बात 1920 के दशक की है जब पूर्णिया के सबोत्तर गांव में एक संस्कृत पाठशाला हुआ करती थी। पाठशाला के बाहर खड़े होकर चरवाही करने वाला एक छोटा सा लड़का संस्कृत के पाठ को सुनकर मन ही मन उसे दोहराता था। उस बच्चे का नाम भोला था। एक दिन एक अंग्रेज़ अधिकारी ने भोला से कुछ सवाल पूछे जिनका उसने सही सही जवाब दिये।
इससे खुश होकर उस अंग्रेज़ अधिकारी ने बच्चे को नकद इनाम दिया और पाठशाला में नाम लिखवाने ले गया। मगर पाठशाला में एक दलित बच्चे का दाखिला कराना उस समय अनहोनी जैसा था। बहरहाल स्कूल के संचालकों ने भोला को स्कूल में पढ़ने की आज्ञा नहीं दी। बच्चे पर इसका कोई असर न पड़ा और वह पहले जैसे रोज़ स्कूल के बाहर खड़े होकर पाठ दोहराता रहा।
इस घटना के करीब 40 साल बाद वह दलित बच्चा बिहार के कद्दावर नेता के रूप में उभर कर आया। इतना कद्दावर कि वह बिहार का पहला दलित मुख्यमंत्री बन गया। भोला अब भोला पासवान शास्त्री बन चुका था। शास्त्री की उपाधि काशी विद्यापीठ से संस्कृत स्नातक की डिग्री पूरी करने पर मिली।
डॉक्टर संजय पासवान ने अपनी पुस्तक ‘निष्पक्षता के प्रतिमान: भोला पासवान शास्त्री’ में सबोत्तर (अब सबुतर) गांव के संस्कृत पाठशाला वाले घटना का विस्तार से ज़िक्र किया है।
डॉ संजय पासवान के अनुसार, भोला पासवान ने शास्त्री की उपाधि काशी विद्यापीठ से ली थी जबकि कुछ लोगों का मानना है कि उन्हें यह उपाधि दरभंगा के संस्कृत विद्यालय से मिली थी। सियासत के अधिकांश जानकार उन्हें काशी विद्यापीठ का ही छात्र मानते हैं। काशी विद्यापीठ को 1995 से महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ कहा जाता है।
स्वराज आश्रम से स्वतंत्रता आंदोलन तक का सफर
भोला पासवान शास्त्री तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन वह कभी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। 1968 में वह पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन केवल 100 दिनों के लिए। फिर 1969 में 13 दिनों के लिए उन्होंने सीएम की कुर्सी संभाली और उसके दो साल बाद यानी 1971 में उन्हें फिर से मुख्यमंत्री चुना गया, लेकिन इस बार भी वह लंबे समय के लिए मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहे। 222 दिन यानी करीब 7 महीनों के बाद उनका तीसरा और आखिरी मुख्यमंत्री कार्यकाल खत्म हो गया।
भोला पासवान शास्त्री का जन्म 21 सितंबर 1914 को बिहार के पूर्णिया जिले के कृत्यानंद नगर प्रखंड अंतर्गत गणेशपुर पंचायत के बैरगाछी गांव में हुआ था।
कहा जाता है कि भोला पासवान शास्त्री स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से काफी प्रभावित हुए थे। डॉ संजय पासवान ने अपनी पुस्तक में लिखा कि भोला पासवान शास्त्री पर बचपन से गांधीवादी नेताओं का असर रहा। जिले के मशहूर गांधीवादी वैधनाथ चौधरी ने उन्हें राष्ट्रीय उच्च विद्यालय नामक स्कूल में दाखला कराया।
भोला शास्त्री पर था गांधी जी का गहरा प्रभाव
कुछ समय बाद आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें पूर्णिया के टीकापट्टी में स्थित स्वराज-आश्रम भेज दिया गया। कम समय में वह स्वराज आश्रम में सबके चहेते हो गए और निचली कक्षा के बच्चों को पढ़ाने भी लगे। स्वराज आश्रम बिहार के उन चुनिंदा आश्रमों में से एक है जहाँ महात्मा गांधी खुद आये और स्वतंत्रता अभियान के तहत आकर मंसूबा बंदी की। पूर्णिया गज़ेटियर में 1925 और 1927 में गांधी जी के पूर्णिया दौरे का ज़िक्र मिलता है। तब बापू स्वराज आश्रम में भी रहे थे।
भोला पासवान शास्त्री पर गांधी विचारों का असर बढ़ता गया और वह स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। आंदोलन के दौरान वह पूर्णिया के रानीपतरा गोकुल कृष्णा आश्रम में रहने लगे और वहां के सचिव बन गए। 12 सितंबर 1942 को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया। वह दो साल तक अंग्रेजी हुकूमत के कारावास में रहे जिस दौरान उन्हें पूर्णिया के अलावा पटना और फुलवारी शरीफ की जेल में बंद रखा गया।
देश की आज़ादी के बाद बिहार में उनकी छवि एक ऐसे नेता की थी जो अपने राजनीतिक जीवन को व्यक्तिगत जीवन पर हमेशा तरजीह देते थे। उनके बारे में यह मशहूर है कि वह अक्सर पेड़ के नीचे सोया करते थे और ज़मीन पर बैठकर बड़े बड़े अधिकारियों के साथ मीटिंग करते थे।
पूर्णिया का लाल 3 बार मुख्यमंत्री कैसे बना?
