पिछले कुछ दिनों से लोकसभा सीटों के बंटवारे को लेकर बिहार एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) की गठबंधन पार्टियों के बीच चल रही रस्साकशी सोमवार को खत्म हो गई, जब एनडीए ने सीटों का ऐलान कर दिया, मगर इस ऐलान के साथ ही छोटी पार्टियों की नाराजगी भी बढ़ गई है।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सबसे ज्यादा 17 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। जनता दल (यूनाइटेड) को 16 सीटें दी गई हैं और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) 5 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है।
सीट बंटवारे को लेकर बीते कुछ समय से लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) सुप्रीमो चिराग पासवान और राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (आरएलजेपी) के मुखिया और चिराग पासवान के चाचा पशुपति पारस के बीच खींचतान चल रही थी। खींचतान का केंद्रबिन्दु हाजीपुर सीट थी, जिसे पशपति पारस किसी सूरत में छोड़ने को तैयार न थे, जबकि चिराग पासवान इस सीट को पिता दिवंगत रामविलास पासवान की विरासत बताते हुए यहां से खुद चुनाव लड़ने की जिद पर अड़े हुए थे।
बीजेपी ने दोनों को मनाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन आखिरकार बात नहीं बनी। इधर, पिछले दो-तीन दिनों से पशुपति पारस लगातार सार्वजनिक बयान देकर बताने लगे थे कि वह हाजीपुर सीट नहीं छोड़ेंगे और अगर जरूरत पड़ी, तो एनडीए गठबंधन से बाहर निकल जाएंगे।
पशुपति पारस, एनडीए से बाहर निकलते उससे पहले ही एनडीए ने सीट बंटवारे की घोषणा कर दी और पशुपति पारस को एक भी सीट नहीं मिली। इस तरह भाजपा ने चाचा पारस और भतीजा चिराग में से चिराग को चुन लिया।
चिराग के नीतीश कुमार पर लगातार हमलावर रहने से नाराज पशुपति पारस ने साल 2021 में लोजपा को तोड़कर अपनी नई पार्टी राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी बना ली थी और एनडीए में शामिल हो गये थे।
दिलचस्प यह है कि भाजपा ने उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी तक को उतनी तरजीह नहीं दी है, जितनी तरजीह चिराग पासवान को दी गई है। चिराग पासवान को उनकी मनपसंद सीटें हाजीपुर, वैशाली, समस्तीपुर, जमुई और खगड़िया मिली हैं जबकि उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी को महज 1-1 सीट मिली है। उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी इस सीट बंटवारे से नाखुश बताये जा रहे हैं, हालांकि भाजपा को पहले से ही यह अंदाजा था कि दोनों नेता नाराज होंगे।
ऐसे में सवाल ये है कि आखिर भाजपा, गठबंधन की तीन पार्टियों को तरजीह न देकर चिराग पासवान को इतना महत्व क्यों दे रही है?
पासवान एक मजबूत वोट बैंक
जानकारों का मानना है कि चिराग पासवान का कोर वोट बैंक पासवान समुदाय है, जो सियासी तौर पर प्रभावशाली है और यह वोट बैंक चिराग पासवान के पास है न कि उनके चाचा पशुपति पारस के पास।
पासवान, दुसाध जाति को कहा जाता है, जो अनुसूचित जाति में आता है। अनुसूसिच जाति समूह में कुल 22 जातियां आती हैं, जो कुल आबादी का 19.65 प्रतिशत है। इन 22 जातियों में सबसे अधिक संख्या पासवानों की ही है। जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में पासवान जाति की कुल आबादी 69,43,000 है, जो बिहार में अनुसूचित जातियों की कुल आबादी का 5.31 प्रतिशत है।
साल 2020 तक के चुनावों के आंकड़ों पर गौर करें, तो पाते हैं कि लोजपा (साल 2021 तक यह पार्टी अस्तित्व में थी, अब यह दो हिस्सों में बंट चुकी हैं। एक हिस्से के मुखिया पशुपति पारस और दूसरे हिस्से का मुखिया चिराग पासवान हैं। चिराग पासवान अपनी पार्टी को असली लोजपा बताते हैं) के पास 5-6 प्रतिशत वोट सुरक्षित है, जो किसी भी गठबंधन के लिए फायदेमंद हो सकता है। इसके अलावा चिराग की पार्टी के साथ कुछ अन्य प्रभावशाली ऊंची जातियां भी हैं। इसके उलट उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के पास अपना कोई मजबूत वोट बैंक नहीं है। ऐसे में चिराग पासवान को नाराज कर 5-6 प्रतिशत वोट खोने का जोखिम भाजपा नहीं ले सकती है और वह भी तब जब इस बार भाजपा का चुनावी नारा ही है – अबकी बार 400 पार।
