बिहार में लगभग पांच सालों के बाद वापस जदयू और राजद की महागठबंधन सरकार बन गई है। 243 सदस्यों वाले बिहार विधानसभा में इस सरकार को सात पार्टी और एक निर्दलीय मिलाकर 164 विधायकों का समर्थन प्राप्त है, जिसमें लेफ्ट की तीन पार्टियों के कुल 16 विधायक भी शामिल हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन CPI(ML)L यानी भाकपा- माले के 12, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी CPI(M) के 2 और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी CPI के 2 विधायक शामिल हैं।
लेकिन, सरकार में शामिल होने के बावजूद लेफ्ट पार्टियों का बिहार में एक भी मंत्री नहीं है। जानकारों का मानना है कि उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भाकपा माले नेता और कटिहार के बलरामपुर से विधायक महबूब आलम को मंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी पार्टी ने मंत्री पद लेने से इनकार कर दिया।
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महबूब आलम ने एक इंटरव्यू में कहा है, ‘हमने सरकार को समर्थन दिया है, हम सिग्नेचरी हैं इस बार। सरकार बनाने में हमारी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हमारी भूमिका एक आर्किटेक्ट की भूमिका है।’ वो आगे कहते हैं, हमारे 12 विधायक हैं और हम सरकार को प्रभावित करने की हालत में नहीं हैं.’
भाकपा-माले का यह फैसला देश में लेफ्ट पार्टियों यानी वामपंथी दलों के पुराने इतिहास को दोहरा रहा है। CPI और CPI(M) ने समय-समय पर घोषणा की है कि वे गठबंधन सरकार में भाग नहीं लेंगे बल्कि बाहरी समर्थन देंगे।
देश के इतिहास में इसका सिर्फ एक अपवाद 1996 में देखने को मिला जब एच० डी० देव गौड़ा के नेतृत्व में बनी United Front यानी संयुक्त मोर्चा सरकार में CPI के नेता इंद्रजीत गुप्ता और चतुरानन मिश्रा मंत्री बने। और फिर 1997 में जब इन्द्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने, तो CPI के दोनों नेता मंत्री बने रहे।
हालांकि 1996 में भी केंद्र में लेफ्ट की सबसे बड़ी पार्टी CPI(M) थी। CPI(M) के पास 32 सांसद और CPI के पास सिर्फ 12 सांसद थे। फिर भी CPI(M) के नेता ज्योति बसु को तब उनकी पार्टी ने प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया।
The Print में छपी एक खबर के अनुसार, 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनों की अल्पकालिक सरकार के बाद ज्योति बसु संयुक्त मोर्चा के सर्वसम्मत नेता थे, लेकिन CPI(M) ने सरकार में भाग नहीं लेने का फैसला किया। इस निर्णय को ज्योति बसु और लेफ्ट के अन्य नेताओं ने बाद में “ऐतिहासिक भूल” करार दिया।
हालांकि महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत सहित पार्टी के शीर्ष नेता, बसु के शीर्ष पद लेने के पक्ष में थे। लेकिन, अन्य नेता जैसे वी.एस. अच्युतानंदन, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी और ई.के. नयनार ने इसका विरोध करते हुए तर्क दिया कि चूंकि CPI(M) के पास केवल 32 सांसद हैं, इसलिए यह पर्याप्त ताकत नहीं होगी।
हालांकि, CBI के पूर्व निदेशक और बंगाल के डीजीपी अरुण प्रसाद मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा Unknown Facets of Rajiv Gandhi, Jyoti Basu, Indrajit Gupta में लिखा है राजीव गांधी 1990 और 1991 में भी ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे।
वर्तमान में, देश में सिर्फ एक राज्य केरल में वामपंथी दलों की सरकार है और एक अन्य राज्य त्रिपुरा में लेफ्ट मुख्य विपक्ष है। पश्चिम बंगाल, जो कभी लेफ्ट का गढ़ हुआ करता था, आज वहां पार्टी के पास एक भी विधायक या सांसद नहीं हैं। ऐसे में गठबंधन सरकार में सीधा शामिल नहीं होने का ये तरीका लेफ्ट पार्टियों को सवालों के घेरे में खड़ा करता है।
