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“यहाँ हमारी कौन सुनेगा” दिल्ली में रह रहे सीमांचल के मज़दूरों का दर्द

आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा जारी किए गए आंकड़ों की मानें, तो किशनगंज में 2020 तक पंजीकृत मज़दूरों की संख्या 39,244 थी लेकिन कोरोना वायरस के चलते लगे लॉकडाउन के बाद राज्य वापस लौटने वाले मज़दूरों की अनुमानित संख्या 56,320 बताई गई थी।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
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a youth in a kitchen

उत्तर दिल्ली लोकसभा क्षेत्र अंतर्गत कड़कड़डूमा के आर्यनगर में चॉल नुमा बिल्डिंग के एक कमरे में 6 लोग रहते हैं। ये सभी लोग किशनगंज जिले से ताल्लुक रखते हैं और दिल्ली में मज़दूरी कर अपनी रोज़ी कमाते हैं। उन्हीं में से एक हैं मोहसिन रज़ा। मोहसिन किशनगंज के बहादुरगंज प्रखंड स्थित डाला मोहिद्दीनपुर गांव के रहने वाले हैं। मोहसिन ने ‘मैं मीडिया’ से बातचीत में बताया कि वह पिछले 11 वर्षों से दिल्ली में काम कर रहे हैं। आजकल वह बिल्डिंग की छतों पर वाटरप्रूफिंग का काम करते हैं।


आर्यनगर जब हम मोहसिन से मिलने उनकी रिहाइश पर पहुंचे, तो देखा कि वह काम से लौट कर खाना बनाने की तैयारी कर रहे थे। छोटे से कमरे के बाहर कॉरिडोर पर एक मेज़ पर रखे गैस चूल्हे पर रात का खाना चढ़ा हुआ था। मोहसिन ने बताया कि वह रोज़ाना सुबह 8 बजे काम पर निकल जाते हैं और 7 बजे शाम तक घर लौटते हैं।

उन्होंने यह भी बताया कि आर्यनगर के इस छोटे से इलाके में सीमांचल और खास कर किशनगंज के कई राज मिस्त्री और मज़दूर रहते हैं। अक्सर लोग सस्ते कमरों की तलाश में इधर आते हैं और चूँकि यह जगह आनंद विहार बस अड्डे के करीब है, तो यहाँ से आने जाने में आसानी रहती है।


“बिहार में रोज़गार होता, तो दिल्ली आकर धक्के नहीं खाते”

26 वर्षीय मोहसिन बताते हैं कि बिहार में रोज़गार न होने से उन जैसे लाखों मज़दूरों का जीवन बेहद कठिनाइओं के साथ गुज़रता है।

“हमलोगों के साथ लगभग रोज़ाना ही कोई न कोई घटना होती है। कभी मालिक पैसे देने में आनाकानी करता है, तो कभी कुछ और। हमारे साथ डेली परेशानी है। सुबह 8 बजे निकलते हैं, बस में भीड़ इतनी रहती है कि कहने की बात नहीं। यहाँ बहुत दिक्कत है।”

“अगर हमारे बिहार में रोज़गार होता तो हमें यहाँ आना नहीं पड़ता। यहाँ आये हैं काम करने के लिए, परिवार चलाने के लिए। यहाँ हम लोगों का कौन सुनेगा।” मोहसिन बोले।

मोहसिन रज़ा का कहना है कि उन जैसे सभी दिहाड़ी मज़दूरों को बीमार होने पर भी काम पर जाना पड़ता है। एक दिन की भी छुट्टी नहीं मिलती है।

मोहसिन कहते हैं, “बीमारी हो गए और काम पर नहीं गए, तो दिहाड़ी कट जाती है। बीमार होने से बहुत मुसीबत होती है। इलाज में काफी पैसा खर्च हो जाता है। घर तो घर होता है। अगर वहां रोज़गार होता तो वहीँ पर काम करते, यहाँ आकर धक्के नहीं खाना पड़ता।”

