किशनगंज जिले में स्थित फिशरीज कॉलेज इन दिनों महानंदा नदी में पाई जाने वाली मछलियों की विभिन्न प्रजातियों पर काम कर रहा है और अब तक के शोध में नदी में मछलियों की 40 से अधिक प्रजातियों की पहचान की जा चुकी है।
बिहार पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के अंतर्गत चल रहे इस कॉलेज के डीन डॉ वेद प्रकाश सैनी ने कहा, “हमलोगों ने अब तक के शोध में 47 प्रजातियों का पता लगाया है और इसको लेकर विस्तृत जानकारी जुटाई है।”
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इन प्रजातियों की डीएनए सिक्वेंसिंग की जा रही है और साथ ही जीन बैंक भी तैयार किया जा रहा है ताकि किसी प्रजाति के विलुप्त हो जाने पर उसे दोबारा जीवित किया जा सके।
सैनी ने कहा कि आने वाले समय में और भी नदियों को लेकर शोध कि या जाएगा ताकि यह पता लगाया जा सके कि किस नदी में मछलियों की कौन-कौन सी प्रजातियां मौजूद है। इसकी मदद से हम नदियों की जैवविविधता का भी पता लगा सकेंगे। महानंदा नदी में पाई जाने वाली मछलियों की अब तक जिन प्रजातियों की शिनाख्त हुई है, उनमें चेलवा, कौआ मछली, सिधरी, रोहू, पतुकारी, नामाची, तिनकाटी, करौछी, पतासी, गैंची, बुल्ला, कवई, टेंगरा, तारबेकि, बाम, डिंडा, कंचनपुटी, गिरई, गूंच, लाल खोलीशा आदि शामिल हैं।

अन्य नदियों की मछलियों पर भी शोध
अगली कड़ी में कॉलेज की तरफ से कोसी नदी में पाई जाने वाली मछलियों पर भी शोध किया जाएगा। शोध कार्य तेज गति से हो, इसके लिए चलंत प्रयोगशालाओं का इस्तेमाल किया जाएगा। कॉलेज सूत्रों ने बताया कि इसके लिए 10 करोड़ रुपए आवंटित हो चुके हैं।
उल्लेखनीय हो कि बिहार की नदियों और तालाबों में वे मछलियां ही पाई जाती हैं, जो मीठे पानी में जीवित रहती हैं क्योंकि बिहार किसी भी महासागर से सटा हुआ नहीं है। हाल के वर्षों में जलाशयों के पाटे जाने और गंगा नदी व उसकी सहायक नदियों में प्रदूषण के चलते मछलियों की कई प्रजातियां खत्म हो गई हैं।
तिलका मांझी भागलपुर यूनिवर्सिटी से सेवानिवृत्त प्रोफेसर सुनील कुमार चौधरी ने इस पत्रकार को शोधपत्रों के हवाले से बताया था कि गंगा नदी के किनारे के खेतों में रासायनिक कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल और नदी में शहरी गंदा पानी फेंके जाने के चलते गंगा नदी में मिलने वाली मछलियों की कई प्रजातियां खत्म हो गई हैं। एक रिपोर्ट के सिलसिले में इस पत्रकार ने साल 2019 में भागलपुर के मछुआरों से बात की थी, तो उन्होंने भी कहा था कि अब गंगा नदी में पहले जैसा बेतहाशा मछलियां नहीं मिलती हैं, इसलिए उन्हें पश्चिम बंगाल के मालदह से मछली लाना पड़ता है।
नेशनल प्लेटफॉर्म फॉर स्मॉल स्केल फिश वर्कर्स के नेशनल कनवेनर प्रदीप चटर्जी कहते हैं, “बिहार में नदियों से बहुत सारी मछलियों की प्रजातियां खत्म हो गई हैं, जिस वजह से छोटे मछुआरों के रोजगार पर संकट बढ़ गया है।”
“मछलियों के खत्म होने की कई वजहें हैं। इनमें कुछ प्रमुख वजहें नदियों से सिंचाई और कल कारखानों के लिए पानी का बेतहाशा दोहन और गंदे पानी का नदियों में बहाना आदि शामिल हैं,” उन्होंने कहा।
जल श्रमिक संघ के स्टेट कनवेनर योगेंद्र साहनी ने कहा कि बिहार की नदियों में पाई जाने वाली मछलियों की 90% प्रजातियां खत्म हो गई हैं।
“गंगा नदी में ही अब हिल्सा, सुगबा, बाटा, कलमा, मोर, कनफुसकी, सांकुच जैसी बहुत सारी मछलियां नहीं मिलती हैं। इससे मछुआरों के सामने रोजगार का संकट पैदा हो गया है। इस वजह से बहुत सारे मछुआरे मछली पकड़ने का पुश्तैनी काम छोड़कर पलायन कर गये हैं,” उन्होंने कहा।
प्रभात खबर में साल 2015 में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि सीमांचल के जिला पूर्णिया से सिंघी, मांगुर, सौरा, कबई, बुआरी, रेबा, पपता, कपटी, पोठी जैसी देसी मछलियां विलुप्त होने की कगार पर हैं।

बिहार में खपत से कम मछली उत्पादन
बिहार में 3200 हेक्टेयर में नदियां, 50000 हेक्टेयर में जलाशय, 25000 हेक्टेयर में रिजर्वायर, 9000 हेक्टेयर में ऑक्स-बो झील और 80000 हेक्टेयर में तालाब फैले हुए हैं, जो मत्स्य पालन के बड़े स्रोत हो सकते हैं। लेकिन, बिहार में मछली उत्पादन मांग से कम ही हो रहा है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि साल 2016-2017 में बिहार में कुल 5.09 लाख टन मछली उत्पादन हुआ था, जबकि बिहार में मछली की खपत उस साल 6.42 लाख टन थी। साल 2017-2018 में बिहार में मछली की खपत 6.50 लाख टन थी, लेकिन उत्पादन 5.87 लाख टन ही हो पाया था।
मछलियां न केवल लोगों की कमाई का जरिया हैं, बल्कि ये नदियों, जलाशयों की परिस्थितिकी को भी बनाए रखने में मदद करती हैं। ऐसे में न केवल मछली उत्पादन बल्कि मछलियों की विभिन्न प्रजातियों को बचाया जाना जरूरी है।
मछलियों की प्रजातियों को बचाने के साथ साथ फिशरीज कॉलेज मांगुर मछली को लेकर एक अलग तरह का शोध करने की तैयारी में है। डॉ वेद प्रकाश सैनी ने कहा, “अगले चरण में हमलोग मांगुर मछली पर शोध कर यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि इस मछली पर ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का कितना असर पड़ रहा है। इसके जरिए हम पता लगाएंगे कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते मछली में जीन (अनुवांशिक) लेवल पर भी परिवर्तन होता है कि नहीं।”
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