बिहार सरकार की तरफ से हालिया जारी जातियों की सामाजिक आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में मुसहरों की आबादी 40.35 लाख है, जो बिहार की कुल आबादी का 3.08 प्रतिशत है। संख्या के हिसाब से देखें, तो ऊंची जाति के ब्राह्मण, राजपूत और शेख (मुस्लिम), पिछड़ा वर्ग के यादव व कुशवाहा तथा अनुसूचित जाति दुसाध (धारी, धरही भी शामिल) और चमार (इसमें मोची, रविदास, रोहिदास और चर्मकार शामिल) के बाद मुसहरों की आबादी सबसे ज्यादा है।
मुसहर, यूं तो आदिवासी होते हैं और पड़ोसी राज्य झारखंड में अब भी वे आदिवासी में ही गिने जाते हैं, लेकिन बिहार में उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा मिला हुआ है। राज्य में अनुसूचित जाति की श्रेणी में कुल 22 जातियों को शामिल किया गया है और इनकी एकमुश्त आबादी 2.56 करोड़ है, जो सूबे की कुल आबादी का 19.65 फीसदी है।
22 अनुसूचित जातियों में आबादी के लिहाज से मुसहर तीसरे पायदान पर आते हैं, यानी कि अनुसूचित जातियों में मुसहर तीसरी बड़ी आबादी हैं, लेकिन अच्छी खासी आबादी के बावजूद सामाजिक-आर्थिक लिहाज से वे बेहद पिछड़े हुए हैं। बल्कि कई मामलों में तो यह आबादी सबसे निचले पायदान पर खड़ी नजर आती है।
और ऐसा तब है जब सीएम नीतीश कुमार ने 2007 में ही मुसहर समेत हाशिये पर खड़ी अन्य दलित जातियों को सशक्त करने के लिए महादलित विकास मिशन की स्थापना की थी।
सरकारी नौकरी और शिक्षा में फिसड्डी
शिक्षा के क्षेत्र में मुसहरों की स्थिति बेहद खराब है। राज्य के सिर्फ 1379 मुसहरों ने आईटीआई से डिप्लोमा किया है, जो उनकी आबादी का महज 0.03 प्रतिशत है। स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्री इतने कम लोगों के पास है कि वे प्रतिशत में भी नहीं आ सके हैं।
मुसहर बच्चे प्राथमिक स्कूलों तक तो पढ़ाई करते हैं, लेकिन इसके आगे वे पढ़ नहीं पाते हैं। आंकड़ों के मुताबिक, मुसहरों में कक्षा एक से पांचवीं तक पढ़े लोगों की आबादी 9.47 लाख है, जो उनकी कुल आबादी का 23.47 प्रतिशत है, लेकिन छठवीं से आठवीं और इसके बाद मैट्रिक और इंटरमीडिएट में उनके आंकड़े क्रमश तेजी से घटते जाते हैं।
छठवीं से आठवीं तक पढ़ाई करने वाले मुसहरों की संख्या महज 3.22 लाख है, जो उनकी जनसंख्या का 7.99 प्रतिशत है। वहीं, मैट्रिक पास मुसहरों की संख्या बिहार में 98,420 है, जो उनकी आबादी का सिर्फ 2.44 प्रतिशत है। इंटरमीडिएट पास मुसहरों की संख्या तो सिर्फ 0.77 प्रतिशत यानी 31,184 है।
मुसहरों में शिक्षा की स्थिति की दयनीयता का अंदाजा इससे भी लगता है कि हर साल मैट्रिक की परीक्षा का रिजल्ट आता है, तो अखबारों में यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित होती है कि कुछ गांवों की मुसहर टोलियों में आजादी के बाद पहली बार किसी ने मैट्रिक की परीक्षा पास की है।
बिहार के महज 20.49 लाख लोग (1.57%) सरकारी नौकरी में हैं। लेकिन, सरकारी नौकरियों में ऊंची जाति के साथ साथ पिछड़े वर्ग की कुछ जातियों का बोलबाला है। मुसहरों की बात करें, तो महज 10,615 लोग ही सरकारी नौकरियों में जो उनकी आबादी का 0.75 प्रतिशत है।
हालांकि, गणना रिपोर्ट में सरकारी नौकरियों का ग्रेडवार आंकड़ा नहीं दिया गया है, जिससे यह पता नहीं चलता है कि ऊंचे ओहदे की नौकरियों में मुसहरों की कितनी भागीदारी है। लेकिन शिक्षा के आंकड़ों से पता चलता है कि वे निश्चित तौर पर मैट्रिक, इंटरमीडिएट और उससे निचले स्तर की शैक्षिक योग्यता वाली सरकारी नौकरियों में होंगे।
