लोहे का ग्रिल वाला एक बड़ा सा दरवाजा है, जो लगभग टूटा हुआ है और हमेशा खुला रहता है। तीन तरफ जगह-जगह काई जमी कंक्रीट की बाउंड्री और एक तरफ अधबना तटबंध है। कंक्रीट की बाउंड्री कहीं-कहीं टूट चुकी है और बाउंड्री की चौहद्दी के बीच से होकर महानंदा नदी की एक पतली धारा बह रही है। बाउंड्री के भीतर के मैदान में घास बिछी हुई है, जो बारिश के चलते चटक हरी हो गई है। कहीं-कहीं पत्थर भी रखे हुए हैं। मैदान में चरवाहे बकरियां और गाय चरा रहे हैं। बच्चों के लिए यह खेल का भी मैदान है।
सरकारी फाइलों में यह जगह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के किशनगंज कैम्पस के रूप में दर्ज है, जिसकी घोषणा लगभग एक दशक पहले केंद्र की संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार ने की थी।
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साल 2008-2007 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का एक कैम्पस किशनगंज में खोलने का ऐलान किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति ने भी इसे हरी झंडी दे दी और 01 दिसंबर 2011 को बिहार सरकार ने किशनगंज शहर से लगभग 2-3 किलोमीटर दूर चकला और गोविंदपुर मौजा में 224.02 एकड़ जमीन भी आवंटित कर दी। 30 जनवरी 2014 को कांग्रेस अध्यक्ष और यूपीए की चेयरपर्सन रहीं सोनिया गांधी ने इसकी आधारशिला रखी और उसी साल 2014 में इस कैम्पस के निर्माण के लिए 136.82 करोड़ खर्च करने की घोषणा भी कर दी गई।
लेकिन, इसके बाद कैम्पस का काम अधर में लटक गया। कई सालों तक तो अज्ञात कारणों से कैम्पस निर्माण के लिए फंड ही जारी नहीं किया गया। फंडिंग की मांग के लिए स्थानीय लोगों ने कई बार धरना दिया, तो 30 नवम्बर 2016 को केंद्र सरकार ने 10 करोड़ रुपए दिये। इसके बाद फिर कोई फंड जारी नहीं हुआ।

इस बीच, एएमयू किशनगंज के निर्माणस्थल के चयन में पर्यावरण नियमों की अनदेखी का आरोप लगाते हुए नेशनल ग्रीन ट्रायबुनल (एनजीटी) में एक याचिका दायर कर दी गई। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए 18 फरवरी 2019 को एनजीटी के दिल्ली बेंच ने प्रस्तावित कैम्पस क्षेत्र में किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगाते हुए कहा कि इस मुद्दे पर जब तक नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) की कार्यवाही खत्म नहीं होती और एनएमसीजी के नियमों के तहत निर्माण की मंजूरी नहीं मिल जाती है, तब तक कैम्पस से संबंधित किसी तरह का निर्माण कार्य नहीं किया जाए।
अव्वल तो पहले से ही एएमयू किशनगंज कैम्पस का काम विलम्ब था और अब इस आदेश के चलते इसके निर्माण को लेकर अनिश्चितता और बढ़ गई है।
ऊपरी तौर पर देखने पर एएमयू के किशनगंज कैम्पस के निर्माण में पर्यावरण का अड़ंगा एक सीधा-सपाट जनहित याचिका का मामला लगता है, लेकिन इसकी अंतर्कथा में एक मजबूत सियासी चाल है और इस चाल के पीछे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की बड़ी भूमिका है।
याचिकाकर्ता मुकेश हेम्ब्रम का भाजपा, आरएसएस से जुड़ाव
