाव के बाद ही कर्पूरी ठाकुर मु्ख्यमंत्री बन जाते, लेकिन पावर पॉलिटिक्स ऐसा हावी हुआ कि वह सीएम बनते बनते रह गये। इस चुनाव में बिहार में कांग्रेस की हार हुई और पहली बार कई राज्यों समेत बिहार में भी गैर-कांग्रेसी सरकार बनना लगभग तय हो गया था।
बिहार में गैर कांग्रेसी राजनीतिक पार्टियों को लेकर बने संयुक्त विधायक दल की बैठक हुई। इस बैठक में लगभग सभी पार्टियां कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाने पर राजी हो गई। लेकिन 36 विधायकों वाले जनक्रांति दल, जो मुख्य रूप से अगड़ी जातियों की पार्टी के तौर पर जाना जाता था, के नेता महाराजा कामाख्या नारायण सिंह ने विरोध किया और मुख्यमंत्री के तौर पर अपने विधायक महामाया प्रसाद सिन्हा का नाम प्रस्तावित कर दिया।
चूंकि वह गैर-कांग्रेसी सरकार बनाने का एक सुनहरा मौका था, तो सभी ने समझौते की राह पकड़ी। महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने और कर्पूरी ठाकुर को डिप्टी सीएम बनाया गया।
अंग्रेजी, आरक्षण और आबकारी पर कड़े निर्णय
1970 में मुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने जो नीतियां अपनाई, वे आने वाले दशकों में बिहार की राजनीति की धुरी बनी रहीं और इन्हीं नीतियों ने राज्य की राजनीति में पिछड़े वर्गों के वर्चस्व को दशकों तक बनाये रखा, जो आज भी जारी है।
कर्पूरी ठाकुर शुरू से ही अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ थे और उन्होंने “अंग्रेजी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा”, “राष्ट्रपति का बेटा या चपरासी की संतान; भंगी या बाभन हो, सबकी शिक्षा एक समान” जैसे नारे दिये थे। इसलिए जब भी वह सरकार में शामिल हुए, तो इस नारे को मूर्त किया। साल 1967 में जब वह जब उप मुख्यमंत्री बने और साथ ही शिक्षा विभाग का कार्यभार संभाला, तो स्कूल शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर इसे वैकल्पिक विषय बनाया, तो मजाक भी झेलना पड़ा। उनके कार्यकाल में 10वीं पास करनेवाले छात्रों पर व्यंग्य करते हुए उन्हें ‘कर्पूरी डिविजन’ पास छात्र कहा जाता था।
उन्होंने मैट्रिक तक शिक्षा को मुफ्त किया। छात्रों के बीच फ्री में किताबें बांटी।
सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म करने के लिए मुख्यमंत्री रहते उन्होंने ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट को लागू करने का निर्णय लिया और मीडिया के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने के खिलाफ जो भी सरकारी कर्मचारी नकारात्मक टिप्पणी करेंगे, उनके सर्विस बुक में इसे शामिल किया जाएगा। जब वह वित्त मंत्री थे, तो उन्होंने 3.5 एकड़ सिंचित और 7 एकड़ गैर-सिंचित भू-मालिकों से मालगुजारी नहीं लेने का फैसला लिया। साल 1970 में ही उन्होंने बिहार में शराबबंदी कानून लागू किया, जो विफल रहा।
साल 1970 में मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल काफी छोटा महज छह महीने का था। इसके बाद कांग्रेस ने बिहार में दोबारा वापसी की। साल 1971 के बाद से अगले 5 वर्षों तक कर्पूरी ठाकुर ने जेपी के साथ मिलकर कांग्रेस के खिलाफ जमकर आंदोलन किया। साल 1975 में इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई, जो साल 1977 में खत्म हुई। उसी साल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोकदल, जनसंघ समेत आधा दर्जन कांग्रेस विरोधी पार्टियों ने मिलकर एक देशव्यापी नया संगठन जनता पार्टी बनाया। 1977 के चुनाव में कांग्रेस फिर एक बार सत्ता से दूर हो गई और बिहार समेत कई राज्यों में जनता पार्टी की सरकार बनी। कर्पूरी ठाकुर दोबारा बिहार के मुख्यमंत्री बने। इसी कार्यकाल में उन्होंने सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू किया। यही आरक्षण कालांतर में मंडल आयोग का आधार बना, जिसने उत्तरी राज्यों खास तौर से बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में ओबीसी के वर्चस्व को कायम किया।
हालांकि, ओबीसी आरक्षण की कोशिशें कांग्रेस ने 70 के दशक में ही शुरू कर दी थीं, जब कर्पूरी ठाकुर जैसे पिछड़े वर्ग के नेता कांग्रेस नेतृत्व को जबरदस्त चुनौती देने लगे थे। कांग्रेस ने आरक्षण में इसका काट ढूंढ़ लिया और इसके लिए मुंगेरी लाल आयोग का गठन किया था। आयोग ने 128 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और 93 जातियों को अतिपिछड़ा वर्ग में शामिल करते हुए सरकारी नौकरियों में उनके लिए 26 प्रतिशत और शैक्षणिक संस्थानों में 24 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। मगर, कांग्रेस ने इसे लागू नहीं किया। कर्पूरी ठाकुर ने न केवल मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशें लागू कीं, बल्कि उन्होंने महिलाओं और आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान किया। उन्होंने अतिपिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में 12 प्रतिशत आरक्षण और पिछड़ी जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया। इसके अलावा महिलाओं को और आर्थिक तौर पर पिछड़े सवर्णों को भी 3-3 प्रतिशत आरक्षण दिया।
