बिहार सरकार ने 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर जाति आधारित गणना के आंकड़े जारी कर दिये।
देश में जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट आखिरी बार 1931 में सार्वजनिक हुई थी। इसके बाद जाति आधारित जनगणना तो हुई, लेकिन इसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई। लिहाजा जातियों की आबादी को लेकर अब तक जो भी रपटें की गईं, उनमें 1931 के आंकड़ों के आधार पर ही अनुमानित आंकड़े दिये गये। लेकिन, अब बिहार सरकार के पास जातियों के आधिकारिक आंकड़े हैं।
जाति गणना रिपोर्ट के मुताबिक, लगभग 13.07 करोड़ की आबादी वाले बिहार में पिछड़ा वर्ग (बीसी) की आबादी 27.31 प्रतिशत है। इसमें भी सबसे ज्यादा संख्या यादवों की 14.26 प्रतिशत है। वहीं, कुशवाहा और कुर्मी जाति की आबादी क्रमशः 4.21 प्रतिशत और 2.87 प्रतिशत है। जाति गणना में अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की आबादी 36.1 प्रतिशत है। बीसी और ईबीसी को मिलाकर ओबीसी श्रेणी बना है यानी कि बिहार में ओबीसी की आबादी 63.41 है।
वहीं, अनुसूचित जाति की आबादी 19.65 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.68 प्रतिशत है।
जाति गणना की रिपोर्ट बताती है कि बिहार में अगड़ी जातियों की आबादी 15.52 (लगभग पांच प्रतिशत मुस्लिम अगड़ी जातियां भी शामिल) प्रतिशत है, जिनमें सबसे अधिक 3.65 प्रतिशत आबादी ब्राह्मण की, 3.45 प्रतिशत आबादी राजपूतों की और 2.86 प्रतिशत आबादी भूमिहारों की है।
फिलहाल क्या है आरक्षण का प्रावधान
जातियों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाता है। फिलहाल ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण मिलता है, जिसकी अनुशंसा साल 1978 में गठित मंडल आयोग ने की थी। मंडल आयोग ने आर्थिक रूप से कमजोर श्रेणी के लिए 10 प्रतिशत, अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी, तो अभी, आरक्षण का यही प्रतिशत लागू है।
अब चूंकि बिहार सरकार ने जातिवार गणना कर आंकड़े पेश कर दिये हैं, तो ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा अब फिर एक बार जोर पकड़ने लगा है।
जाति और उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति की गणना एक बेहद जरूरी काम है, जिसके जरिए सरकारों को ऐतिहासिक रूप से सामाजिक बहिष्कार का सामना करने वाले समुदायों के लिए सकारात्मक कार्रवाई करने में मदद मिलती है।
अलग अलग जातियों के संगठन अब यह मांग करने लगे हैं कि आबादी के हिसाब उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए। कांग्रेस नेता व सांसद राहुल गांधी ने जाति गणना के आंकड़े सामने आने के तुरंत बाद अपने सोशल मीडिया अकाउंट एक्स पर लिखा, “बिहार की जातिगत गणना से पता चला है कि वहां ओबीसी + एससी + एसटी 84% हैं। केंद्र सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ 3 ओबीसी हैं, जो भारत का मात्र 5% बजट संभालते हैं! इसलिए, भारत के जातिगत आंकड़े जानना जरूरी है। जितनी आबादी, उतनी हिस्सेदारी – ये हमारा प्रण है।”
अगर आबादी के हिसाब से देखा जाए, तो ओबीसी को 63 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए, लेकिन मौजूदा व्यवस्था में उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है। इसी तरह अनुसूचित जाति की आबादी 19.65 प्रतिशत है, लेकिन उन्हें 15 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है।
जाति गणना को भाजपा की बढ़ती हिंदुत्व की राजनीति का तोड़ माना जा रहा है और अनुमान है कि आने वाले दिनों में इंडिया गठबंधन इसे बड़ा मुद्दा बनाएगा और साल 2024 के लोकसभा चुनाव में यह केंद्रीय मुद्दा रहेगा।
विधानसभा में किस समूह के कितने विधायक
आबादी और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की रोशनी में यह भी देखने की जरूरत है कि बिहार विधानसभा में जातियों की संख्या के अनुपात में उन्हें प्रतिनिधित्व मिलता है या नहीं।