आश्चर्य तो यह है कि मुसहरों की भागीदारी संगठित निजी क्षेत्रों और असंगठित निजी क्षेत्रों में भी नगण्य है। अलबत्ता, मजदूरी के काम में उनकी भागीदारी अधिक है। संगठित निजी क्षेत्रों में सिर्फ 3903 मुसहर काम कर रहे हैं, जो उनकी आबादी का 0.10 फीसदी है। वहीं, असंगठित निजी क्षेत्र में 14,543 मुसहर कार्यरत हैं। हां, उनकी 23.95 प्रतिशत आबादी यानी कि 9.66 लाख लोग मजदूर, मिस्त्री व अन्य काम में लगे हुए हैं।
पक्के मकान के लिए सरकार की योजनाओं के बावजूद आंकड़े बताते हैं कि मुसहरों की लगभग 45 प्रतिशत आबादी अब भी झोपड़ियों में रहने को मजबूर है।
जाति गणना के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में मुसहर परिवारों की कुल संख्या 8.73 लाख है, जिनमें से करीब 3.90 लाख यानी 44.75 प्रतिशत परिवार झोपड़ियों रहते हैं। एक कमरे के पक्के मकानों में 1.60 लाख परिवार रह रहे हैं, जो उनकी कुल आबादी का 18.34 प्रतिशत है। वहीं, दो या उससे अधिक कमरों के पक्के मकानों में रहने वाले मुसहर परिवारों की संख्या सिर्फ 68 हजार है, जो उनकी आबादी के मुकाबले 7.8 प्रतिशत है।
कमाई के मामले में भी मुसहरों की स्थिति चिंताजनक है। मुसहर परिवारों की आधी संख्या रोजाना 200 रुपये से भी कम कमाती है।
बिहार सरकार ने उन परिवारों को गरीब माना है, जिनकी हर महीने की कमाई 6 हजार रुपये से भी कम है। बिहार जाति गणना के आंकड़ों के मुताबिक, मुसहरों के कुल परिवार का 54.56 प्रतिशत हिस्सा (4.76 लाख) हर महीने 6 हजार रुपये से भी कम कमाता है, जो अनुसूचित जाति समूह की किसी भी जाति के मुकाबले से सबसे ज्यादा आबादी है। राज्य के स्तर पर देखें, तो बिहार में कुल 2.76 करोड़ परिवार रहते हैं, जिनमें से कुल 94.42 लाख यानी 34.13 प्रतिशत परिवार गरीब हैं।
हर महीने 6 हजार रुपये से 10 हजार रुपये तक कमाने वाले परिवारों की बात करें, तो मुसहरों में सिर्फ 24.76 प्रतिशत परिवार ही इतनी आमदनी कर पाते हैं।
अध्ययन बताते हैं कि मुसहर, भुइंया आदिवासी से ताल्लुक रखते हैं। मुसहर नाम को लेकर दो तरह के तर्क मौजूद हैं। एक तर्क के मुताबिक, मांस के नियमित आहार के रूप में इस्तेमाल करने के चलते इन्हें मुसहर कहा जाता है, तो दूसरा तर्क यह है कि यह समुदाय मूसा (चूहा) को भी आहार बनाता है, इसलिए इन्हें मुसहर कहा जाता है। साल 2020 में कोविड-19 के लॉकडाउन के दौरान बिहार की राजधानी पटना से सटे जहानाबाद जिले से एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था, जिसमें कुछ मुसहर बच्चे चूहे को पकाकर खाते हुए देखे गये थे। उस वक्त खबर चली थी कि लॉकडाउन के चलते मुसहर परिवारों को खाने के लाले पड़ गये थे, जिस कारण उन्हें चूहे खाने पड़ रहे थे। हालांकि, बिहार सरकार ने इन दावों को सिरे से खारिज कर दिया था।
मुसहरों की दयनीय आर्थिक स्थिति के संबंध में एक अध्ययन बताता है कि संपत्ति का नहीं होना और क्षमता और कुशलता का अभाव मुसहरों को कृषि व रोजगार के दूसरे वैकल्पिकों की ओर जाने से रोक देता है।
‘शोधश्री’ नाम के जर्नल के अप्रैल-जून 2018 अंक में ‘द मुसहर्स: ए सोशली एक्सक्लूडेड कम्युनिटी ऑफ बिहार’ शीर्षक से छपा यह अध्ययन कहता है, “बिहार के अधिकांश मुसहर परिवारों के पास जमीन या दूसरी संपत्तियां नहीं होती हैं। वे भूमिहीन हैं और उन्हें जमीन देकर सशक्त करने की सरकार की कोशिश बिहार में सफल नहीं हुई है। पंजाब और हरियाणा में अनुसूचित जाति के कई लोग उद्योगपति हैं, लेकिन यहां (बिहार में) मुश्किल से मिलते हैं।”