”निष्पक्षता के प्रतिमान: भोला पासवान शास्त्री” नामक पुस्तक में डॉ संजय पासवान ने एक घटना का ज़िक्र किया है। भोला पासवान शास्त्री 2 जून 1971 को तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उसके 5 महीनों के बाद पूर्णिया के धमदाहा थाना क्षेत्र के रूपसपुर-चंदवा में उग्र हिंसा हुई, जिसमें 14 लोग मारे गए थे। वे सभी लोग संथाल जनजाति से ताल्लुक रखते थे। इस घटना के बाद मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री ने अपने पुराने मित्र और कांग्रेस नेता डॉ लक्ष्मी नारायण सुधांशु को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था।
भोला पासवान शास्त्री जब मुख्यमंत्री बने तब बिहार की राजनीतिक गलियारों में उठा-पठक मची थी। दरअसल 1967 में जब जनक्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने तो बीपी मंडल की अगुवाई वाली शोषित दल के एक भाग ने इसका विरोध कर समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गयी। बीपी मंडल को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली तो कांग्रेस की एक गुट ने भी कुछ ऐसा ही किया और बीपी मंडल को भी कुर्सी छोड़नी पड़ी।
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बीपी मंडल की सरकार गिराने वाले कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री विनोदानंद झा ने इस बार मुख्यमंत्री के लिए एक साफ़ सुथरी छवि वाले नेता का चेहरा ढूंढ निकाला। उन्होंने भोला पासवान शास्त्री को चुना और 22 मार्च 1968 को वह बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री बने। वह 1952 से 1967 तक बनमनखी से तीन बार विधायक रहे। उसके बाद वह कोढ़ा सीट से भी दो बार विधायक बने।
दूसरी बार जब भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने तो वह लोकतांत्रिक कांग्रेस में थे। उनकी सरकार में जनसंघ दल भी शामिल थी। कांग्रेस से आए दो विधायकों को भोला मंत्री पद देना चाहते थे, जिसपर जनसंघ नाराज़ हो गया और बहुमत साबित करने से पहले से केवल 13 दिन में भोला पासवान शास्त्री की सरकार गिर गई। हालांकि, इस बार सरकार गिरने के पीछे शास्त्री के जनसंघ से कई और मतभेद भी माने जाते हैं।
उसके बाद दरोगा प्रसाद राय और कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री रहे। और फिर तीसरी बार भोला पासवान शास्त्री को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली। कुछ समय बाद कांग्रेस के मंत्रियों ने उन्हें लोकतान्त्रिक कांग्रेस को इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आर) में विलय करने को कहा। शास्त्री ने इनकार कर दिया और कांग्रेस (आर) के विद्यायकों ने इस्तीफा दे दिया। भोला पासवान शास्त्री ने भी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और उनके आखिरी मुख्यमंत्री पद का कार्यकाल 7 महीने और 5 दिन बाद 9 जनवरी 1972 को समाप्त हो गया।
इंदिरा गांधी सरकार में बने मंत्री
2 महीने बाद ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान की पार्टी लोकतान्त्रिक कांग्रेस को कांग्रेस (आर) में शामिल होने पर राज़ी कर लिया। वह कोढ़ा विधानसभा सीट से फिर विधायक बने लेकिन कुछ समय बाद इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्य सभा सांसद बनाकर शहरी विकास व आवास मंत्री का प्रभार सौंप दिया गया। अपने कार्यक्राल के आखिरी दिनों में वह राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष भी रहे।