लेकिन, बताया जाता है कि जयप्रकाश नारायण समेत उनकी अपनी पार्टी के अन्य नेता इस आरक्षण के खिलाफ थे और उन्होंने आरक्षण के चलते पिछड़े वर्गों के खिलाफ उभरे सवर्ण आक्रोश को बढ़ने दिया। सवर्णों ने अपने आक्रोश में दलितों को भी शामिल कर लिया क्योंकि उनके लिए भी आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। उस दौर में सवर्णों ने एक नारा दिया – “अगड़ी-हरिजन भाई भाई, ये पिछड़ी जात कहां से आई”। यही नहीं, उस दौर में कर्पूरी ठाकुर की मां से जोड़कर एक आपत्तिजनक नारा भी गढ़ा गया था।
अपनी ही पार्टी के भीतर उठते विरोधी स्वरों के बावजूद वह अपने फैसले से नहीं डिगे। उन्होंने साफ लहजे में कहा था, “मैं बहुत मजबूत आदमी हूं और उनसे लड़ सकता हूं। मैं ऐसे हमलों की चिंता नहीं करता है और न ही मैं किसी तरह का समझौता करूंगा। मैं एक जातिविहीन आदमी हूं और जो मेरा विरोध कर रहे हैं वे कट्टर जातिवादी हैं।”
मुख्यमंत्री के रूप में उनके दूसरे कार्यकाल में कुछ बड़ी हिंसक घटनाएं भी हुईं, जिनमें एक घटना बाजितपुर में हुई थी। पिछड़ों व दलितों की लगभग 1400 आबादी वाले समस्तीपुर के बाजितपुर गांव पर नवम्बर 1978 में अगड़ी जातियों ने भीषण हमले किये थे। उन्होंने इस घटना को रोक पाने में अपनी विफलता को स्वीकार करते हुए इस स्थापित सत्य को जाहिर किया था कि समाज में सामंती मानसिकता की जड़ें बेहद गहरी हैं और इसके खिलाफ गरीब लोग आवाजें उठा रहे हैं जिस कारण सामंती तत्व उनका उत्पीड़न कर रहे हैं।
उनका दूसरा कार्यकाल हालांकि महज एक साल 10 महीने का रहा। आरक्षण को लेकर उनके खिलाफ आक्रोश तो था ही, तिस पर 1979 के अप्रैल महीने में जमशेदपुर (अभी झारखंड में) में भीषण दंगा हो गया, जिसमें 109 लोगों की मौत हो गई थी। जनता पार्टी ने इस घटना की जांच के लिए एक जांच कमेटी बैठाई। कमेटी ने जांच में पाया कि दंगे का प्रमुख साजिशकर्ता राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) था। इस भीषण दंगे के चलते कर्पूरी ठाकुर पर दबाव बनाया गया और उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। उनकी जगह राम सुंदर दास मुख्यमंत्री बने।
ओबोसी, दलित नेताओं के उभार ने बनाया अप्रासंगिक
1979 में मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद उनका राजनीतिक ग्राफ फिर ऊपर की तरफ नहीं चढ़ पाया क्योंकि आरक्षण के बाद यादव, कुर्मी और कुशवाहा जैसी राजनीतिक तौर पर मजबूत जातियां कर्पूरी ठाकुर की जगह लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार में अपना भविष्य देखने लगीं। वहीं, राम विलास पासवान दलितों के नेता के तौर पर उभरने लगे। इन तीनों नेताओं का राजनीतिक करियर हालांकि कर्पूरी ठाकुर की छत्रछाया में ही शुरू हुआ था। मगर, इनके उभार के चलते यादव, कुर्मी, कुशवाहा और दलित जातियों ने कर्पूरी ठाकुर से मुंह मोड़ लिया। कर्पूरी ठाकुर की अपनी नाई जाति की आबादी उतनी नहीं थी कि वह चुनावी राजनीति में दुर्जेय शक्ति बन पाती। लिहाजा जनसमर्थन के साथ साथ पार्टी में भी उनका कद घटता गया। यादव विधायकों ने उन्हें अपना नेता तक मानने से इनकार कर दिया, तो उन्हें विपक्षी नेता का पद छोड़ना पड़ा और उनकी जगह लालू प्रसाद यादव ने ली, जो कर्पूरी ठाकुर को ‘कपटी ठाकुर’ कहा करते थे। यह कार्रवाई उनके लिए अपमानजनक थी। उन्होंने इस पूरे प्रकरण को लेकर भारी मन से टिप्पणी की थी कि अगर वह यादव के रूप में जन्म लेते, तो आज उन्हें ऐसा अपमान नहीं सहना पड़ता।
अपने राजनीतिक करियर के उत्तरकाल में वह अलग-थलग पड़ चुके थे। उन्होंने अतिपिछड़ों (जो यादवों के वर्चस्व के चलते हाशिये पर चले गये थे), दलितों व गरीबों को एक वोट बैंक के रूप में देखना शुरू किया। साल 1983 में कटिहार में केवट जाति के एक सम्मलेन में उन्होंने इन समूहों से एक संगठन बनाने को कहा था। वहीं, 1988 में पटना में आयोजित एकलव्य जयंती समारोह को संबोधित करते हुए कहा था कि पिछड़ी जातियां, हरिजन और आदिवासी जाति व्यवस्था के चलते प्रताड़ित होने के बावजूद खुद में बंटे हुए हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि जाति आधारित राजनीतिक पार्टियां भी सिर्फ दिखावे भर के लिए हैं। इस कार्यक्रम में उन्होंने इन समूहों को एक मंच पर आकर एक संगठन बनाने की अपील करते हुए कहा था कि एक बार यह संगठन बन जाए और सामने आ जाए, तभी इन वंचित तबकों को न्याय मिल पायेगा।
मगर उनकी अपील का कुछ खास असर नहीं हुआ और वह बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक हो गये। 17 फरवरी 1988 को हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई।
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