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बहुजन चेतना केंद्रित पत्रिका सबाल्टर्न के संपादक महेंद्र सुमन कहते हैं, “मुसहर समुदाय ऐतिहासिक तौर पर पिछड़ा रहा है, जो अब भी नजर आता है। वे भूमिहीन हैं। भोजन के लिए शिकार करते हैं। स्वरोजगार के रूप में वे महुआ शराब बनाते हैं, लेकिन यह बहुत छोटे स्केल पर करते हैं, जिसमें बहुत बचत नहीं हो पाती है। पशुपालन में वे सिर्फ सूअर पालते हैं, जिसमें बहुत फायदा नहीं होता है।”
राजनीति में हिस्सेदारी भी कम
मुसहर समुदाय से कुछ नेता जरूर नजर आते हैं, लेकिन मुसहर समुदाय राजनीतिक रूप से भी सशक्त नहीं है। यह भी एक वजह हो सकती है कि ठीक ठाक आबादी होने के बावजूद यह समुदाय अपने हितकारी योजनाओं के लिए दबाव बनाने में सफल नहीं है।
ऊंची जातियों में कम आबादी के बावजूद ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार राजनीति में हावी हैं। पिछड़े वर्ग में कुर्मी की आबादी मुसहरों के मुकाबले कम है, लेकिन राजनीति में इस समुदाय का वर्चस्व है।
राजनीतिक रूप से इस समुदाय के कमजोर होने का कारण इनका बंटा होना माना जाता है। मुसहरों के वोट राजद, भाजपा और जदयू में बंटते हैं। अध्ययन कहता है, “पासी, चमार और पासवान की तरह वे (मुसहर) कभी भी ठीक तरह से संगठित नहीं रहे या न ही कोई राजनीतिक हितकारी जाति समूह गठित कर सके। आजादी के बाद से विधानसभा से लेकर लोकसभा तक इनकी उपस्थिति नगण्य रही है। साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में सिर्फ 7 मुसहर विधायक (भाजपा से एक, राजद से दो, जदयू से दो और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा से एक) बने।” हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा पार्टी की स्थापना पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने जदयू से अलग होकर की है।
साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में मुसहर समुदाय के 7 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की। इनमें सबसे अधिक तीन मुसहर नेताओं ने हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के टिकट पर चुनाव जीता। जदयू से दो और भाजपा तथा राजद से 1-1 मुसहर उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।
मुसहरों के राजनीतिक रूप से शक्तिशाली नहीं होने के पीछे कुछ अन्य वजहें भी हैं। इनमें एक वजह उनका बेहद छोटे छोटे समूह में बिखरा हुआ होना भी है। इसके अलावा मुसहर समुदाय में बौद्धिक वर्ग का नहीं पनप पाना भी एक कारण है।
महेंद्र सुमन कहते हैं, “मुसहर काफी गरीब हैं और इस वर्ग में अब तक न मिडिल क्लास पैदा हुआ है और न बौद्धिक वर्ग, जो अपने नैरेटिव को बड़े स्तर पर उठा सके और राजनीतिक दबाव बना सके। यही वजह है कि राजनीतिक तौर पर वे काफी कमजोर हैं।”
महेंद्र सुमन की बात सही भी है। सोशल मीडिया पर ऊंची जातियों से लेकर ओबीसी की जातियों के बौद्धिक नजर आते हैं और वे नैरेटिव भी सेट करते रहते हैं, लेकिन मुसहर समुदाय से ऐसा कोई सोशल मीडिया पर नजर नहीं आता है।
महादलित विकाश मिशन का असर