साल 2017 में एनजीटी के पूर्वी बेंच में एक जनहित याचिका दायर होती है, जिसमें कहा जाता है कि महानंदा नदी के किनारे प्रस्तावित जमीन पर एएमयू किशनगंज कैम्पस के निर्माण से पर्यावरण और परिस्थितिकी (इकोलॉजी) को भारी खतरा पहुंचेगा।
महानंदा नदी, गंगा की सहायक नदी है। यह नदी दार्जिंलिंग के पहाड़ों से निकलती है और बिहार के किशनगंज, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश जाती है। बांग्लादेश में यह गंगा नदी से मिल जाती है।
इसी नदी के किनारे एएमयू किशनगंज कैम्पस के लिए जमीन आवंटित है, तो एनजीटी में याचिका दायर होने पर ट्रायबुनल ने निर्माण कार्य पर तत्काल रोक लगाते हुए मामला नेशनल मिशन ऑफ क्लीन गंगा (एनएनसीजी) को हस्तांतरित कर दिया।
एनएमसीजी साल 2011 में अस्तित्व में आया। यह नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) की कार्यान्वयन शाखा के रूप में काम करता है और इसका कार्यक्षेत्र गंगा और उसकी सहायक नदियां हैं। एनएमसीजी का मुख्य उद्देश्य गंगा नदी में प्रदूषण नियंत्रित करने और उसे पुनर्जीवन देना है।
एनजीटी में यह जनहित याचिका ‘माझी परगना अभेन बाइसी’ नामक संगठन ने दायर की थी। संगठन के मुखिया मुकेश हेम्ब्रम हैं। मुकेश हेम्ब्रम लम्बे समय तक वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़े रहे।
वनवासी कल्याण आश्रम, आरएसएस का संगठन है, जो आदिवासियों के बीच काम करता है। मुकेश हेम्ब्रम फिलहाल भाजपा से जुड़े हुए हैं।
यहां यह भी बता दें कि किशनगंज के प्रभावशाली भाजपा नेता, पार्टी के कोषाध्यक्ष व एमएलसी (विधान पार्षद) दिलीप जायसवाल ही वनवासी कल्याण आश्रम की किशनगंज इकाई के अध्यक्ष हैं।
मुकेश हेम्ब्रम से जब उनकी जनहित याचिका के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने दिलचस्प जानकारियां दीं, जिससे साफ हो जाता है कि उनकी चिंता पर्यावरण और पारिस्थितिकी का नुकसान नहीं, बल्कि एएमयू कैम्पस का निर्माण रोकना था।
संगठन का आरएसएस व भाजपा से जुड़ाव के चलते यह आरोप भी लग रहा है कि दक्षिणपंथी संगठन इस कैम्पस का निर्माण नहीं होने देना चाह रहे हैं।
सीमांचल के जिलों में मुस्लिम आबादी अधिक होने के कारण भाजपा व उससे जुड़े अन्य संगठन लम्बे समय से यहां बांग्लादेशी घुसपैठ, मुस्लिम आबादी में अधिक प्रजनन दर जैसे मुद्दे उठाकर ध्रुवीकरण करते रहे हैं।
मुकेश हेम्ब्रम मैं मीडिया से कहते हैं, “जो जमीन एएमयू कैम्पस के लिए आवंटित हुई है, उसका 70 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों का है। इस जमीन के बदले आदिवासियों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया। हमने डीएम को दस्तावेज सौंपकर कहा था कि आदिवासियों की जमीन प्रोजेक्ट के लिए न ली जाए, लेकिन सरकार ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया, तो हमने प्रोजेक्ट रोकने के लिए पर्यावरण का मामला उठाकर एनजीटी में याचिका डाल दी।”