यहां यह भी बता दें कि अभी विधानसभा और लोकसभा सीटों में सिर्फ अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के लिए ही आरक्षण का प्रावधान है।
बिहार की कुल 243 विधानसभा सीटों में से 38 सीटें ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, जो कुल सीटों का 15.5 प्रतिशत है। हालांकि अनुसूचित जाति की आबादी ताजा आंकड़ों के मुताबिक 19.65 प्रतिशत है। वहीं, अनुसूचित जनजाति के लिए कुल दो सीटें आरक्षित हैं, जो कुल सीटों का 0.82 प्रतिशत है, जबकि उनकी कुल आबादी 1.68 प्रतिशत है।
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साल 2020 के विधानसभा चुनाव के परिणामों और 243 सीटों पर जीते हुए विधायकों की जातियों को देखें, तो अगड़ी जातियों और पिछड़े तबके में यादव, कुर्मी और कुशवाहा जातियों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के मुकाबले काफी ज्यादा है।
ताजा आंकड़ों में हिन्दू अगड़ी जातियों (ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार व कायस्थों) की एकमुश्त आबादी लगभग 10 प्रतिशत है, लेकिन बिहार विधानसभा की 26 प्रतिशत यानी कि 64 सीटों पर उनका कब्जा है। इनमें सबसे अधिक 28 सीटों पर राजपूत जाति के विधायक है, जो कुल सीटों का 11.5 प्रतिशत है, जबकि ताजा आंकड़ों में उनकी आबादी महज 3.45 प्रतिशत है। वहीं, भूमिहार जाति के कुल 21 विधायक हैं, जो कुल विधायकों का 8.64 प्रतिशत है मगर उनकी कुल आबादी 2.86 प्रतिशत ही है। ब्राह्मणों की आबादी 3.65 प्रतिशत है, लेकिन उनके कुल 12 विधायक विधानसभा में हैं, जो कुल विधायकों का पांच प्रतिशत है।
जाति गणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि यादव जाति की आबादी लगभग 14.26 प्रतिशत है, लेकिन विधानसभा में इस जाति के 52 विधायक हैं, जो कुल विधायकों का 21.39 प्रतिशत है।
इसी तरह बिहार में कुशवाहा जाति की आबादी 4.21 प्रतिशत ही है, लेकिन विधानसभा में इस जाति के 16 विधायक हैं, जो कुल विधायकों का 6.5 प्रतिशत है।
इन आंकड़ों की तुलना अगर 2015 के विधानसभा चुनाव के परिणामों से करें, तो दिलचस्प आंकड़े सामने आते हैं, जो बताते हैं कि भाजपा और राजद चुनावों में किन जातियों को तरजीह देते हैं और उन्हें किन जातियों के ज्यादा वोट मिलते हैं।
साल 2020 के विधानसभा चुनाव में विजेता विधायकों के आंकड़ों में अगड़ी जातियों को ज्यादा बढ़त मिली है क्योंकि इस चुनाव में भाजपा और जदयू एक साथ थे जबकि साल 2015 के चुनाव में यादव व अन्य ओबीसी जातियों के विधायकों की संख्या में तुलनात्मक रूप से इजाफा हुआ था और अगड़ी जातियों के विधायक कम थे। हालांकि तब भी आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व में दोनों ही समूहों को बढ़त दी गई।
आंकड़े बताते हैं कि साल 2015 के विधानसभा चुनाव में, जब राजद और जदयू एक साथ थे, तब यादव, कुर्मी और कुशवाहा जातियों के 93 विधायकों ने जीत दर्ज की थी, जो कुल विधायकों का 38.27 प्रतिशत था, जबकि इन तीनों की एकमुश्त आबादी 21.34 प्रतिशत ठहरती है।
वहीं, उस चुनाव में ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार जाति से 49 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी, जो कुल विधायकों का 20.16 प्रतिशत है, लेकिन उनकी एकमुश्त आबादी महज 9.96 प्रतिशत ही है।
विधानसभा में मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व की बात करें, तो साल 2015 के विधानसभा चुनाव में कुल 24 मुस्लिम विधायकों ने जीत दर्ज की थी, जो कुल विधायकों का 9.8 प्रतिशत है। वहीं, साल 2020 में ये संख्या घट कर 19 हो गई, जो कुल विधायकों का 7.8 प्रतिशत है जबकि मुस्लिमों की आबादी 17.7 प्रतिशत है।
इन आंकड़ों से साफ तौर पर पता चलता है कि विधानसभा में कुछ जातियों को उनकी आबादी के मुकाबले अधिक प्रतिनिधित्व मिला, जबकि बहुत सारी छोटी जातियों का कोई प्रतिनिधि विधानसभा में नहीं पहुंचा।