अनुसूचित जातियों का वोट बैंक साधने के लिए सीएम नीतीश कुमार ने महादलित श्रेणी बनाई थी। इस श्रेणी में मुसहर समेत अनुसूचित जाति में आने वाली 21 जातियों को शामिल किया गया था। इसके साथ ही साल 2008 में उन्होंने अनुसूचित जाति व जनजाति कल्याण विभाग के अंतर्गत महादलित विकास मिशन की स्थापना की थी। इस मिशन का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक तौर पर बेहद पिछड़े समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए उन्हें आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर सशक्त करना था।
लेकिन, बिहार सरकार की जाति गणना की सामाजिक आर्थिक रिपोर्ट से पता चलता है कि इस मिशन का जमीन पर बिल्कुल कम या नहीं के बराबर असर हुआ है।
साल 2020 में प्रकाशित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी और आईआईटी रुड़की के शोधकर्ताओं के संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि अध्ययन में शामिल 96 घरों में से 73 प्रतिशत घरों के लोग गरीबी रेखा के नीचे थे, जिनमें ज्यादातर मुसहर समुदाय के लोग थे। यह अध्ययन मधेपुरा और इसके आसपास के क्षेत्र में किया गया था।
अध्ययन में यह भी पता चला था कि अध्ययन में शामिल मुसहरों में से केवल तीन प्रतिशत मुसहरों की आय 4500 रुपये से अधिक थी। वहीं, प्रत्येक मुसहर परिवार भोजन पर मासिक महज 1650 रुपये खर्च करता था।
अध्ययन के मुताबिक, महादलित विकास मिशन के अंतर्गत चल रही योजनाएं मसलन प्रशिक्षण, कौशल विकास और माध्यमिक शिक्षा, मुसहरों तक नहीं पहुंचे थे। अध्ययन के निष्कर्ष में शोधकर्ताओं ने लिखा कि अध्ययन क्षेत्र में महादलित समुदायों के लिए शुरू की गई विकास योजनाओं से मुसहरों में परिवर्तन की गति बहुत धीमी है और मिशन की योजनाओं की निगरानी की जरूरत है।
कंप्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया (कैग) की साल 2019 की रिपोर्ट भी मिशन को लेकर सरकार की ढिलाई की ओर इशारा करती है।
मिशन राज्य, जिला और प्रखंड कार्यालयों में स्वीकृत पदों के मुकाबले बेहद कम कर्मचारियों की नियुक्ति हुई और प्रखंड स्तर पर तो कोई नियुक्ति ही नहीं हुई है। अक्टूबर 2019 तक मिशन के राज्य कार्यालय में 30 स्वीकृत पद थे, लेकिन उनकी जगह 21 कर्मचारी ही नियुक्त थे।
इसी तरह, जिलों में स्थित मिशन कार्यालय में कुल स्वीकृत पद 304 थे, लेकिन नियुक्ति सिर्फ 45 कर्मचारियों की ही हुई और 85 प्रतिशत यानी 259 पद खाली रहे। वहीं, ब्लॉक मिशन कार्यालयों के लिए कुल 1068 पद स्वीकृत किये गये थे, लेकिन इनमें से एक भी कर्मचारी की नियुक्ति नहीं हुई। इससे मिशन की योजनाओं का क्रियान्वयन प्रभावित हुआ।
कैग की रिपोर्ट बताती है कि मिशन के लिए साल में कम से कम दो बार आम सभा और कार्यकारी समिति की बैठक होनी थी, लेकिन लेखापरीक्षा ने पाया कि आम सभा की अंतिम बैठक जून 2016 में हुई थी और साल 2016-2019 के बीच कार्यकारी समिति की 12 बैठकें होनी चाहिए थी, लेकिन केवल पांच बैठकें ही हुईं।
कैग ने साल 2019 की अपनी रिपोर्ट में लिखा, “बिहार महादलित विकास मिशन का वित्तीय प्रबंधन अप्रभावी था, जो अवास्तविक बजट आवंटन, उपयोगिता प्रमाणपत्रों के जमा न करने, रोकड़ बही के गैर समाधान से स्पष्ट था और कई बैंक खातों का संचालन धन के दुरुपयोग और गबन के जोखिम से भरा था। इसके अलावा राज्य, जिला और प्रखंड स्तर पर मानव बल की गंभीर कमी थी, जिसका योजनाओं के निष्पादन व निगरानी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।”
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