10 सितंबर 1984 को 70 वर्ष की आयु में नई दिल्ली में भोला पासवान शास्त्री का निधन हो गया।
भोला पासवान शास्त्री के गांव में क्या दिखा
बीते 21 सितंबर को भोला पासवान शास्त्री की 109वीं जन्मतिथि मनाई गई। इस मौके पर बैरगाछी गांव स्थित उनके पुराने आवास के पास बने भोला पासवान शास्त्री सामुदायिक भवन पर एक कार्यक्रम रखा गया था। हर साल जिला प्रशासन और जन प्रतिनिधि 21 सितंबर को इस भवन में आकर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री को श्रद्धांजलि देते हैं।
जब हम बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री के जन्मस्थल बैरगाछी गांव पहुंचे तो वहां ‘भोला पासवान शास्त्री ग्राम’ लिखा हुआ एक बोर्ड दिखा। बोर्ड के सामने ही उनकी याद में बना सामुदायिक भवन दिखा जो मुख्यमंत्री क्षेत्र विकास योजना के तहत 2014 में बनाया गया था। भवन के निर्माण में 18 करोड़ 63 लाख की लागत आई थी, जिसे सांसद वशिष्ट नारायण सिंह द्वारा अनुशंसित किया गया था। भवन के पीछे उनका पुराना घर आज भी मौजूद है जहां उनके रिश्तेदार रहते हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री का परिवार आज ग़ुरबत का शिकार
भोला पासवान शास्त्री अपने पिता पुसर पासवान की एकलौती संतान थे। उनके पिता पास के काझा कोठी कचहरी में काम करते थे। वह कचहरी में मालगुज़ारी वसूल करने में कर्मचारियों की सहायता करते थे। भोला पासवान शास्त्री का विवाह तो हुआ था लेकिन उनका कोई बच्चा नहीं था। भतीजे बिरंची पासवान के बेटे और पोते-पोतियां आज भी उसी बोसीदा से मकान में हैं, जहां भोला पासवान शास्त्री ने अपना बचपन गुज़ारा था।
बिरंची पासवान की पत्नी से हमने भोला पासवान शास्त्री के बारे में कुछ बताने को कहा तो वह अपनी आंचलिक भाषा में बोलीं, ”कितने मीडिया वाले आए और गए। फोटो लेने से क्या होता है? सरकार हमारे कुछ थोड़ी करेगी।”
पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान के घर पुहंच कर हमने घर वालों से और बातें करनी चाहीं, उन्हें तलाश किया तो पता चला कि घर के सभी पुरुष सदस्य मज़दूरी करने शहर की तरफ निकले हुए हैं। बिरंची पासवान का पोता और भोला पासवान शास्त्री का परपोता रोहित कुमार सरकारी विद्यालय में 9वीं कक्षा में पढ़ाई करता है। हम ने रोहित से उसके परदादा भोला पासवान शास्त्री के बारे में पूछा।
रोहित कहता है, ”हम सुने हैं वह तीन बार मुख्यमंत्री बने थे लेकिन अपने लिए कुछ नहीं किये, दूसरे के लिए बहुत कुछ किये थे। हमको बहुत अच्छा लगता है कि वह इतने बड़े आदमी थे और ईमानदार थे।”
”हमें गरीबी महसूस होती है”
भोला पासवान शास्त्री के घर के पास रहने वाले नरेश पासवान ने बताया कि पूर्व मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्री रह चुके भोला पासवान उनके दादा के भाई थे। नरेश से जब हमने पूछा कि इतने बड़े राजनेता के गांव का होने से कैसा महसूस होता है तो वह बोले, ”ग़रीबी महसूस होता है। मुख्यमंत्री के वंशज होते हुए हम सब गरीबी में रहते हैं। गांव में विकास का काम हुआ तो है लेकिन हमारे वार्ड में नाला नहीं और बारिश होते ही बगल के प्राथमिक स्कूल में पानी भर जाता है। बच्चे कमर भर पानी में स्कूल जाते हैं।”