उन्होंने आगे कहा, “बिहार सरकार अगर बिहार में ही रोज़गार दे देती, फैक्ट्री लगाती या और कुछ बना देती, तो बिहार में ही काम करते। हमारे किशनगंज में जो लोग अपने घर बनवा रहे हैं, उसमें तो कुछ ही लोगों को रोज़गार मिल सकता है। इतनी आबादी में उतने से कुछ नहीं होगा। कोई बड़ी फैक्ट्री बनती या ऐसा कुछ बड़ा काम होता, तब हमलोग को भी वहां रोज़गार मिलता। यह तो नीतीश कुमार को चाहिए के (इसके लिए) कुछ करें।”

मोहसिन ने सीमांचल में शिक्षा व्यवस्था के बारे में कहा कि जिनके पास पैसा है, वे अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हैं। जिनके पास पैसा नहीं, उनके बच्चे सरकारी स्कूल में जाते हैं।

“जिसके पास पैसे नहीं हैं, उसके बच्चे घूम रहे हैं। सरकारी स्कूल में पढाई होती कहाँ है। जब बच्चे थोड़े बड़े होते हैं, तो बाहर कमाने निकल जाते हैं। इसी लिए तो बिहार इतना पीछे है अभी। दिल्ली में महंगाई बहुत है, लेकिन हमलोगों का रेट बहुत कम है। सरकार से अब क्या मांग करें, अगर हमारे बिहार में रोज़गार हो जाता, तो हमको परदेस आना नहीं पड़ता। जब वापस किशनगंज जाते हैं, तब लगता है सब पहले ही जैसा है, वहां कुछ चेंज ही नहीं होता,” मोहसिन ने मुस्कुराते हुए कहा।

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मोहसिन के साथ काम करने वाले मंज़र आलम भी किशनगंज के बहादुरगंज प्रखंड के डाला मोहिद्दीनपुर से ताल्लुक रखते हैं। उन्होंने बताया कि वह दिल्ली में 2005 से काम कर रहे हैं। आजकल वह भी मोहसिन की तरह वाटर प्रूफिंग का काम करते हैं। मंज़र कहते हैं कि दिल्ली में काम के दौरान आए दिन कुछ न कुछ घटना होती रहती है।

मंज़र ने कहा, “अक्सर ऐसा होता है कि काम करवाने के बाद पार्टी पैसा देने में बेईमानी करती है और कई बार पैसा नहीं देती है। यह सब तो एकदम नॉर्मल है हमलोग के लिए। यहां कोई सुनने वाला नहीं है। हमारे बिहार में तो रोज़गार ही नहीं है, बिहार सरकार सुन कहाँ रही है। रोज़गार नहीं है, सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती है, बैंक जाओ तो जल्दी बैंक से पैसा नहीं निकलता है। पैसा निकालने के लिए मिनी ब्रांचे वाले को अलग से पैसा देना पड़ता है। जो बड़े आदमी हैं, उनका सेटिंग है, जो गाँव का लोग जाता है बैंक में, उनकी कोई सुनवाई नहीं है।”

उन्होंने आगे कहा, “बिहार सरकार चाहे तो बिहार में भी रोज़गार ला सकती है। फैक्ट्री खोल सकती है, वहाँ तो जगह भी है। हमलोग यहाँ पास में कमरा लेकर रहते हैं। एक छोटे रूम में 4 लोग रहते हैं। दिक्कतें बहुत हैं। बिहार में शिक्षा व्यवस्था भी सही नहीं है। जो स्कूल है, वहां ठीक से पढ़ाई नहीं होती और हमारे पास इतना बजट नहीं है कि बच्चे को यहाँ लाकर पढ़ा सकें।”

बहादुरगंज प्रखंड के चंदवार पंचायत स्थित कटहलबाड़ी गांव के रहने वाले अकबर आलम भी वाटरप्रूफिंग का काम करते हैं और वह पिछले 12 सालों से दिल्ली में रह रहे हैं।

migrant labours

उन्होंने कहा कि दिल्ली में काम के पेमेंट को लेकर बहुत दिक्कतें आती हैं। उन्होंने बताया कि सीमांचल के हज़ारों मज़दूर निर्माण क्षेत्र में काम करते हैं। उनमें से अक्सर मज़दूरों को न्यूनतम वेतन पर काम करना पड़ता है।