एनजीटी में जनहित याचिका दायर करने से पहले साल 2010 में भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एएमयू के प्रस्तावित कैम्पस नहीं बनने देने के लिए पटना हाईकोर्ट में एक मामला दायर किया था। याचिका में परिषद ने दो बुनियाद पर कैम्पस स्थापित नहीं होने देने की गुजारिश की थी। परिषद ने अपनी याचिका में लिखा था कि एएमयू एक्ट की धारा 5 की उपधारा (9ए) में कहा गया है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से संबंधित कोई भी कैम्पस यूनिवर्सिटी मस्जिद के 25 किलोमीटर के भीतर होना चाहिए, ऐसे में इस दायरे के बाहर कैम्पस खोलना यूनिवर्सिटी के एक्ट के खिलाफ है।
दूसरा मुद्दा घुसपैठ का था। परिषद का कहना था कि प्रस्तावित कैम्पस बांग्लादेश सीमा के करीब है इसलिए यह राष्ट्रहित व जनहित के लिए खतरे से भरा हो सकता है।
पटना हाईकोर्ट ने इस जनहित याचिका को अस्वीकार्य बताते हुए खारिज कर दिया था और कहा था कि किसी भी यूनिवर्सिटी या शैक्षणिक संस्थान की स्थापना के स्थान का चयन राज्य सरकार व यूनिवर्सिटी नीतियों पर निर्भर करता है और इसमें कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, जब तक कि यह प्रदर्शित न हो कि उक्त नीति में संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हुआ है।

उक्त जनहित याचिका में आवेदक के तौर पर अभिनव मोदी और जय नारायण कुमार के नाम दर्ज थे। अभिनव मोदी उस वक्त एबीवीपी से जुड़े हुए थे। बाद में वह भाजपा के जिला अध्यक्ष भी बने, लेकिन अब सक्रिय राजनीति में नहीं हैं।
अभिनव मोदी ने पटना हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर किये जाने से इनकार किया। उन्होंने कहा, “पटना हाईकोर्ट में जो जनहित याचिका दायर की गई थी, मेरी उसमें कोई भूमिका नहीं थी और न ही ड्राफ्ट तैयार करने में मैं शामिल था। एबीवीपी ने याचिका तैयार की और उसमें बेवजह मेरा नाम डाल दिया।”
क्या एएमयू किशनगंज कैम्पस की जमीन आदिवासियों की है?
पर्यावरण व पारिस्थितिकी को थोड़ी देर के लिए भूल जाएं और मुकेश हेम्ब्रम के दावे की बात करें, तो सवाल है कि क्या सच में आदिवासियों की जमीन एएमयू कैम्पस के लिए आवंटित कर दी गई?
इस संबंध में जब मुकेश हेम्ब्रम से बात की गई, तो उन्होंने दावा किया कि उनके पास पर्याप्त कागजात हैं, जो बताते हैं कि आवंटित जमीन का 70 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों का है। यही दस्तावेज उन्होंने तत्कालीन डीएम को सौंपे थे। मैं मीडिया ने उनसे दस्तावेज और कुछ आदिवासियों का मोबाइल नंबर मांगा, तो उन्होंने तुरंत भेज देने का आश्वासन दिया, मगर स्टोरी प्रकाशित होने तक भेजा नहीं।
दस्तावेज और आदिवासियों के नंबर के लिए मैं मीडिया ने मुकेश हेम्ब्रम को कई दफा फोन किया, लेकिन उन्होंने फोन भी नहीं उठाया।
उधर, अभिनव मोदी भी मानते हैं कि उक्त जमीन आदिवासियों की है। वह मैं मीडिया से कहते हैं, “शुरू से ही मेरा स्टैंड रहा है कि उक्त जमीन आदिवासियों की है और उन्हें उनकी जमीन वापस की जानी चाहिए। हम यूनिवर्सिटी के खिलाफ कभी नहीं थे और न ही अब हैं। सरकार किसी दूसरी जगह यूनिवर्सिटी कैम्पस खोल ले, हमें कोई दिक्कत नहीं है। बल्कि हमने तो जिला अधिकारियों से यह तक कहा था कि अगर आपको जमीन नहीं मिल रही है दूसरी जगह तो हमें बताइए, हम मदद कर देते हैं।”
आदिवासियों के मालिकाना हक से जुड़े दस्तावेजों की मांग पर कहते हैं कि उनके पास अभी कोई कागजात नहीं है।
