4 मई को पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस मधुरेश प्रसाद ने जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए बिहार में जाति आधारित जनगणना (जिसे बिहार सरकार अब ‘सर्वेक्षण’ कह रही है) पर अंतरिम रोक लगा दी और इस पर अगली सुनवाई के लिए 3 जुलाई की तारीख तय की।
बिहार सरकार ने 9 मई को मामले की सुनवाई करने की अपील की है, जिसे पटना हाईकोर्ट ने स्वीकार कर लिया है और संभवतः 9 मई को इस मामले में फिर सुनवाई की जाएगी।
जातिगत जनगणना पर अंतरिम रोक का आदेश उन याचिकाकर्ताओं की याचिकाओं पर आया था, जिसमें उन्होंने सर्वेक्षण को गैर-संवैधानिक, राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर, पैसे की फिजूलखर्ची और निजता के अधिकार का हनन बताया था।
याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट में कहा था कि जनगणना कराने का अधिकार केंद्र सरकार को मिला हुआ है और कोई भी राज्य सरकार इस तरह की जनगणना नहीं करा सकती है।
याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट को बताया था कि इस जनगणना में लोगों से उनकी जातियां व अन्य निजी जानकारियां जुटाई जा रही है, जिन्हें सार्वजनिक किया जा सकता है और अगर ऐसा होता है, तो निजता के अधिकार का हनन होगा। याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा था कि विधायकों के पास कानून बनाने की शक्ति है, फिर जातिगत सर्वेक्षण के लिए विधानसभा से एकतरफा मंजूरी लेकर और कैबिनेट से इसे पास क्यों कराया गया।
अपने बचाव में सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले एडवोकेट जनरल व अन्य वकीलों ने कहा कि बिहार सरकार जनगणना नहीं करा रही है बल्कि वह सर्वे करा रही है। वहीं, निजता के अधिकार के हनन को लेकर उनका तर्क था कि जाति कोई छिपी हुई चीज नहीं है और लोग भी इसको लेकर कोई आपत्ति नहीं जता रहे हैं बल्कि उत्साहित होकर अपनी जातियां बता रहे हैं।
सरकार की तरफ से इन याचिकाओं को दुर्भावनापूर्ण करार देते हुए कहा गया कि सर्वेक्षण का काम पहले से चल रहा है लेकिन ये याचिकाएं कोर्ट में तब डाली गई हैं, जब सर्वेक्षण के दूसरे और अंतिम चरण का काम 80 प्रतिशत तक पूरा हो गया है।
कोर्ट ने दोनों तरफ के तर्कों को सुनने के बाद याचिकाकर्ताओं के कई बिंदुओं से सहमति जताते हुए माना कि बिहार सरकार की तरफ से जाति आधारित सर्वे को जारी रखने के खिलाफ जो बातें कही गई हैं, वे तार्किक हैं।
कोर्ट ने आगे कहा, “प्रथम दृष्टया हमारा विचार है कि राज्य के पास जाति आधारित सर्वे कराने की शक्ति नहीं है।” “इन परिस्थितियों के मद्देनजर हम राज्य सरकार को निर्देश देते हुए हैं वह जाति आधारित सर्वेक्षण रोक दे और जो भी आंकड़े अब तक जुटाये गये हैं, उन्हें तब तक संरक्षित रखे और किसी से भी साझा न करे, जब तक कि इन याचिकाओं पर अंतिम फैसला नहीं आ जाता है,” अदालत ने अपने आदेश में लिखा।
“जाति आधारित सर्वेक्षण में संवैधानिक गड़बड़ियां”
कोर्ट ने अपने आदेश में एक अहम बिन्दु को रेखांकित किया है, जो कानून के जानकारों के मुताबिक, बिहार सरकार से तर्क को कमजोर करता है।
दरअसल, बिहार सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण को लेकर जो अधिसूचनाएं जारी की हैं, उनमें सरकार ने इस बात के संकेत दिये थे कि सर्वेक्षण का काम पूरा हो जाने पर इन आंकड़ों को विधानसभा की विभिन्न पार्टियों के नेताओं के साथ साझा किया जायेगा। कोर्ट ने इसका उल्लेख करते हुए कहा, “इससे निश्चित तौर पर निजता के अधिकार को लेकर बड़ा सवाल उठता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने जीवन के अधिकार का एक पहलू माना है।”
पटना हाईकोर्ट के वकील शाश्वत ने कहा, इस सर्वेक्षण में संवैधानिक गड़बड़ियां हैं और हाईकोर्ट ने जिस बात को रेखांकित किया कि सरकार ने खुद कहा कि सर्वेक्षण रिपोर्ट राजनीतिक पार्टियों के नेताओं में वितरित किया जाएगा, यह और भी गंभीर बात है।’
कोर्ट का यह आदेश बिहार की महागठबंधन सरकार के लिए निश्चित तौर पर निराशाजनक है क्योंकि बिहार सरकार की यह बेहद महत्वाकांक्षी योजना थी।
बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने कोर्ट का आदेश आने के बाद कहा कि जातिगत सर्वेक्षण हर हाल में होकर रहेगा। उन्होंने कहा कि वह कोर्ट के आदेश का अध्ययन कर रहे हैं।
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माना जा रहा है कि बिहार सरकार अगली सुनवाई में कोर्ट के समक्ष अपनी तरफ से और ठोस तर्क रखेगी ताकि सर्वेक्षण से रोक हट जाए।
कौन हैं याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ताओं के तर्क, राज्य सरकार के बचाव तथा कोर्ट के आदेश के बीच यह महत्वपूर्ण बात नजरअंदाज हो गई कि आखिर वे कौन लोग हैं, जिन्होंने जातिगत सर्वेक्षण के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कोर्ट ने उनकी याचिकाओं में वजन देखा।
जातिगत सर्वेक्षण के खिलाफ दो संगठनों और कुछ व्यक्तियों ने याचिकाएं डाली थीं। जिन दो संगठनों के नाम याचिकाकर्ताओं में शामिल हैं, उनमें एक ‘यूथ फॉर इक्वेलिटी’ और दूसरा ‘एक सोच एक प्रयास’ शामिल हैं।
यूथ फॉर इक्वेलिटी एक आरक्षण विरोधी संगठन है, जो साल 2006 में अस्तित्व में आया था। इसे आईआईटी, आईआईएम, जेएनयू और कुछ अन्य प्रतिष्ठित संस्थाओं के छात्रों ने बनाया था। संस्थापकों में एक अरविंद केजरीवाल भी हैं, जो फिलहाल आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं।
यह संगठन कठोर रूप से आरक्षण के खिलाफ है और इसका मोटो है – जाति आधारित आरक्षण को ना कहिए।
पूर्व में यह संगठन आरक्षण के खिलाफ कई आंदोलन कर चुका है। साल 2019 में कौशल कुमार मिश्रा इस संगठन के अध्यक्ष हुआ करते थे, जो फिलहाल भाजपा के मीडिया पैनलिस्ट हैं।
दूसरा संगठन ‘एक सोच, एक प्रयास’ मुख्य तौर पर दिल्ली का एक एनजीओ है, जो मुख्य रूप से कानूनी मदद मुहैया कराता है। इस संगठन के सचिव अरविंद कुमार है, जो खुद भी वकील हैं। उनका मानना है कि जाति आधारित सर्वेक्षण होने के बाद जातियों की संख्या के आंकड़े सार्वजनिक होंगे, जातीय हिंसा बढ़ेगी। वह कहते हैं जिन लोगों को पहले आरक्षण का लाभ मिल चुका है, उन्हें दोबारा आरक्षण नहीं मिलना चाहिए और उनकी जगह दूसरे जरूरतमंदों को इसका लाभ दिया जाना चाहिए।
इन दो संगठनों के अलावा आधा दर्जन से ज्यादा अन्य लोग हैं, जिन्होंने याचिकाएं डाली थीं। इनमें प्रोफेसर, पूर्व नौकरशाह तक शामिल हैं, लेकिन सभी दिल्ली-उत्तर प्रदेश में रह रहे हैं। ‘मैं मीडिया’ की पड़ताल बताती है कि ये दक्षिणपंथी रुझान वाले हैं।
इन्हीं में एक हैं प्रोफेसर मक्खन लाल। वह आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) समर्थक इतिहासकार हैं और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके हैं। वह दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट के संस्थापक डायरेक्टर थे। फिलहाल, वह विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में फेलो (ऑनररी) हैं। वह अपने दक्षिणपंथी रुझान के लिए जाने जाते हैं और अक्सर मोदी सरकार के समर्थन में खड़े नजर आते हैं।
पिछले दिनों जब इतिहास की किताबों से गांधी, गोडसे से जुड़े अहम प्रसंगों को हटाने की खबरें आई थीं, तो उन्होंने सरकार का समर्थन करते हुए कहा था कि पहले गलत इतिहास पढ़ाया जाता था और अब सही कदम उठाये जा रहे हैं लेकिन यह बहुत देर से हो रहा है।
याचिकाकर्ताओं में दूसरा नाम प्रोफेसर कपिल कुमार का है। सेंटर फॉर फ्रीडम स्ट्रगल एंड डायस्पोरा स्टडी में डायरेक्टर हैं। वह मानव संसाधन विकास मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय, पर्यटन मंत्रालयों की कई कमेटियों का हिस्सा रहे हैं।
प्रो. कपिल कुमार के ट्विटर अकाउंट उनके भीतर भरे नफरत को उजागर करते हैं। एक ट्वीट में वह लिखते हैं, “पहलवान के मुद्दे में शाहीन बाग और कथित किसान आंदोलन जैसी स्थिति क्यों बनने दी जा रही है? अराजकों, गद्दारों, आतंकवादी समर्थकों को वहां क्यों जाने दिया जा रहा? मोदीजी, इसे देखें।”
Why:
A Shaheen Bagh & So called Kisan Movement situation being allowed on Pehalwans issue ?
Anarchists, traitors, terrorists supporters being allowed there ?
Chec
Check this Modi ji ,hope you have better advisers !@PMOIndia— ProfKapilKumar,Determined Nationalist (@ProfKapilKumar) May 7, 2023
एक अन्य ट्वीट में वह कहते हैं कि पूर्वोत्तर में क्यों विकास होने चाहिए? फिर वह लिखते हैं, “हमें अराजक, सिकुलर, चीन और भारत में उनकी सहयोगी पार्टियों, सीआईए, आईएसआई और आतंकवादियों को जला देना चाहिए।”
उनकी याचिका को लेकर ‘मैं मीडिया’ ने उन्हें फोन किया, तो उन्होंने कहा कि देश में जाति व्यवस्था अंग्रेजों ने लाई है। “अंग्रेजों से पहले जाति नहीं थी बल्कि अलग अलग पेशे से जुड़े लोग थे और हमारे समाज का हिस्सा थे। अंग्रेजों ने उन्हें पिछड़ी जाति में डाल दिया। अब फिर से जाति आधारित जनगणना अंग्रेजों के हाथों में खेलने के बराबर है,” उन्होंने कहा।
उन्होंने आगे कहा, “अंबेडकर ने खुद कहा था कि जाति व्यवस्था खत्म होनी चाहिए, मगर इस तरह की जनगणना से वह और बढ़ेगी, इसलिए हमने इसके खिलाफ याचिका डाली है।”
प्रोफेसर संगीत कुमार रागी तीसरे याचिकाकर्ता हैं। वह दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हैं। मुख्यधारा के टीवी चैनलों की डिबेट में उनकी नियमित मौजूदगी होती है। टीवी चैनल उन्हें अक्सर लेखक व विचारक के तौर पर पेश करते हैं, लेकिन अपने वक्तव्य में अक्सर वह भाजपा के पक्ष में बोलते हैं।
‘मैं मीडिया’ ने जब फोन कर उन्हें पूछा कि क्या उन्होंने जाति आधारित सर्वेक्षण के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में याचिका डाली थी, तो उन्होंने पूरी तरह इनकार कर दिया। इसके बाद ‘मैं मीडिया’ ने याचिका में दर्ज उनके नाम और अन्य जानकारियों का स्क्रीनशॉट उनके व्हाट्सएप पर भेजा, लेकिन उन्होंने उसका जवाब नहीं दिया और दोबारा फोन करने पर उन्होंने फोन भी नहीं उठाया।
इस साल मार्च में संगीत रागी व एक अन्य प्रोफेसर पर दिल्ली यूनिवर्सिटी में वित्तीय अनियमितता का आरोप लगा था। हालांकि, उन्होंने इन आरोपों को निराधार करार दिया था।
चौथे याचिकाकर्ता डॉ भूरेलाल दो प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में संयुक्त सचिव रह चुके हैं। वह प्रवर्तन निदेशालय के डायरेक्टर और कई मंत्रालयों में सचिव के पद पर भी रह चुके हैं। इसके अलावा सेंट्रल विजिलेंस कमीशन में भी थे।
ट्रांसजेंडर याचिकाकर्ता का क्या कहना है
इसके अलावा ट्रांसजेंडर समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रही रेशमा प्रसाद ने भी जाती आधारित सर्वे के खिलाफ याचिका डाली थी।
उनका कहना है कि जाति आधारित सर्वे हो या न हो, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं लेकिन, उनकी आपत्ति इस सर्वेक्षण में उन्हें ओबीसी मानने से है।
“ट्रांसजेंडर एक वर्ग है जो सामाजिक और आर्थिक तौर बेहद पिछड़ा है, उसे सरकार ने जाति आधारित सर्वे में ओबीसी बना दिया गया है। ट्रांसजेंडर दलित हो सकते हैं, ओबीसी हो सकते हैं और ऊंची जाति के भी हो सकते हैं, लेकिन सभी को ओबीसी में डाल देना गलत है। हमारी आपत्ति इसी को लेकर है,” रेशमा प्रसाद ने कहा।
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पिछड़ों के लोग ही गाली और लात के पात्र हैं अगर पिछड़े और दलित ठीक रहते तो उनके लिए जो गालियां रामायण और अन्य ग्रंथों में लिखा गया है वह नहीं लिखा जाता। अगर ये दोगलापन छोड़ कर एक बार सिर्फ जाति गणना का बिरोध करने वाले सवर्णों को वोट नहीं देंगे तो उसके बाद किसी की औकात नहीं है कि सर उठाकर बात कर सके।जय श्रीराम।