उन्होंने आगे कहा, ”भोला पासवान शास्त्री की जन्म तिथि पर हर साल बड़े बड़े नेता और अधिकारी आते हैं और चले जाते हैं। इस साल भी 21 सितंबर को विद्यायक से लेकर प्रशासन के कई लोग आए थे उन्हें श्रद्धांजलि देने। उनके परिजन और गांव वाले सब मज़दूर तबके के हैं, उनके लिए कोई कुछ ध्यान नहीं देता है। अगर कोई पढ़ा लिखा भी है परिवार में तो कोई देखने वाला नहीं है। जीतन राम मांझी, चिराग पासवान, लेसी सिंह सब यहां आए लेकिन उनके परिवार और गांव के लिए कहां कुछ हुआ।”
भोला पासवान शास्त्री के लिए यह बात मशहूर है कि उन्होंने पक्षपात के आरोप से बचने के लिए अपने गांव की सड़कें नहीं बनवाईं। इस पर नरेश पासवान ने कहा , ”जब कोई आदमी पटना जाकर उनसे बोलता था कि हम आप के गांव से आए हैं, हमारा फलां काम कर दीजिये तो वह उसे कहते थे जाओ, मेरे लिए बिहार का हर एक गांव एक समान है और मेरे लिए पूरा बिहार बैरगाछी है, जैसे आप मेरे बेटा या भतीजा हैं, वैसे पूरा बिहार का लोग मेरा अपना है। आप प्रक्रिया से आइए उसी प्रक्रिया से काम होगा।”
नरेश पासवान ने आगे कहा, ”ऐसा नेता अब कहां मिलेगा, अब ऐसा नेता धरती पर नहीं है। सब कोई बस जातिवाद, हिन्दू-मुस्लिम करता है। भोला पासवान तो अपने गांव के लिए कुछ किया ही नहीं। अपने घर पर भी कोई ध्यान नहीं दिया। उसके जाने के बाद गांव की सड़क बनी थी। यह जो भवन है यह भी अभी कुछ साल पहले सरकार ने बनाकर दिया। यह भवन बस साल में एक बार इस्तेमाल होता है उनकी जन्मतिथि पर, फिर साल भर ऐसे ही पड़ा रहता है।”
भोला पासवान प्राथमिक विद्यालय में बाउंडरी का इंतज़ार
गांव के बुज़ुर्गों ने बताया कि भोला पासवान शास्त्री 15 या 16 वर्ष की आयु में ही गांव छोड़कर चले गए थे। छात्र होते हुए ही उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर आंदोलनों में हिस्सा लिया और फिर पढ़ाई खत्म करने के बाद राजनीति में आ गए। मुख्यमंत्री बनने के बाद वह संभवतः एक बार ही गांव आए थे।
बैरगाछी गांव निवासी सदानंद पासवान ने कहा, ”भोला पासवान जी 16 साल की उम्र में जो गए तो लौट कर नहीं आए। एक बार आए थे शायद। इतना ईमानदार नेता थे कि जब मरे तो उनके खाता में सिर्फ 500 रुपये थे। कोई संतान तो थी नहीं उनका। उनके श्राद्ध के लिए पैसा भी डीएम साहब दिए थे।”
कुछ वर्षों पहले भोला पासवान शास्त्री के पैतृक गांव बैरगाछी में स्थित प्राथमिक विद्यालय को उनके नाम पर शुरू किया गया। ‘प्राथमिक विद्यालय भोला पासवान’ नाम वाले गसु स्कूल की बाउंडरी नहीं है जिसके लिए गांव वाले लंबे समय से मांग कर रहे हैं। बैरगाछी गांव से 2 किलोमीटर की दूरी पर काझा कोठी है जहां अभी सर्किट हाउस बना हुआ है।
दरवाज़े से दाखिल होते ही भोला पासवान शास्त्री की प्रतिमा दिखती है, जिसमें उनके नाम के अलावा उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल की तारीखें लिखी गई हैं। पूर्णिया जिले के कसबा प्रखंड स्थित कृषि कॉलेज को भोला पासवान शास्त्री का नाम दिया गया था। 2015 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भोला पासवान शास्त्री कृषि कॉलेज का उद्घाटन किया था।
भोला पासवान शास्त्री के राजनीतिक जीवन में उनपर कभी भी किसी तरह की गड़बड़ी या अनुचित विवाद देखने को नहीं मिला। उनकी गिनती आज़ाद भारत के सबसे ईमानदार और श्रद्धास्पद नेताओं में होती है। आज भी उन्हें बिहार के सबसे बड़े राजनेता, स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक के तौर याद किया जाता है।
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