जदयू नेता व पूर्व विधायक मुजाहिद आलम एएमयू कैम्पस के निर्माण के लिए लम्बे समय प्रयास कर रहे हैं और कई विभागों को चिट्ठियां लिख चुके हैं। वह एएमयू कैम्पस आदिवासियों की जमीन पर बनने के दावों को सिरे से खारिज करते हैं। “पूरी जमीन सरकार की है। जब यह जमीन एएमयू के कैम्पस के लिए आवंटित हुई थी, तो कोई आदिवासी वहां नहीं था। बल्कि प्रोजेक्ट क्षेत्र से सटा गांव आदिवासियों का है और उन्हें इस प्रोजेक्ट से कोई आपत्ति नहीं थी,” मुजाहिद आलम मैं मीडिया को बताते हैं।
“जब जमीन आवंटित हो गई, तो रातोंरात कुछ आदिवासियों को लाकर उक्त जमीन पर बसा दिया गया, ताकि कैम्पस बनने में अड़ंगा डाला जा सके। कैम्पस नहीं बनने देने के पीछे राजनीतिक साजिश है,” उन्होंने आगे कहा।
बिहार सरकार का भी दावा है कि उक्त जमीन सरकारी है। किशनगंज के सर्किल अफसर समीर कुमार ने मैं मीडिया से कहा, “एएमयू कैम्पस के लिए आवंटित जमीन आदिवासियों की नहीं है। पूरी जमीन सरकार की है।”
भाजपा नेताओं के दावे और सरकारी अधिकारी की तरफ से इसे खारिज किये जाने के बाद मैं मीडिया ने मौके पर जाकर पड़ताल की कि सच में वह जमीन आदिवासियों की है या सरकार की और पाया कि जमीन सरकार की है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि दशकों पहले कैम्पस का भूखंड चकला गांव का हिस्सा हुआ करता था और वहां सुरजापुरी भाषी मुस्लिम व हिन्दू परिवार रहा करते थे न कि आदिवासी। महानंदा नदी के कटाव के चलते गांव का वह हिस्सा बाद में नदी में समा गया, लेकिन नदी अपना रास्ता बदलती रही और कालांतर में वहां फिर जमीन निकल आई।
बिहार की जमीन बंदोबस्ती नियमावली के अनुसार, अगर किसी व्यक्ति की जमीन पर नदी बह रही है, तो वह जमीन राज्य सरकार की हो जाती है और बाद में अगर वह फिर भूखंड में तब्दील हो गई, तब भी उस पर मालिकाना हक सरकार का ही होता है।
चकला गांव निवासी फैजुल हक 100 साल के हैं और उनका जन्म भी इसी गांव में हुआ है। वह क्षेत्र के बदलते भूगोल के गवाह हैं। वह मैं मीडिया को बताते हैं, “लगभग 70-80 साल पहले वहां (जहां एएमयू कैम्पस प्रस्तावित है) चकला गांव ही था। मेरा घर भी नदी में चला गया, तो हमलोग भाग कर इधर आ गए। वहां मुस्लिम और हिन्दू आबादी रहती थी। कोई आदिवासी परिवार वहां नहीं था। आस पास भी कोई आदिवासी गांव नहीं था।”

हालांकि, अभी 10-15 आदिवासी परिवार कैम्पस की बाउंड्री के बाहर रहते हैं, लेकिन वे भी 10-15 साल पहले ही यहां आये हैं। मैं मीडिया ने जब इन आदिवासी परिवारों से बात की, तो उन्होंने जो बातें बताईं, उससे कैम्पस नहीं बनने देने के पीछे भाजपा की साजिश के आरोप को और भी मजबूती मिलती है।
आदिवासियों ने बातचीत में कई बार भाजपा नेता दिलीप जायसवाल का नाम लिया और कहा कि उन्होंने ही उन्हें (आदिवासियों) और दूर इलाकों में रह रहे अन्य आदिवासी परिवारों (सभी को मिलाकर लगभग 50 परिवार) को कैम्पस में बसा दिया था।