कैबिनेट में किसका कितना प्रतिनिधित्व
बिहार कैबिनेट में जगह पाने वाले मंत्रियों की जातियों को देखें, तो यहां भी उनकी संख्या के मुकाबले बेहद असमान प्रतिनिधित्व मिला है।
साल 2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू और भाजपा एक साथ थे। उस चुनाव के बाद 14 मंत्री बनाए गये थे, जिनमें अगड़ी जातियों के मंत्रियों की संख्या 4 थी, जो कुल मंत्रियों का 28.5 प्रतिशत था। इतनी ही संख्या ओबीसी जातियों (यादव, कुर्मी व कलवार) की भी थी। वहीं, अनुसूचित जातियों व ईबीसी के मंत्रियों की संख्या क्रमशः 3-3 थी, जो कुल मंत्रियों संख्या का 21.4 प्रतिशत था।
पिछले साल अगस्त में जदयू, एनडीए से अलग हो गया था और राजद के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, तब मंत्रियों की संख्या बढ़ाकर 31 की गई। लेकिन, इस नयी कैबिनेट में भी कुछ खास जातियों को अधिक तरजीह मिली। मसलन कुल मंत्रियों में से एक चौथाई मंत्री केवल यादव जाति से आते हैं। वहीं, 22.5 प्रतिशत मंत्री अगड़ी जातियों राजपूत, ब्राह्मण, भूमिहार और वैश्य से आते हैं। इसके उलट ईबीसी की आबादी 36.1 प्रतिशत है, लेकिन मौजूदा कैबिनेट में उनकी भागीदारी महज 12.9 प्रतिशत (4 मंत्री) है। अनुसूचित जाति की आबादी 19.65 प्रतिशत है, लेकिन बिहार कैबिनेट में उनकी भागीदारी 16.1 प्रतिशत (5 मंत्री) है। इस कैबिनेट में मुस्लिम मंत्रियों की संख्या 5 (16.1 प्रतिशत) है, जो मुस्लिमों की आबादी के लिहाज से संतुलित है। बिहार में मुस्लिमों की आबादी लगभग 17 प्रतिशत है।
हालांकि, चुनावी राजनीति में सभी जातियों को टिकट देकर जिता देना मुमकिन नहीं है, क्योंकि जीत और हार आम लोगों के वोट से तय होता है और राजनीतिक पार्टियां उन्हीं लोगों को टिकट देती है, जिनमें जीतने की संभावना सबसे अधिक होती है। मगर, दूसरे कई रास्ते हैं, जिनके जरिए ऐतिहासिक रूप से सामाजिक भेदभाव झेलने वाले समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सकता है।
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, “राज्यसभा, विधान परिषद, जिला स्तरीय समितियां व अन्य कई क्षेत्र हैं, जहां इन जाति समूहों को प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि इन क्षेत्रों में उन्हीं जातियों को भेजा जाता है, जो संख्या बल में ज्यादा और किसी पार्टी विशेष का कोर वोट बैंक हैं।”
विभिन्न पदों पर सामाजिक भेदभाव झेलने वाले समुदायों के प्रतिनिधित्व की अहमियत को रेखांकित करते हुए महेंद्र सुमन आगे कहते हैं, “अगर वंचित समुदाय के लिए कोई योजना बन रही है, तो उस योजना को बनाने की प्रक्रिया में उस समुदाय की भागीदारी जरूरी है, इसलिए उन्हें प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिए।”
जाति गणना रिपोर्ट में कुछ जातियों के बारे में जो आंकड़े आये हैं, वे अप्रत्याशित हैं क्योंकि उनके बारे में आम राय ये थी कि उनकी आबादी बेहद कम है। मसलन दुसाध की आबादी 5.31 प्रतिशत, चमार की आबादी 5.25 प्रतिशत, मुसहर जाति की आबादी 3.08 प्रतिशत, तेली की आबादी 2.81 प्रतिशत मल्लाह की संख्या 2.6 प्रतिशत और धानुक की आबादी 2.13 प्रतिशत है। इनके अलावा कहार, कुम्हार, बढ़ई आदि जातियों की संख्या भी सामने आ गई है। पूर्व में इन जातियों की आबादी पर कोई बात नहीं होती थी।
अब चूंकि इनकी वास्तविक संख्या सामने आ गई है, तो माना जा रहा है कि इन जातियों के लोग चुनावी राजनीति में अपनी हिस्सेदारी की मांग पुरजोर तरीके से उठाएंगे।
समाज विज्ञानी डीएम दिवाकर कहते हैं, “ये छोटे छोटे जाति समूह अब अपना अलग प्रतिनिधित्व मांगेंगे। इनकी वास्तविक संख्या आ गई है, तो अब बिहार में नया राजनीतिक विन्यास निकल कर सामने आयेगा। विधानसभा चुनाव तक आते-आते वे अपनी भागीदारी को लेकर मुखर होंगे।”
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