आईआईटी मंडी और आईआईटी, गुवाहाटी ने आईआईएससी, बैंगलोर के साथ मिलकर 2019-20 में जलवायु परिवर्तन पर एक रिपोर्ट छापी। उस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के मापदंड पर भारत के 27 राज्य और 2 केंद्र शासित प्रदेशों के सबसे असुरक्षित (Vulnerable) जिलों की सूची जारी की गई।
बिहार में जलवायु परिवर्तन से सबसे असुरक्षित जिलों की सूची में सीमांचल का किशनगंज पहले पायदान पर रहा जबकि दूसरे स्थान पर कटिहार जिला रहा। चौथा स्थान पूर्णिया को मिला, वहीं, अररिया 7वां सबसे असुरक्षित जिला बताया गया है। जलवायु परिवर्तन से असुरक्षित होने का मतलब है कि जो जिले इस सूची में ऊपर हैं, उन इलाकों में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सबसे अधिक, क्रूर और तेज़ी से देखा जा रहा है।
किशनगंज पर जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव
इस रिपोर्ट में भेद्यता (Vulnerability) के आधार पर हर जिले को एक संख्या दी गई है। इसको Vulnerability Indices (VIs) का नाम दिया गया है। सबसे अधिक किशनगंज का VIs 0.735 है जबकि दूसरे स्थान पर रहने वाले कटिहार को 0.700 मिले हैं। पूर्णिया को 0.641 और अररिया को 0.613 अंक दिये गये हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार का सबसे कम असुरक्षित जिला औरंगाबाद है। औरंगाबाद का VIs स्कोर 0.367 है।
सीमांचल के जिलों का इस सूची में ऊपर रहने का एक और मतलब यह भी है कि स्वास्थ्य संरचना, साफ़ पानी की उपलब्धता, अनाज की पूर्ति, उपजाऊ खेती जैसे कई मामलों में ये जिले बाकी जिलों से पीछे हैं। ऊपर बताई गई रिपोर्ट में VIs स्कोर इन तमाम चीज़ों को मद्देनज़र रखते हुए निकाला गया है।
“पूरी फसल जल कर राख हो गई”
किशनगंज जिले के बहादुरगंज प्रखंड अंतर्गत चिकाबाड़ी पंचायत निवासी मोहम्मद अलीमुद्दीन की 2 बीघा ज़मीन में फैली फसलें भीषण गर्मी का शिकार हो गईं। पटुआ और कुछ सब्ज़ियों की फसलें भी बुरी तरह जल गईं। मोहम्मद अलीमुद्दीन ने बताया कि पटुआ के अलावा उन्होंने मूंग, परवल और भिंडी की फसलें लगाई थीं, लेकिन इस साल बारिश न होने से सारी फसलें जलकर खत्म हो गईं। उन्होंने खेतों में दो बार पानी भी दिया, लेकिन गर्मी इतनी ज़्यादा थी कि फसलें बच नहीं सकीं।
अलीमुद्दीन ने मार्च में फसल बोई थी, जुलाई अगस्त में उन फसलों की कटाई होनी थी, लेकिन मई के महीने में ही फसलें बर्बाद हो गईं। उन्होंने कहा, “इस बार बारिश बिलकुल नहीं हुई है। एक दो दिन बूंदा बूंदी बारिश हुई, लेकिन उससे तो फसल को और नुकसान ही हो गया। गर्मी तो इतनी बढ़ गई है कि 9 बजे के बाद ही बाहर नहीं निकला जाता है। कम से कम मेरा दो बीघा से ज़्यादा पटुआ जल गया है। पलवल और मूंग भी जल गया है, इस बार तो फल ही नहीं आ रहा है।”
वह सरकार से अपने नुकसान के मुआवज़े की आस में हैं। उन्होंने किशनगंज कृषि विभाग अधिकारी कृष्णानंद चक्रवर्ती से फ़ोन पर बात की और अपनी आपबीती सुनाई। जिला कृषि अधिकारी ने कहा कि आप एक लिखित पत्र भेजिए फिर उसके के बाद अधिकारी जांच करने गांव जाएगा।
अलीमदुद्दीन के बड़े भाई मोहम्मद अमीरुद्दीन का लगभग डेढ़ बीघा खेत गर्म हवा और चिलचिलाती धुप की चपेट में आ गया। उन्होंने कहा, “इस साल गर्मी के मौसम में सारी फसल जल कर राख हो गई। इस बार ज़रा पानी भी नहीं हुआ है। पानी नहीं होने के कारण मेरा पटुआ, बिचन, मूंग ख़त्म हो गया। गर्मी इतनी बढ़ रही है कि रहने लायक नहीं है। सरकार मदद दे तो अच्छा है, सिर्फ हमको नहीं सब को दे। हम लोग खेत में पानी दे दे कर परेशान हैं।”
“क्लाइमेट ट्रांसपैरेंसी रिपोर्ट 2022” के अनुसार, भारत में 2006 से 2021 के बीच 3 करोड़ 60 लाख हेक्टेयर ज़मीन की खेती प्राकृतिक कारणों से नष्ट हुई। इससे 3,08.29 अरब रुपये से अधिक का नुकसान हुआ।
क्लाइमेट चेंज पर क्या बोले सीमांचल के वैज्ञानिक