बाद में जब स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया, तो ज्यादातर आदिवासी परिवार अपने पुराने ठिकाने पर लौट गये और करीब 15 आदिवासी परिवार कैंपस के पास ही बस गये और अपनी बसाहट का नाम टिकरमपुर रख दिया। ये आदिवासी खुद भी दावा नहीं करते कि कैम्पस की जमीन उनकी है।
टिकरमपुर में रह रही आदिवासी महिला रामलखी टुडू (बदला हुआ नाम) ने मैं मीडिया से कहा, “10-20 साल पहले हमलोगों को दिलीप जायसवाल बोला था कि यहां (कैम्पस की जमीन पर) घर बना कर रहो, फिर सब सुविधा हो जाएगा। फिर यहां मारपीट (प्रोटेस्ट) हुआ, तो हमलोगों को इधर बसा दिया।”

कैम्पस की जमीन पर बसा देने के वाकये को याद करते हुए वह आगे कहती हैं, “हमलोगों को वहां बसा दिया और फिर बोला कि पूरी ज़मीन जोत लो। (हमलोग) पूरा (जमीन) जोते। उसके बाद वहां खेती किये। तीन-चार साल बाद बोला कि यहां से जाओ। लगभग 50 घर था यहां। बहुत लोग चला गया। हमलोग का घर नज़दीक है, तो नहीं गए।”
एक अन्य आदिवासी महिला कहती हैं, “जब हमलोग आए थे, यहां कुछ नहीं था। ट्रैक्टर जोत कर यहां हमलोग खेती किये थे। एएमयू की बाउंड्री बन रही थी, तो हमलोग उसमें भी काम किये थे।”
फैज़ुल हक़ के बेटे नसीम अख्तर मैं मीडिया को बताते हैं, “करीब 15 साल पहले हमलोग कैम्पस के लिए प्रस्तावित जमीन में भैंस चराते थे। जब यूनिवर्सिटी बनने की सुगबुगाहट हुई, तो आदिवासियों को 2-3 बीघा करके ज़मीन दिया। सब हम लोगों के सामने हुआ। उधर ही भैंस चराते थे।” “फिर यूनिवर्सिटी की बात चली, वे लोग वहां बहुत बड़ा कैंप करने जा रहे थे। गांववालों को पता चला, तो उन्होंने रोड जाम किया। उसके बाद वे लोग (आदिवासी) भागे यहां से। उसके बाद देखते हैं कि यूनिवर्सिटी के बाहर कुछ आदिवासी परिवार बसे हुए हैं,” नसीम अख्तर कहते हैं।
गूगल अर्थ के टाइम लैप्स टूल्स में साल 2003 की कैम्पस की जमीन की तस्वीरें मौजूद हैं। उस वक्त की तस्वीरों में कैम्पस की जमीन के लोकेशन पर नदी और खाली मैदान नजर आता है। वहीं, जनवरी 2011 में कैम्पस की जमीन पर आबादी बसी हुई दिखती है। इन तस्वीरों से भी साफ हो जाता है कि जिन आदिवासियों की जमीन होने का दावा भाजपा करती है, उन आदिवासियों को कैम्पस के लिए जमीन आवंटित होने के बाद यहां बसाया गया था।

स्थानीय आदिवासियों द्वारा दिलीप जायसवाल का नाम लिये जाने को लेकर मैं मीडिया ने दिलीप जायसवाल से बात की, तो उन्होंने कहा, “एकदम झूठ बोलता है, गलत बोलता है। हमारे पास इतना समय नहीं है कि हम किसी से मिलें और किसी को बसाएं।”
किशनगंज में एएमयू कैम्पस नहीं खुलने देने को लेकर भाजपा पर साजिश के आरोप को उन्होंने खारिज किया। “एएमयू खुलना चाहिए। शिक्षा का महत्व है, शिक्षा संस्थान जितना खुले, उतना अच्छा। इसमें भाजपा और राजद की बात नहीं आनी चाहिए। शिक्षा संस्थान खुलने चाहिए,” उन्होंने कहा।
यह पूछे जाने पर कि उनकी पार्टी के एक नेता मुकेश हेम्ब्रम ने कैम्पस के खिलाफ एनजीटी में मामला किया, जायसवाल ने कहा, “भाजपा के तो देशभर में बहुत नेता हैं, सबके बारे में तो हम नहीं बता सकते। हम तो अपने बारे में बता सकते हैं। हम दिलीप जायसवाल के बारे में बता सकते हैं कि हम शिक्षाप्रेमी हैं,” दिलीप जायसवाल ने कहा।

