बिहार में जाति आधारित गणना में तमाम तामझाम के बावजूद कई छोटी बड़ी गलतियां रह गई हैं। जहाँ एक तरफ सरकार ने सौ से भी कम जनसंख्या वाली भास्कर व जदुपतिया जातियों की गिनती अलग से की है, वहीं हज़ारों-लाखों की आबादी वाली मुसलमानों की कलाल-एराकी व कसेरा-ठठेरा जैसी जातियों को हिन्दू बनिया जातियों से साथ गिना गया है।
बनिया की उपजाति
बिहार जातीय गणना 2023 में कलाल-एराकी व कसेरा-ठठेरा को 122 जाति कोड के साथ बनिया की उपजाति की तरह गिना गया है। इसमें बनिया जाति के अंदर सूढ़ी, मोदक, मायरा, रोनियार, पनसारी, मोदी, कसेरा, केशरवानी, ठठेरा, कलवार, कलाल, एराकी, वियाहुत कलवार, कमलापुरी वैश्य, माहुरीवैश्य, बंगीवैश्य, बंगाली बनिया, बर्नवाल, अग्रहरीवैश्य, वैश्य पोददार, कसौधन, गंधबानिक, बाथम वैश्य और गोलदार को गिना गया है। इस तरह से बनिया की कुल आबादी 30,26,912 यानी करीब 2.3% आई है।
लेकिन, कलाल-एराकी व कसेरा-ठठेरा जैसी पिछड़ी वर्ग की जातियों की स्वतंत्र रूप से गिनती नहीं होने से उनकी सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति के आकड़े सामने नहीं आए पाए हैं। अखिल भारतीय कलाल एराकी महासभा ने अगस्त 2023 में ही बिहार सरकार से इसमें सुधार की गुहार लगाई थी। इमारत-ए-शरिया ने अक्टूबर महीने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नाम एक चिट्ठी लिख कर इस ओर ध्यान आकर्षित कराया था, लेकिन इसमें सुधार किए बिना ही बिहार जाति आधारित गणना के आकड़े जारी कर दिए गए।
क्या बोले कलाल-कसेरा जाति के लोग?
अखिल भारतीय कलाल एराकी महासभा के महासचिव मोहम्मद अबुल फरह कहते हैं कि इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव लंबे समय तक इस बिरादरी के लोगों पर रहेगा।
कसेरा बिरादरी से आने वाले शिक्षक मोहम्मद इस्लाम का जाति प्रमाण पत्र 2006 ही बना था, जिसमें उनकी जाति कसेरा दर्शाई गई है। लेकिन बिहार जातीय गणना 2023 में उनकी जाति को स्वतंत्र रूप से नहीं गिना गया।
अबुल फरह के अनुसार कलाल-एराकी बिरदारी का संबंध विभिन्न व्यावसायिक गतिविधियों से रहा है और बिहार में इनकी आबादी लाखों में है। पूर्व में इस बिरदारी का शराब का व्यापार भी रहा है, जिस वजह से कई कहावत बने और डिक्शनरी में भी ‘कलाल’ शब्द को शराब से जोड़ दिया गया। अबुल फरह आगे कहते हैं, कलाल के मानी ताजवार और नूर भी है और स्वतंत्रता सेनानी मौलाना मोहम्मद अली जौहर भी कलाल बिरादरी से ही ताल्लुक रखते थे।
कलाल-कसेरा जाति की स्थिति
बिहार के गया ज़िले के मोहल्ला गेवाल विगहा में कलाल-एराकी बिरादरी की एक बड़ी आबादी है, जिनमें कई लोग पास के गेवाल विगहा पर चाय, पान, तम्बाकू या मैकेनिक की छोटी-छोटी दुकान चलाकर गुज़ारा करते हैं। इनकी चिंता अब ये है कि जब सरकार ने इनकी स्थिति के आकड़े लिए ही नहीं, फिर इनके हित में काम कैसे होगा।
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उर्दू डिक्शनरी में ‘कसेरा’ का मतलब है तांबे, पीतल या कांसे का बर्तन बनाने और बेचने वाला। किशनगंज शहर की कसेरा पट्टी में कसेरा-ठठेरा की सैकड़ों की आबादी बसती है। मोहम्मद इस्लाम बताते हैं, कसेरा बिरादरी सदियों से तांबे, पीतल या कांसे के बर्तन का काम करते थे। बिहार में इनकी आबादी हज़ारों में है।
कसेरा-ठठेरा के कई लोग आज भी कसेरा पट्टी में स्टील और अल्युमिनियम का काम करते हैं। लेकिन, महंगाई की वजह से धीरे-धीरे उनका काम बंद होता जा रहा है।
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