“बिहार में बिलकुल रोज़गार नहीं है, सरकार को रोज़गार के लिए काम करना चाहिए ताकि लोग वहीँ रहकर काम करें। सरकार चाहे तो बहुत सारे काम कर सकती है। यहाँ बहुत सारी दिक्कतें हैं, रूम की दिक्कत है, काम की दिक्कत हैं, पेमेंट की दिक्कत है,” अकबर आलम ने कहा।

प्रवासी मज़दूर के बारे में क्या कहते हैं आंकड़े

आईसीएआर रिसर्च काम्प्लेक्स संस्था से जुड़े शोधकर्ताओं ने साझा तौर पर ”कोविड -19 के कारण बिहार में प्रवासी मजदूरों की वापसी” नाम से एक शोधपत्र जारी किया जिसके आंकड़ों के अनुसार, बिहार में 52% प्रवासी मज़दूर निर्माण क्षेत्र में काम करते हैं।

इसी शोध पत्र में बिहार राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों का ज़िक्र है। इनमें सबसे अधिक पंजीकृत मज़दूरों में बिहार के सभी 38 जिलों में सीमांचल के 3 जिले टॉप 10 में बताए गए हैं। इनमें कटिहार बिहार के सबसे अधिक पंजीकृत मज़दूरों की लिस्ट में दूसरे नंबर पर आता है। अररिया 8वें नंबर पर है जबकि पूर्णिया 9वें स्थान पर‌ और किशनगंज इस सूची में 13वें स्थान पर है।

किशनगंज में 2020 तक पंजीकृत मज़दूरों की संख्या 39244 थी लेकिन कोरोना वायरस के चलते लगे लॉकडाउन के बाद राज्य वापस लौटने वाले मज़दूरों की अनुमानित संख्या 56,320 बताई गई थी।

आईसीएआर रिसर्च के इस शोध पत्र के अनुसार भारत के ‘ब्लू काॅलर जॉब’ के क्षेत्र में बिहार के प्रवासी मज़दूर का योगदान 12% का है। इनमें से सबसे अधिक मज़दूर बैंगलोर (40%) , हैदराबाद (14%) और दिल्ली (12%) जाते हैं।

इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर पॉपुलेशन साईन्सेज़ (आईआईपीएस) ने 2020 में बिहार के 36 अलग-अलग गांवों में करीब 2300 परिवारों का सर्वे किया था। सर्वे में पाया गया कि बिहार में लगभग 50% परिवार प्रवास से प्रभावित थे। यानी परिवार का कोई सदस्य बाहर काम करने गया हुआ था। इस सर्वे में प्रवासी कामगारों की औसत आयु 32 वर्ष बताई गई थी। यह सर्वे कोरोना वायरस के प्रकोप से पहले किया गया था।

कैमरे पर बोलने से कतराते दिखे कुछ युवा मज़दूर

हम दिल्ली के कड़कड़डूमा स्थित आर्य नगर के चॉलनुमा रिहाइशों में रह रहे मोहसिन जैसे कई मज़दूरों से मिले। उनमें अधिकतर सीमांचल के किशनगंज के बहादुरगंज प्रखंड के थे। उन प्रवासी मज़दूरों में हमने दो 20-21 सालों के युवाओं से भी बात की। उन्होंने कहा कि हमलोगों को बचपन से ही पता था कि बाहर जाकर काम करना है इसलिए बचपन में पढ़ाई के बारे में ज़्यादा ख्याल नहीं किया। हमने उन दोनों युवाओं से कैमरे पर बात करने को कहा पर उन्होंने मना कर दिया। उनमें से एक ने कहा, “अपनी लाइफ में सब बढ़िया हैं, काम करना है और क्या , सरकार को कहाँ फुर्सत के यह (वीडियो) बैठके देखे। हमको मीडिया में नहीं आना है, हमको उतना बोलना नहीं आता।”

मोहसिन के कमरे में मौजूद बाकी लोग भी निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले थे। उन्होंने भी बात करने से मना कर दिया। “हमारे यहाँ किशनगंज में यही दिक्कत है। खासकर हमारे सुरजापुरी लोग बोलने से बहुत डरता है। कुछ बोलना नहीं चाहता। जैसे है उसी हाल में रहना चाहता है। जब तक बोलेंगे नहीं तो कौन सुनेगा,” मोहसिन ने कहा।

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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