किशनगंज के डॉ कलाम कृषि कॉलेज में कार्यरत कृषि विज्ञानी स्वराज दत्ता ने इस बारे में ‘मैं मीडिया’ से बात की। उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक स्तर पर मानव जाति के लिए एक बड़ी चुनौती है और यह किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। उन्होंने सीमांचल के सन्दर्भ में बताया कि पिछले कुछ सालों से इस क्षेत्र में देखा जा रहा है कि मार्च-अप्रैल में पहले के मुकाबले वर्षा कम हो रही है। इससे रबी फ़सल को नुकसान की संभावना बढ़ जाती है। कई बार ऐसा देखा जा रहा है कि कुछ महीनों में बारिश बहुत कम होती है और कुछ महीनों में अत्यधिक बारिश हो जाती है। ऐसा होने से कई इलाकों में सूखा और बाढ़ के खतरे बढ़ जाते हैं।
स्वराज दत्ता ने कहा, “हम लोग सब एक सिस्टम में हैं। ये सब वैश्विक परिवर्तन है। कई दिनों तक बारिश नहीं होती है और हम कभी कभी देखते हैं कि एक दिन में बहुत ज़्यादा बारिश हो जाती है जिससे बाढ़ के हालात पैदा हो जाते हैं। पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैस के बढ़ने से तापमान बढ़ता है जिससे हवा का प्रसार प्रभावित होता है। हवा के प्रसार के प्रभावित होने से अत्यधिक बारिश और कम बारिश जैसी समस्या देखने को मिलती है। इस बार किशनगंज में रबी सीज़न में एक बूँद भी बारिश नहीं हुई है, जिससे फ़सल की बर्बादी हुई है।”
जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक संकट है जिससे पार पाने के लिए पूरविश्व भर के देशों को साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। भारतीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय व प्रौद्योगिकी विभाग और विज्ञान व इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड ने “इंडियाज़ कलाइमेट चेंज रिसर्च एजेंडा 2030 एंड बियॉन्ड” नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट के अनुसार, अगले 20 सालों में जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व में तापमान औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस से 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ने का अनुमान है। यह इसलिए भी चिंताजनक हैं क्योंकि पिछले 109 सालों में (1901-2010) वैश्विक तापमान की बढ़ोतरी का औसत 0.6 डिग्री सेल्सियस रहा है। यानी अगले 50 सालों में धरती का औसत तापमान बढ़ने की दर दोगुना से भी अधिक होने वाली है।
“इंडियाज़ कलाइमेट चेंज रिसर्च एजेंडा 2030 एंड बियॉन्ड” रिपोर्ट में कहा गया है कि इस बढ़ोतरी से भारत में चक्रवात, अत्यधिक वर्षा, सूखा, हीटवेव जैसी समस्याएं बहुत तेज़ी से बढ़ेंगी। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के जिन 8 राज्यों में जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव देखने को मिलेगा, उनमें बिहार भी शामिल हैं। भारत के 100 सबसे असुरक्षित जिलों में बिहार के 23 जिले शामिल हैं। इस सूची में केवल असम (24 जिले) ही बिहार से आगे है।
जलवायु परिवर्तन से इंसानों की जान जाने के आंकड़ों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। वर्ष 2022 में विश्व में जितनी मौतें हुई हैं उनमें से 23% मौतें जलवायु परिवर्तन के कारण थीं। ।
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लगातार क्यों कम हो रही पानी की गुणवत्ता
मृदा विज्ञानी और डॉ कलाम कृषि कॉलेज सहायक प्रोफ़ेसर धर्मेंद्र कुमार वर्मा ने बताया कि 2017-18 तक बारिश की तीव्रता बहुत अच्छी थी और तापमान भी काफी सामान्य रहता था, लेकिन 2022 से तापमान लगातार बढ़ रहा है। बारिश भी काफी कम हुई है, पहले जो 1100-1200 मिलीमीटर बारिश हुआ करती थी, अब वह बहुत कम है। इससे धान की खेती कम हुई है। अभी मक्का की खेती बढ़ी है।
