दीपावली का त्यौहार करीब आते ही कुम्हार मिट्टी का दीया बनाने में लग जाते हैं और यही वह समय होता है जब उनके सामान की सबसे ज्यादा बिक्री होती है। लेकिन, पिछले कुछ सालों से बाजार में चाइनीज झालरों की मांग बेतहाशा बढ़ गई है जबकि मिट्टी के दीए की मांग लगातार कम होती जा रही है।
मैं मीडिया की टीम ने अररिया के गाछी टोला स्थित कुम्हारों से बात कर उनके रोजगार के हालात जानने की कोशिश की।
यहां के कुम्हारों ने बताया कि वे लोग पांच पीढ़ी से यहां रहकर मिट्टी के बर्तन बना रहे हैं। पहले दीपावली के मौके पर तीन से चार लाख दीया बनाकर बेचा करते थे, लेकिन पिछले कुछ सालों से इनकी बिक्री काफी कम हो गई है।
कुम्हार अशोक पंडित बताते हैं कि जब से मार्केट में चाइनीज लाइट्स आई है तब से ग्राहक उनके दीयों को सही दाम नहीं देते हैं। ग्राहक तो समझदार होते हैं लेकिन हम सबको बेवकूफ बना कर चले जाते हैं।
मार्केट में भले ही मिट्टी के बाकी बर्तनों की मांग कम हो गई है, लेकिन चाय की कुल्हड़ अब भी ग्राहकों की पसंद है, इसलिए कुम्हारों ने दीये की जगह मिट्टी का कुल्हड़ बनाना शुरू कर दिया है।
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प्रमिला देवी बताती हैं कि बाजार में मिट्टी के बर्तनों की मांग बहुत कम हो गई है जिससे उनके बर्तनों के दाम भी कम मिलते हैं। अब वह चाहती हैं कि उनकी अगली पीढ़ी पढ़ लिखकर आगे बढ़े न कि उनकी तरह कष्ट ना उठाए।
युवा कुम्हार खुशीलाल पंडित, आज की पीढ़ी को मिट्टी के बर्तनों और दीपावली के दीए का फायदा बताते हुए उनसे दीए का इस्तेमाल करने की अपील करते हैं।
दरअसल, जब हम मार्केट से बिजली से चलने वाले लाइट्स खरीदते हैं, तो उनका पैसा बड़ी-बड़ी कंपनियों के खाते में जाता है, लेकिन अगर हम मिट्टी से बने दीए का इस्तेमाल करते हैं, तो इसका पैसा एक गरीब कुम्हार के घर में जाता है और हमारे साथ साथ उसका घर भी रोशन होता है।
अगर इसे आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो चाइनीज लाइटों की तुलना में हमारे देश के गरीब व निम्न माध्यमिक वर्ग के लिए यह व्यापार काफी बेहतर विकल्प है।
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