आगे उनसे पूछने पर उन्होंने कहा, “इसको आगे और छीलने से कोई फायदा तो नहीं है। हमने एक लाइन में कह दिया कि मैं शिक्षाप्रेमी हूं। अब अगर आप इसे प्याज की तरह छीलेंगे, तो अंत में यही निकलेगा कि मैं शिक्षाप्रेमी हूं।”
महानंदा किनारे कॉलेज, पुलिस लाइन, पर आपत्ति नहीं
एनजीटी में साल 2017 में दायर की गई जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए ट्रायबुनल ने नेशनल गंगा रिवर कंजर्वेशन अथॉरिटी (एनजीआरसीए) को निर्देश दिया था कि वह इस मामले को देखे और मौके पर जाकर मुआयना करे।
उसी साल एनजीआरसीए ने चार सदस्यीय टीम को मुआयना करने भेजा, जिसमें नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) के इनफोर्समेंट को-ऑर्डिनेटर फैजुल्ला खान, स्टेट प्रोग्राम मैनेजमेंट ग्रुप (एनजीआरसीए) के वरिष्ठ सिविल इंजीनियर अनूप, किशनगंज के तत्कालीन एडीएम रामजी साह और किशनगंज के फ्लड कंट्रोल व ड्रेनेज डिविजन के असिस्टेंट इंजीनियर साजिद इकबाल शामिल थे।
मुआयना करने के बाद एनजीआरसीए ने एनजीटी को बताया कि महानंदा नदी के बाढ़ क्षेत्र में एएमयू सेंटर के प्रस्तावित साइट पर बाढ़ सुरक्षा के लिए तटबंध के रूप में निर्माण कार्य किया गया है।
इसी मुआयना के बाद एनएमसीजी ने भी बिहार सरकार और किशनगंज जिले के आधा दर्जन अधिकारियों को निर्देश जारी किया।
निर्देश (इसकी प्रति मैं मीडिया के पास है) में एनएमसीजी ने कहा, “हमारे संज्ञान में लाया गया है कि एनएमसीजी से अनुमोदन लिये बिना अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने महानंदा नदी के बाढ़ क्षेत्र व नदी तल में अवैध निर्माण किया है।”
महानंदा के बाढ़ क्षेत्र में किसी तरह का निर्माण नहीं करने का निर्देश देते हुए बिहार सरकार से कहा गया कि वह निर्देश मिलने के 90 दिनों के भीतर महानंदा के बाढ़ क्षेत्र में हो रहे/हो चुके निर्माण के बारे में एनएमसीजी को पूरी जानकारी उपलब्ध कराए।
“ऊपर दिये गये निर्देशों का पालन नहीं करने पर महानंदा के बाढ़ क्षेत्र में हुए निर्माण को अवैध माना जाएगा और एनएमसीजी यह देखने के लिए जरूरी कार्रवाई करेगा कि उक्त ढांचे से महानंदा नदी के पानी के बहाव में व्यवधान तो नहीं आ रहा है या उससे नदी प्रदूषित तो नहीं हो रही है। अगर ऐसा पाया गया, तो संबंधित प्राधिकरण या स्थानीय प्राधिकरण या अन्य प्राधिकरण या बोर्ड या कॉरपोरेशन या व्यक्ति एनएमसीजी के निर्देशानुसार उक्त ढांचे को हटा देंगे,” अपने निर्देश में एनएमसीजी ने कहा।
दिलचस्प बात है कि एनएमसीजी ने एएमयू किशनगंज कैम्पस को लेकर तो कठोर निर्देश जारी किया है, लेकिन, महानंदा नदी के किनारे हो चुके और हो रहे निर्माणों को लेकर कोई सुगबुगाहट तक नहीं दिखाई।

डॉ कलाम कृषि कॉलेज की स्थापना साल 2015 में की गई। यह कॉलेज महानंदा नदी से सटा हुआ है, कॉलेज की सुरक्षा के लिए बने 6 किलोमीटर लंबे तटबंध पर पिछले साल 447 लाख रुपए खर्च कर कटाव निरोधी कार्य कराया गया। इसके अलावा भी कई निर्माण किशनगंज में महानंदा नदी के किनारे हुए हैं।