उन्होंने आगे बताया कि किशनगंज जिले के एक सर्वे में पाया गया कि पानी में पीएच लेवल 5.5 से 6.1 तक है जो सामान्य से कम है। पानी की गुणवत्ता असुरक्षित है। इसके अलावा इन इलाकों में पानी में आयरन की मात्रा काफी ज़्यादा है। अगर पानी में पीएच लेवल 6.5 से कम है और 8.5 से अधिक है, तो वह पानी पीने के लिए गैर सुरक्षित माना जाता है। किशनगंज के पानी में सूक्ष्म जीव अधिक संख्या में पाए जाते हैं। इन इलाकों में पानी फ़िलहाल बेतहाशा है, लेकिन इसकी गुणवत्ता खराब है।
धर्मेंद्र कुमार ने आगे बताया कि पानी में आयरन की मात्रा अधिक होने से बीमारियां बढ़ती हैं। शरीर में कमज़ोरी और कम आयु में बाल झड़ने की समस्या देखने को मिलती है। पानी में आयरन की मात्रा 1 पीपीएम से कम होना चाहिए लेकिन किशनगंज के कुछ इलाकों में पानी में पीपीएम की मात्रा 15 से भी अधिक है।
उन्होंने यह भी कहा कि वर्षा कम होने से किशनगंज में चाय, अनानास और ड्रैगन फ्रूट की खेती सिकुड़ती जाएगी।
“जलवायु परिवर्तन के कारण सीमांचल के कई इलाकों में अत्यधिक बारिश देखने को मिल रही है और कभी कभी सूखे जैसे हालात पैदा हो रहे हैं। इसका असर मिट्टी पर भी पड़ता है लेकिन यह दीर्घकालिक तब्दीली है। इस पर अभी से काम किया गया तो भविष्य में हम इस संकट से बेहतर तरीके से निपट सकेंगे,” धर्मेंद्र कुमार ने कहा।
राज्य में तेजी से गिर रहा भूजल स्तर
अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा (नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2002 से 2013 के बीच हर साल उत्तर भारत में 15 से 25 सेंटीमीटर तक भूजल का स्तर गिरता गया। दक्षिण भारत में भूजल स्तर 1 से 2 सेंटीमीटर तक कम हुआ।
कृषि विज्ञानी स्वराज कुमार मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन में तापमान बढ़ने का मतलब है कि वर्षा कम होगी और अंततः भूजल का स्तर और गिरता रहेगा। उन्होंने दरभंगा जिले का उदाहरण दिया। दरभंगा में पिछले 3 सालों से भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। वर्षा अधिक होगी तो भूजल का स्तर बढ़ेगा। भूजल के स्तर को बढ़ाने के लिए वनरोपण एक बहुत ही अच्छा और सरल तरीका हो सकता है।
क्या कहते हैं बारिश के आंकड़े
किशनगंज स्थित कृषि कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर और मौसम विज्ञानी अजित कुमार मंडल ने ‘मैं मीडया’ को बताया कि जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व के लिए संकट बना हुआ है। मनुष्य द्वारा कार्बन डाईऑक्साइड और फैक्ट्री, गाड़ियों द्वारा ग्रीनहाउज़ गैस का उत्सर्जन होता है, जिससे पर्यावरण में आवरण बन जाता है। इससे सूर्य का रेडिएशन बाहर नहीं जा पाता है और यह जलवायु परिवर्तन का कारण बनता है।
उन्होंने आगे बताया कि इस साल किशनगंज सहित बिहार के कई इलाकों में रबी सत्र में बारिश नहीं हुई, जिससे इस साल गर्मी का मौसम अधिक गर्म होगा। मौसम विज्ञानी अजित कुमार मंडल ने हम से वर्षा के आंकड़े साझा किए। उन्होंने 1 अक्टूबर 2022 से जून तक के बारिश के आंकड़े दिखाए।
एक अक्टूबर 2022 से 5 जून 2023 तक केवल 31 दिन ही बारिश हुई। उसमें भी मार्च से लेकर जून तक केवल 10 दिन ही आसमान ने पानी टपकाए। इन 10 दिनों में केवल चार दिन ऐसे थे, जिनमें 10 मिलीमीटर से अधिक बारिश हुई।
वर्षा की कमी पर अजित कुमार मंडल कहते हैं, “बारिश होना बहुत ज़रूरी है। इस बार बारिश बहुत ही कम हुई है। बारिश कम होने से सूखा बढ़ेगा, बहुत सारे पेड़ सूख जाएंगे, तापमान बढ़ने से पर्यावरण में तेज़ी से बदलाव आ जाता है। बिहार में सबसे अधिक वर्षा सीमांचल में ही होती है, लेकिन इस साल बारिश बहुत कम हुई है। कम बारिश होने में यह दिक्कत है कि अचानक किसी दिन इतनी बारिश हो जाएगी कि बाढ़ जैसे हालात पैदा कर देगी, जिससे काफी नुकसान होने की संभावना हो जाती है।”
जलवायु परिवर्तन से कैसे लड़ें?