भारत में, वामपंथी दलों को मुख्य रूप से दलितों, अनुसूचित जनजातियों, अति पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के वोट मिलते हैं। बिहार में भाकपा माले को मुख्य रूप से सीवान, भोजपुर, आरा और कटिहार में रहने वाले इन समुदायों से वोट मिलते हैं।
भाकपा माले के विधायकों की सामाजिक रूपरेखा भी इसका संकेत है। लेकिन इन समुदायों का सरकार में हमेशा अपर्याप्त प्रतिनिधित्व होता है। हो भी तो बड़े मंत्रालय इनके पास कम ही होते हैं। सरकार में शामिल होने से वाम दलों को सरकार में इन समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने का मौका मिलता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
बिहार सरकार के वर्तमान नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव मंत्रिमंडल ही देखें, तो अल्पसंख्यक नेताओं को गन्ना, आपदा प्रबंधन, Information Technology, अल्पसंख्यक कल्याण और पशु व मत्स्य संसाधन जैसे विभाग दिए गए हैं। लेकिन अगर भाकपा माले सरकार में शामिल होती, तो विधानसभा में उनके नेता महबूब आलम को किसी बड़े विभाग की ज़िम्मेदारी मिल सकती थी।
लेकिन माले ने कैबिनेट से दूर रहना चुना और इस फैसले को पार्टी के संविधान से जस्टिफाई किया जा सकता है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन का संविधान गठबंधन व समझौते के खिलाफ है और संभवतः इसी संविधान का पालन करते हुए माले ने कैबिनेट का हिस्सा बनने से इनकार किया होगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन की आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद पार्टी के संविधान के CHAPTER III Article 11.1 में लिखा है – पार्टी संगठन और इसका आंतरिक जीवन लोकतांत्रिक केंद्रवाद के सिद्धांत पर आधारित है। यह संगठन नौकरशाही, उदारवाद, अराजकतावाद, व्यक्तिवाद, अति-लोकतंत्र और गुटवाद के खिलाफ है। पार्टी एक अखंड संगठन है और इसकी एक ही इच्छा है। पार्टी मानती है कि समूहों और गुटों का संघ नहीं होना चाहिए जो एक दूसरे के साथ अनुबंध व अस्थायी गठबंधन या समझौते करते हैं।
माले के कैबिनेट का हिस्सा नहीं बनने के फैसले पर अलग अलग तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिली है। कुछ लोगों ने इसकी सराहना की, तो कुछ लोगों ने तीखी आलोचना की। माले के हार्डकोर समर्थकों ने तो मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होने की सूरत में पार्टी छोड़ने की धमकी दे दी थी। मगर इसके बावजूद पार्टी कैबिनेट का हिस्सा नहीं बनी, जो पार्टी की अपने संविधान के प्रति कमिटमेंट को दर्शाता है।
मगर, पार्टी के इस रिजिड रवैये से सवाल भी उठता है। सवाल यह है कि यह देश जिस संविधान से चल रहा है, उस संविधान में जब समय समय पर जरूरत के मुताबिक संशोधन हो चुका है, तो पार्टी के संविधान में बदलाव क्यों नहीं हो सकता?
तमाम सियासी पार्टियां समय के मुताबिक अपने विचारों में लचीलापन लाती रही हैं, तो फिर लेफ्ट की पार्टियां और खासकर माले क्यों ऐसी जरूरत महसूस नहीं करता?
मौजूदा वक्त में काफी कुछ बदल चुका है। रणनीतियां बदली हैं, राजनीति भी बदली है। आज भले ही माले के स्टैंड की तारीफ की जा रही है, लेकिन पार्टी को यह समझने की भी जरूरत है कि सिर्फ विपक्ष की भूमिका निभाकर लोगों का भला नहीं हो सकता है। कैबिनेट का हिस्सा बनकर कारगर काम किया जा सकता है।
ऐसे में लेफ्ट के लिए अब आत्मचिंतन का समय है। कहीं ऐसा न हो कि पार्टी के संविधान को लेकर रिजिडिटी उससे एक और ऐतिहासिक ब्लंडर करवा दे।
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