2020 में किशनगंज सदर प्रखंड के चकला में स्टेट हाईवे के किनारे महानंदा नदी की धारा के बिल्कुल पास पुलिस लाइन का शिलन्यास मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया। इस निर्माण पर लगभग साढ़े 38 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। पुलिस लाइन की बाउंड्री और कुछ भवनों की दीवार बन चुकी हैं। लेकिन, इन निर्माणों पर एनएमसीजी की तरफ से कोई आदेश नहीं आया है।

कई चिट्ठियां लिखी गईं, पर कोई उम्मीद नहीं
एनजीटी के आदेश और एनएमसीजी की रोक के बाद से लेकर अब तक केंद्र सरकार और एनएमसीजी को कई बार चिट्ठियां लिखकर निर्माण की अनुमति मांगी गई, लेकिन एएमयू किशनगंज प्रशासन और बिहार सरकार के अधिकारियों की मानें, तो अब तक की प्रतिक्रिया बहुत उत्साहजनक नहीं रही है।
इस संबंध में एनएमसीजी की प्रतिक्रिया के लिए उसके डायरेक्टर को मैं मीडिया ने मेल भेजा है। मेल का जवाब आने पर स्टोरी अपडेट कर दी जाएगी।
एएमयू किशनगंज के डायरेक्टर हसन इमाम ने 22 जून 2021 को जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को पत्र लिखकर प्रस्तावित जमीन पर निर्माण शुरू करने की इजाजत मांगी थी।
उन्होंने पत्र में लिखा था कि महानंदी की मुख्य धारा से प्रस्तावित कैम्पस की जमीन लगभग 2.5 किलोमीटर दूर है। जमीन के करीब से सिर्फ नदी की एक धारा बह रही है।
उन्होंने पत्र में लिखा था, “मैं आपसे (गजेंद्र सिंह शेखावत) निवेदन करता हूं कि आप इस मामले में निजी रुचि दिखाएं और मुझे उम्मीद है कि आपके हस्तक्षेप से सकारात्मक परिणाम निकलेगा।”
एएमयू कैम्पस बन जाने के हताश प्रयास में उन्होंने पत्र में यह तक लिख दिया था कि एएमयू किशनगंज यह शपथ लेता है कि आवंटित जमीन पर एक भी ऐसी इमारत नहीं बनेगी, जो पर्यावरण के लिए खतरनाक हो सकती है।
इस पत्र के जवाब में एनएमसीजी ने लिखा कि 2017 में भेजे गये निर्देश का कोई जवाब एनएमसीजी को नहीं मिला।
हालांकि, हसन इमाम का कहना है कि एएमयू के किशगंज कैम्पस प्रबंधन ने अपनी लिखित प्रतिक्रिया जिले के डीएम को सौंप दी थी।
इस मामले में बिहार जल संसाधन विभाग के एक पत्र (पत्र की प्रति मैं मीडिया के पास है) से पता चलता है कि बिहार सरकार की तरफ से एनएमसीजी को अनुपालन (कम्प्लायंस) रिपोर्ट भेजी गई थी और प्रस्तावित एएमयू कैम्पस की जमीन व प्रस्तावित पुलिस लाइन की सुरक्षा के लिए कई बार बाढ़ सुरक्षा कार्यों की इजाजत मांगी गई थी, लेकिन एनएमसीजी ने जवाब नहीं दिया।
जल संसाधन विभाग के एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर मैं मीडिया से कहा, “एनएमसीजी को कम से कम तीन बार पत्र लिखकर बाढ़ सुरक्षा कार्य कराने की इजाजत मांगी गई, लेकिन उस तरफ से कई जवाब नहीं आया। हमारी तरफ से लगातार उनसे संपर्क किया जा रहा, मगर वहां से कोई प्रतिक्रिया हमें नहीं मिल रही है।”
उन्होंने कहा, “एनएमसीजी को आखिरी चिट्ठी हमने इसी साल जून में भेजी है, लेकिन अब तक उस तरफ से कोई जवाब ही नहीं आया है।”
हसन इमाम एनएमसीजी की आपत्तियों पर हैरानी जताते हुए मैं मीडिया से कहते हैं, “सारी सभ्यताएं नदियों के किनारे जन्मीं और विकसित हुईं। महानंदा नदी के किनारे कितने ही निर्माण कार्य कर लिये गये, लेकिन सिर्फ एएमयू कैम्पस को लेकर आपत्ति है। यह कितनी अजीब बात है!”