अजित कुमार मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है, लोकल स्तर पर इसमें बस योगदान दिया जा सकता है। इसके नियंत्रण के लिए सब को मिलकर काम करना होगा। अधिक से अधिक पेड़ लगाना चाहिए, पेट्रोल, डीज़ल वाली गाड़ियों का प्रयोग कम से कम करने का प्रयास करना चाहिए। फैक्ट्री के प्रयोग पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। सब मिल कर थोड़ा थोड़ा योगदान देंगे, तो भविष्य में अच्छे परिणाम मिल सकेंगे।
‘मैं मीडिया’ से बातचीत के दौरान कृषि विज्ञानी स्वराज कुमार दत्ता ने इस तरह की आपदा से बचने के लिए कुछ उपाय बताए। उन्होंने कहा कि सीमांचल क्षेत्र में खाली पड़ी बंजर ज़मीनों पर पेड़ लगाना एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। इसके अलावा सीमांचल के किसान सेरीकल्चर (रेशम कीट पालन) और हॉर्टिकल्चर (बागवानी) की तरफ जा सकते हैं। इन तरह की फसल मौसम की अस्थिरता से कम प्रभावित होते हैं, जिससे किसानों को नुकसान की संभावनाएं कम हो जाती हैं।
उन्होंने आगे बताया कि बिहार सरकार द्वारा जल जीवन हरयाली योजना के अंतर्गत “क्लाइमेट रेज़ेलियेंट एग्रीकल्चरल प्रोग्राम” चलाया जा रहा है। इसके तहत हर जिले में किसानों से मिल कर जागरूकता फैलायी जाती है। स्वराज दत्ता मानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं से निपटने के लिए कृषि क्षेत्र में कई तरह के नए कदम उठाए जा रहे हैं। उनमे से एक है बहुप्रकारीय खेती। बहुप्रकारीय खेती यानी उस प्रकार की खेती जिसमें किसान कई अलग अलग प्रकार की फसल उगाता है और सिर्फ एक प्रकार की फसल पर निर्भर नहीं रहता।
बहुप्रकारीय खेती से प्राकृतिक आपदा से होनेवाली क्षति का खतरा कम हो जाता है। चूंकि इस खेती में किसान अलग-अलग फसल की बुआई करता है इसलिए वह कम या ज्यादा बारिश जैसे संकट से अधिक बेहतर ढंग से पार पा सकता है।
सीमांचल के जिलों में भीषण हीटवेव
इस साल जून महीने की 1 से 7 तारीख तक बिहार के आधा दर्जन से अधिक जिलों में हीटवेव देखा गया। इन ज़िलों में पूर्णिया, कटिहार और अररिया मुख्य रूप से शामिल रहे। इन दिनों किशनगंज में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के आस पास रहा। वहीं, पूर्णिया, कटिहार और अररिया में पारा लगातार 42 डिग्री सेल्सियस तक रहा। सीमांचल में बढ़ते तापमान और घटती बारिश को आनेवाले दिनों में खतरे की घंटी के तौर पर देखा जाना चाहिए।
पर्यावरण से जुड़ी रपटों में बिहार के जिलों को लगातार ‘वल्नरेबल’ बताया जाना एक गंभीर विषय है। आने वाले दिनों में बिहार की पार्टियों के चुनावी मेनिफेस्टो में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग कहाँ ठहरती है, यह देखने योग्य बात होगी।
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