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किशनगंज: मछली पालन को नया आयाम देता बायोफ्लॉक तकनीक

मुज़फ्फर कमाल सबा नामक एक कृषि उद्यमी ने अलता एस्टेट में 2020 में बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन की शुरुआत की थी।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
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किशनगंज जिले के कोचाधामन प्रखंड स्थित अलता एस्टेट में बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन किया जाता है। मुज़फ्फर कमाल सबा नामक एक कृषि उद्यमी ने अलता एस्टेट में 2020 में बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन की शुरुआत की थी।

मुज़फ्फर सबा ने मैं मीडिया से बातचीत में बताया कि बायोफ्लॉक तकनीक की शुरुआत इज़राइल में की गई थी, जो धीरे धीरे काफी प्रचलित हुआ। उन्होंने कोविड-19 के पहले लॉकडाउन के दौरान इंटरनेट पर बायोफ्लॉक के बारे में जाना और फिर इस तकनीक से उन्होंने मछली पालन शुरू कर दिया। शुरुआत में उन्हें असफलता मिली जिसके बाद उन्होंने कोलकाता और पटना से बायोक्लॉक फिश फार्मिंग की ट्रेनिंग ली और करीब 6 महीने बाद दोबारा बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालने लगे।

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Muzaffar kamal Saba at his bioflock setup


मुज़फ्फर सबा ने 2019 में परंपरागत मछली पालन शुरू कर दिया था, लेकिन जगह के अभाव में उन्हें मछली पालन में सफलता नहीं मिल पा रही थी। बायो फ्लॉक शुरू करने से उन्हें कम स्थान में अत्यधिक उत्पादन करने का अवसर मिला। उन्होंने मैं मीडिया को बताया कि शुरुआती दिनों में उन्हें कई तरह की दिक्कतें आईं थीं, खासकर वातावरण को न समझ पाने के कारण उन्हें काफी नुकसान झेलना पड़ा था।

मुज़फ्फर कहते हैं, “बायो फ्लॉक इजराइल की एक तकनीक है। यह तकनीक वहाँ के मौसम के लिए एकदम सटीक है लेकिन हमारे यहां वातावरण थोड़ा अलग है, इसलिए बायोफ्लॉक तकनीक में कई चीज़ों का ध्यान रखना होता है। ठंड के दिनों में बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन में ज़्यादा परेशानियां आती हैं। इसके लिए कई बार टैंक में ऑक्सीजन की मात्रा मापनी होती है।”

“मैं हर वर्ष दो बार बायोफ्लॉक कल्चर करता हूँ। एक कल्चर में 4 से 5 महीने लग जाते हैं। पिछले दिनों किशनगंज स्थापना दिवस के मौके पर मैंने एक स्टॉल भी लगाया था। मेरा काम देख कर अधिकारीयों ने मेरा हौसला भी बढ़ाया। मैंने जब बायो फ्लॉक की शुरुआत की थी तो मुझे मस्त्य विभाग से काफी मदद दी गई थी,” उन्होंने कहा।

क्या है बायोफ्लॉक तकनीक

बायोफ्लॉक तकनीक में कम जगह में ज़्यादा मछलियों का पालन किया जा सकता है। इस तकनीक में टैंक में पानी जमा कर मछलियों को पाला जाता है और उनके भोजन के लिए मछलियों से निकले मल को प्रोटीन सेल यानी मछलियों के भोजन में तब्दील कर दिया जाता है। इस तकनीक से मछलियों के चारे का खर्चा बहुत हद तक कम हो जाता है।

Bioflock tank

बायोफ्लॉक तकनीक की खोज सबसे पहले 1970 के दशक में फ्रांस के लैब में की गई थी जिसे बाद में इजराइल के प्रोफेसर और वैज्ञानिक योरम अवनिमेलेक ने विकसित किया। बायोफ्लॉक तकनीक का इस्तेमाल करने वाले सबसे पहले मछली व्यापारी रॉबिन्स मैकन्टॉश थे, जिन्होंने बेलीज़े देश में इस तकनीक से व्यावसायिक तौर पर मछली पालन की शुरुआत की थी।