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, “चिराग पासवान को पासवान समुदाय ने अपना नेता मान लिया है और लोजपा का जो कोर वोट बैंक था, वह अब चिराग के साथ है, पशुपति पारस के साथ नहीं। ऐसे में भाजपा पशुपति पारस, उपेंद्र कुशवाहा या जीतनराम मांझी को क्यों तरजीह देगी।”
“दूसरी बात यह भी है कि अब राजनीति में लोग युवा चेहरा चाहते हैं। मसलन कि अब राजद के वोटर लालू प्रसाय यादव की जगह तेजस्वी प्रसाद यादव को अपना नेता मान चुके हैं। इसी तरह चिराग को भी पासवान वोटर अपना चुके हैं। स्वर्गीय राम चंद्र पासवान (राम विलास के तीसरे भाई) के पुत्र समस्तीपुर सांसद प्रिंस एक युवा चेहरा हो सकते हैं, जिनकी तरफ वोटर आकर्षित होंगे, लेकिन उन्हें प्रमोट नहीं किया जा रहा है,” उन्होंने कहा।
उल्लेखनीय हो कि साल 2019 का आम चुनाव भाजपा ने जदयू और लोजपा के साथ मिलकर लड़ा था। उस चुनाव में एनडीए ने बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज की थी। तीनों पार्टियों को मिलाकर एनडीए को 53.25 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि महागठबंधन को महज 30.76 प्रतिशत वोट आये थे। भाजपा इस बार भी इसी जीत को दोहराना चाह रही है।
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बिहार में हाजीपुर, वैशाली में पासवान जाति की आबादी ज्यादा है, लेकिन अन्य जिलों में भी इनकी मौजूदगी है, इसलिए पासवान वोट कई सीटों पर असर डाल सकते हैं।
पटना के वरिष्ठ पत्रकार दीपक मिश्रा कहते हैं, “चिराग पासवान के बिना भाजपा का बिहार की 40 में से 40 सीट जीतने का लक्ष्य हासिल करना नामुमकिन है, यही वजह है कि भाजपा किसी भी कीमत पर चिराग पासवान को साथ रखना चाह रही है। चिराग ने भी पिछले डेढ़ सालों में काफी मेहनत कर खुद को स्थापित किया है।”
इसके अलावा चिराग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच गहरे व्यक्तिगत संबंध हैं और नरेंद्र मोदी भी चाहते थे कि वह सम्मानजनक तरीके से एनडीए का हिस्सा रहें। यह भी एक वजह रही कि सीटों की दावेदारी की चिराग की मांग भाजपा ने मान ली।
“चिराग, मोदी को बहुत मानते हैं और मोदी भी। हालांकि, पार्टी के अन्य नेता चिराग को उतनी तरजीह नहीं देते हैं। संभव है कि मोदी के सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद गठबंधन में चिराग की हैसियत वैसी न रहे। लेकिन फिलहाल वह गठबंधन में मजबूत स्थिति में हैं,” एक सूत्र ने बताया।
नीतीश से चिराग की अदावत
भाजपा के लिए बिहार में सबसे बड़ी चुनौती जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और पशुपति पारस नहीं थे, बल्कि उसकी चिंता नीतीश और चिराग पासवान को साथ रखने की थी।
नीतीश कुमार और लोजपा के बीच लम्बे समय से अदावत रही है और इसकी शुरुआत नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनते ही हुई थी। दरअसल, साल 2005 में मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश कुमार ने महादलित योजना की शुरुआत की थी। इस योजना के तहत उन्होंने अनुसूचित जाति समूह में आने वाली 22 जातियों में से पासवान को छोड़कर बाकी 21 जातियों को महादलित का दर्जा दे दिया। महादलितों के विकास के लिए नीतीश कुमार ने एक महादलित आयोग का भी गठन किया।
नीतीश के इस फैसले ने 21 जातियों को जदयू के करीब ला दिया और पासवान जाति अलग-थलग पड़ गई। इस कदम ने पासवानों की राजनीति करने वाले राम विलास पासवान की सियासत को भी समेट दिया। तभी से नीतीश और राम विलास पासवान के बीच दुश्मनी शुरू हुई। चिराग ने जब राम विलास पासवान की विरासत संभाली, तो उन्होंने भी नीतीश कुमार पर हमले जारी रखे। साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग एनडीए से अलग हो गये थे और जदयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारे थे, जिसके चलते जदयू को काफी नुकसान उठाना पड़ा था और वह तीसरे नंबर पर आ गया था।
ऐसे में दोनों पार्टियों को एनडीए में बनाये रखना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर थी, लेकिन भाजपा ने इसमें कामयाबी हासिल कर ली है।
पटना के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी कहते हैं, “जदयू के पास अब वो ताकत नहीं है कि वह भाजपा से जो चाहे करवा ले, इसलिए चिराग और नीतीश को गठबंधन में रखने के लिए भाजपा को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी है।”
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