एएमयू किशनगंज सेंटर की तरफ से एक महीने पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से लेकर तमाम मंत्रियों व अधिकारियों को पत्र लिखकर निर्माण की इजाजत मांगी गई है, लेकिन जवाब आना अभी बाकी है।
हालांकि, जानकारों का कहना है कि अगर सही तरीके से आगे बढ़ा जाए, तो इस प्रोजेक्ट में कोई अड़चन नहीं आएगी। सुप्रीम कोर्ट के वकील अब्दुर राशिद कुरैशी ने इस मामले से जुड़े कुछ दस्तावेज देखे हैं और उनका कहना है कि अगर एनएमसीजी को भरोसे में लिया जाए, तो एएमयू कैम्पस का काम शुरू हो सकता है। “बहुत सारे ऐसे निर्माण हैं, जो गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे हुए होंगे। दूसरी बात कि एनएमसीजी में निर्माण पर पूरी तरह प्रतिबंध भी नहीं है। ऐसे में अगर एएमयू प्रशासन एनएमसीजी को यह भरोसा दिला पाता है कि कैम्पस निर्माण से पर्यावरण और पारिस्थितिकी को कोई नुकसान नहीं होगा, तो निर्माण की इजाजत मिल सकती है,” उन्होंने मैं मीडिया को बताया ।
हसन इमाम कहते हैं, “अगर एनएमसीजी निर्माण पर पूरी तरह पाबंदी लगा देता है, तो हमारे पास बिहार सरकार से दूसरी जगह जमीन लेने के सिवा कोई और उपाय नहीं बचेगा। लेकिन अफसोस इस बात का है कि उधर से कोई जवाब नहीं आ रहा है।”
हालांकि, उन्हें भरोसा है कि दूसरी जगह जमीन लेने की नौबत नहीं आएगी, लेकिन, सच तो यह है कि राजनीति से प्रेरित पर्यावरणीय पेंच और एनएमसीजी की ठंडी प्रतिक्रिया से एएमयू किशनगंज के भविष्य पर आशंका के बादल और भी घने होते दिख रहे हैं।
(फोटो: शाह फ़ैसल & तंज़ील आसिफ़, इनपुट: तंज़ील आसिफ़ & मो. शारिक़ अनवर, ग्राफ़िक्स: अमित कुमार)
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बहुत ही बारीकी से हर बात रिसर्च करने के लिए मैं मीडिया को धन्यवाद। स्टोरी में बहुत वक्त और पूरी टीम कि मेहनत है, और जो सच है वो काफी लोगों तक पहुंचेंगे और लोगों को भी समझ में आयेगी बात की आखिर कौन लोग हैं इसके पीछे जो नही चाहते की कभी भी एएमयू का कैंपस किशनगंज में बने।
Bahut bahut dhanyawad aur aap ki mehnat ki sadharana krte hai itni research krne ke liy