मत्स्य पालन के लिए सरकार की क्या हैं योजनाएं

बुधवार को आम बजट पेश करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2023 में कृषि से जुड़े स्टार्टअप को प्राथमिकता देने की बात कही। साथ ही साथ उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार द्वारा इस साल पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन पर 20 लाख करोड़ रुपए के कृषि ऋण का लक्ष्य रखा गया है।

बायोफ्लॉक मत्स्य पालन अपनी निपुणता के चलते भारत में तेज़ी से प्रचलित हो रहा है। हालाँकि, इस नए तकनीक से मत्स्य पालन में अच्छा खासा खर्च आता है। किशनगंज नगर क्षेत्र के खगड़ा स्थित मात्स्यिकी परिक्षण सह प्रसार केंद्र में कार्यरत मत्स्य विभाग के अधिकारी मनोज कुमार ने ‘मैं मीडिया’ को बताया कि मछली पालन में सरकार नई तकनीकों को बढ़ावा देने के लिए कई सुविधाएँ दे रही हैं। खासकर बायोफ्लॉक तकनीक में प्रधानमंत्री मत्स्य सम्पदा योजना के तहत बायोफ्लॉक जैसी तकनीकों के लिए मछली पालन करने वाले किसानों को सब्सिडी देती है।

उन्होंने आगे बताया कि बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन किसानों में इज़ाफ़ा हो रहा है। फिलहाल जिले में 9 स्थानों पर बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन किया जा रहा है। उनके अनुसार बायोफ्लॉक तकनीक से पारंपरिक मछली पालन के मुकाबले छोटी सी जगह पर भी कई गुना अधिक मछली उत्पादन होता है, जिससे मछली किसान को ज्यादा मुनाफा होता है। पहले राज्य सरकार मछली पालन के लिए किसानों को सहायता देती थी, लेकिन केंद्र सरकार की तरफ से सब्सिडी प्रदान की जाती है।

Rohu fish

मनोज कुमार कहते हैं, “बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन को शुरू करने में करीब 7 से साढ़े 7 लाख की लागत लगती है, जिसमें 7 तारपोल के टैंक में बायोफ्लॉक तकनीक से मछली पालन किया जाता है। केंद्र सरकार इसमें 40% की सब्सिडी देती है। यानी 7 लाख रुपए की लागत में 2.8 लाख रुपए सरकार देती है। इसके अलावा प्रथम वर्ष उत्पादन में प्रति हेक्टर 4 लाख रुपए का खर्च आता है, उसमें भी 40% की सब्सिडी मिलती है। कोई महिला हो तो उसे 60% की सब्सिडी मिलती है। इसी तरह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मछली पालन किसानों को भी 60% सब्सिडी मिलती है।”

उन्होंने यह भी बताया कि बायोफ्लॉक तकनीक में ज्ञान के अभाव या सावधानी बरते बिना मछली पालन करने से अक्सर किसानों को नुकसान झेलना पड़ता है। किसान इस दुविधा से बच सके, इसके लिए मत्स्य विभाग जागरूकता अभियान चलाता रहता है। बायोफ्लॉक जैसी नई तकनीकों में रूचि रखने वाले मछली पालन किसान सरकार द्वारा चलाए जा रहे परिक्षण कार्यक्रमों में शामिल हो सकते हैं। बायोफ्लॉक तकनीक सीखने के लिए मत्स्यपालन विभाग द्वारा परीक्षण कार्य्रक्रम में 6 या 7 दिनों की निशुल्क ट्रेनिंग दी जाती है। इस ट्रेनिंग में प्रत्याशी के परिक्षण केंद्र तक जाने, रहने और खाने का सारा खर्च विभाग उठाता है। इस परीक्षण कार्य्रक्रम के लिए www.dahd.nic.in पर जाकर आवेदन किया जा सकता है।

मत्स्य विभाग के अधिकारी ने बताया कि ज़िले में प्रति वर्ष 6.29 मेगाटन मछली उत्पादन हो रहा है, लेकिन मछली की खपत ज़िले में 7.00 मेगाटन है। यानी कि अभी भी जिले में 0.70 मेगाटन मछली की जरूरत है। इसकी पूर्ति होने पर ज़िले के बाहर से मछली का आयात नहीं करना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि जो भी किसान बायोफ्लॉक मछली पालन शुरू करना चाहते हैं, वे विभाग में आकर या फ़ोन के माध्यम से किसी भी समय इससे जुड़ी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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