अररिया जिले का एक अनपढ़ किसान शिमला मिर्च, गाजर के साथ अन्य सब्जियों की खेती कर दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया है। उसकी तकनीकी से की गई खेती का दूसरे किसान भरपूर फायदा उठा रहे हैं। इससे खेतों में सब्जियों की ज्यादा उपज के साथ आमदनी भी दुगनी से ज्यादा हो गई है। इसको देखकर भागलपुर स्थित सबौर कृषि विश्वविद्यालय के द्वारा इन पर खेती को लेकर एक फिल्म भी बनाई गई है। यह फिल्म राज्य के दूसरे किसानों के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रही है।
यह किसान न केवल सब्जी उगाता है बल्कि आधुनिक तकनीक से मछलियों का भी पालन कर रहा है। इस किसान का नाम तफेजुल आलम है। तफेजुल की सब्जियां बाजार में आज अच्छी कीमत पर बिक रही हैं। इनमें ज्यादातर शिमला मिर्च, गाजर और दूसरी सब्जियां होती हैं। उन्होंने यहां ब्रोकली भी उगाने का काम किया है। उनका मानना है कि अगर किसान थोड़ी समझदारी और तकनीक को ध्यान में रखकर खेती करें, तो ज्यादा से ज्यादा उपज ली जा सकती है और खेत की मिट्टी को भी नुकसान नहीं पहुंचेगा।
बिना पाॅली हाउस कर रहे खेती
अररिया ज़िले के अंतिम छोर और पूर्णिया जिले की जलालगढ़ सीमा से सटा हुआ है अररिया प्रखंड की गैड़ा पंचायत का संदलपुर जो आजकल सब्ज़ी की खेती के लिए काफी मशहूर होता जा रहा है।
इसी गांव के किसान तफेजुल आलम ने बिना पाