मनवीर आलम छोटे किसान हैं। उनके पास लगभग 6 बीघा जमीन है। उन्होंने ड्रैगन फ्रूट (Dragon Fruit) की खेती के बारे में सुना है, लेकिन इसमें आनेवाली लागत इतनी ज्यादा है कि चाहकर भी वह इसकी खेती नहीं कर पाएंगे।
“हमलोग छोटे किसान हैं। उतना पैसा कहां से लाएंगे ड्रैगन फ्रूट की खेती करने के लिए,” मनवीर कहते हैं।
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सीमांचल के किशनगंज जिले के दीघलबैंक प्रखंड के दरगाह बस्ती निवासी 25 वर्षीय मनवीर मुख्य रूप से मक्का, धान, गेहूं और जूट की खेती करते हैं। वह कहते हैं, “इन फसलों को बेचकर जो पैसा आता है, उसे ही दूसरे सीजन की खेती में लगा देते हैं। ड्रैगन फ्रूट की खेती करने का मतलब है लाखों रुपए का निवेश।”
ड्रैगन फ्रूट एक तरह का फल है, जो गुलाबी और सफेद दो रंगे में होता है। यह दक्षिणी मैक्सिको और मध्य अमरीका का स्थानीय फल है। कुछ जगहों पर इसे कीवीफ्रूट भी कहा जाता है। पिछले दिनों इस फल के नाम को लेकर विवाद भी हुआ था, जब गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने कमल की तरह दिखने के कारण इस फल का नाम कमलम करने की घोषणा की थी।

ड्रैगन फ्रूट की खेती अभी विश्व के आधा दर्जन से अधिक देशों में की जा रही है। भारत में भी पिछले डेढ़-दो दशकों में दक्षिण भारत के राज्य समेत गुजरात, महाराष्ट्र में इसकी खेती होने लगी है।
भारत सरकार ने इसी साल जुलाई में देश में ड्रैगन फ्रूट की खेती का रकबा बढ़ाकर 50000 हेक्टेयर करने की घोषणा की। केंद्रीय कृषि सचिव मनोज अहूजा ने एक कार्यक्रम में कहा था कि इस फल में पौष्टिक तत्व अधिक होने के चलते राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय बाजारों में इसकी मांग काफी अधिक है और अगले पांच वर्षों में इसका रकबा बढ़ाकर 50,000 हेक्टेयर करने का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। उन्होंने कहा था कि राज्यों को ड्रैगन फ्रूट की खेती में इस्तेमाल के लिए गुणवत्तापूर्ण सामान उपलब्ध कराने में केंद्र सरकार मदद करेगी।
बिहार में फिलहाल किशनगंज में कुछ ही किसान ड्रैगन फ्रूट की खेती कर रहे हैं। कृषि विभाग के सूत्रों के मुताबिक, किशनगंज में फिलहाल लगभग 8 हेक्टेयर में ड्रैगन फ्रूट की खेती हो रही है। लेकिन, जो किसान इसकी खेती कर रहे हैं, उनका अनुभव बहुत उत्साहपूर्ण नहीं है।
बाजार की समस्या, दाम भी कम
किशनगंज के ठाकुरगंज के किसान नागराज नखट पिछले 6-7 साल से ड्रैगन फ्रूट की खेती कर रहे हैं, लेकिन वह सरकार के असहयोग, बाजार की दिक्कत और दाम कम मिलने की समस्याओं से जूझ रहे हैं।
वह कहते हैं, “हमलोग बड़े किसान हैं। अपनी गाड़ी है, लेकिन फिर भी कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।”
ड्रैगन फ्रूट की खेती के लिए सबसे पहले खेतों में पक्का पिलर डालना होता है और उस पर टायर लगाना होता है। टायर के बीच में ड्रैगन फ्रूट का पौधा लगाया जाता है।
एक एकड़ में ड्रैगन फ्रूट के लगभग दो हजार पौधे लगते हैं। दो हजार पौधे की खरीद में करीब दो लाख रुपए खर्च होते हैं। इसके अलावा एक एकड़ में पक्का पिलर बनाने में भी दो लाख रुपए लग जाते हैं। इसके अलावा खाद, पौधे लगाने में मजदूरी व अन्य चीजों पर लगभग एक लाख रुपए खर्च होते हैं। यानी कि एक एकड़ में ड्रैगन फ्रूट की खेती शुरू करने के लिए लगभग पांच लाख रुपए खर्च होते हैं।
“फिर हमें पौधों की गहन निगरानी भी करनी होती है क्योंकि चोरी हो जाने का डर बना रहता है,” नागराज नखट बताते हैं।

इतना निवेश करने के बाद भी ड्रैगन फ्रूट का बाजार इतना अनिश्चित है कि उनका माल कई बार बिकता नहीं है और बिकता भी है, तो कीमत सही नहीं मिलती है।
“किशनगंज शहर के मार्केट में खपत नहीं है, सिलीगुड़ी जाना पड़ता है। चूंकि हमारे पास अपनी गाड़ी है, तो फल को मार्केट तक आसानी से पहुंचा देते हैं, लेकिन वहां दूसरे राज्यों के भी फल आते हैं, जो हमारे फलों के मुकाबले बड़े आकार के होते हैं, तो हमारे फल को अच्छी कीमत नहीं मिलती है। वहीं आम के सीजन में ड्रैगन फ्रूट का बाजार एकदम गिर जाता है, क्योंकि लोग आम खाना ज्यादा पसंद करते हैं,” वह कहते हैं।
ड्रैगन फ्रूट की खेती करने वाले एक अन्य किसान राधे कृष्ण कहते हैं, “यहां स्थानीय स्तर पर बड़ा बाजार नहीं है। किशनगंज शहर में थोड़ी बहुत बिक्री होती है और इसके बाद हमें सिलीगुड़ी जाना पड़ता है। सिलीगड़ी में दक्षिण भारतीय राज्यों से भी फल आते हैं, जिनकी क्वालिटी हमसे बेहतर होती है, तो वे अच्छी कीमत ले लेते हैं, मगर हमें अच्छी कीमत नहीं मिलती है।”
“दूसरी बात यह है कि आम लोगों में भी इस फल को लेकर बहुत जानकारी नहीं है। कुल आबादी में 10-15 प्रतिशत लोगों को ही ड्रैगन फ्रूट के बारे में मालूम है, यह भी एक वजह है कि लोकल मार्केट में डिमांड नहीं है,” वह कहते हैं।
जानकार बताते हैं कि ड्रैगन फ्रूट के एक पौधे से 20 साल तक फल लिया जा सकता है। दूसरी बात कि इसका इनफ्रास्ट्रक्चर पक्का होता है, तो हर साल इस पर भी कोई खर्च नहीं होता, लेकिन हर साल इन पौधों के रखरखाव, खाद, पानी आदि पर एक लाख रुपए खर्च हो ही जाते हैं।
नागराज नखट ने कहा, “बाजार की तो हालत यह है कि मुझे 50 रुपए किलो तक में ड्रैगन फ्रूट बेचना पड़ा है जबकि लागत खर्च ही 100 रुपए प्रति किलोग्राम होता है।”
नखट का कहना है कि अगर इस फ्रूट की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना है, तो सरकार को मार्केट विकसित करना होगा और साथ ही किसानों को आर्थिक मदद देनी होगी। इसके अलावा फ्रूट को लेकर रिसर्च भी होना चाहिए।
लागत 12.5 लाख, सरकारी सब्सिडी 65000 रुपये
बिहार सरकार ने भी पिछले दिनों घोषणा की कि वह ड्रैगन फ्रूट की खेती करने वाले किसानों को लागत खर्च का 50 प्रतिशत हिस्सा बतौर सब्सिडी देगी। सरकार ने अनुमान लगाया है कि एक हेक्टेयर में लगभग 1.25 लाख रुपए लागत आती है। एक हेक्टेयर में लगभग ढाई एकड़ होता है। किसानों की मानें, तो एक एकड़ में ही शुरुआती लागत लगभग 5 लाख रुपए है, लेकिन सरकार एक हेक्टेयर यानी ढाई एकड़ की लागत महज 1.25 लाख रुपए बता रही है।
“सरकार कहती है कि ड्रैगन फ्रूट की खेती करने वाले किसानों को लागत का 50 प्रतिशत बतौर सब्सिडी देगी। मैंने 30 लाख रुपए खर्च कर 5 एकड़ में ड्रैगन फ्रूट की खेती शुरू की, लेकिन मुझे सब्सिडी के नाम पर महज 24 हजार रुपए मिले। सरकार की सब्सिडी और आर्थिक मदद हवाहवाई है,” उन्होंने कहा।
ड्रेगन फ्रूट के साथ सिर्फ बाजार की दिक्कत नहीं है, बल्कि फल की गुणवत्ता भी किशनगंज में वैसी नहीं है।
शुरुआती दौर में ड्रैगन फ्रूट का आकार कुछ बड़ा था, लेकिन इन दिनों इसका आकार काफी छोटा हो गया है, लेकिन नागराज नखट को सरकारी कृषि जानकारों से कोई मदद नहीं मिली। वह कहते हैं, “दूसरे राज्य से जो ड्रैगन फ्रूट आता है, उसका आकार बड़ा होता है। सिर्फ चार फल का वजन एक किलोग्राम हो जाता है, जिस वजह से उन्हें अच्छी कीमत मिल जाती है। हमारे खेत में अभी ड्रैगन फ्रूट इतना छोटा आ रहा है कि एक किलोग्राम में 7-8 फल चढ़ते हैं। जब मैंने फल छोटा होने को लेकर कृषि विज्ञान केंद्र से पूछा, तो उन्होंने कहा कि उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं है।”
कृषि विभाग से जुड़े एक अधिकारी ने स्वीकार किया कि इस बार ड्रैगन फ्रूट का आकार छोटा हुआ है। उन्होंने कहा कि बाहर से विशेषज्ञों को बुलाकर ड्रैगन फ्रूट के किसानों के साथ एक वर्कशॉप कराया जाएगा, ताकि इस समस्या का समाधान किया जा सके।
नागराज नखट बिहार के पहले किसान थे, जिन्होंने साल 2014 में ड्रैगन फ्रूट की खेती शुरू की थी। लेकिन, इस फल को लेकर मनवीर आलम जैसे आम किसानों में कोई उत्साह नहीं है। यही वजह है कि ड्रैगन फ्रूट जैसे विदेशी फलों के उत्पादन में बिहार किसी आंकड़े में नहीं है।

केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने इस साल 26 जुलाई को लोकसभा में एक सवाल के जवाब में उन राज्यों की सूची और उनका रकबा तथा उत्पादन का आंकड़ा जारी किया था, जहां ड्रैगन फ्रूट, कीवी और पैशन फ्रूट आदि विदेशी फलों की खेती की जा रही है। 17 राज्यों की इस सूची में बिहार नहीं था।
आंकड़े यह भी बताते हैं कि विदेशी फलों के उत्पादन क्षेत्र के विस्तार और पौधे से जुड़े मैटेरियल को विकसित करने के लिए केंद्र सरकार ने बागवानी विकास मिशन के तहत बिहार की फंडिंग कम कर दी गई। साल 2020-2021 में केंद्र सरकार ने इस स्कीम के तहत 15.87 करोड़ रुपए दिये थे, जो साल 2021-2022 में 40 प्रतिशत घटकर 9.6 करोड़ हो गये।

डॉ कलाम एग्रीकल्चरल कॉलेज के प्रो. डीपी साहा मार्केट की समस्या और फलों के सीजन में ड्रैगन फ्रूट की मांग में गिरावट की बात स्वीकार करते हैं। “ये समस्याएं तो ड्रैगन फ्रूट के साथ हैं। यह फल जल्दी खराब भी हो जाती है, तो ऐसे में बेहतर विकल्प यह हो सकता है कि इस फल की प्रोसेसिंग कर जेली व अन्य उत्पाद बनाया जाए। इससे फल के खराब होने का खतरा नहीं रहेगा और डिमांग भी बढ़ेगी,” उन्होंने कहा।
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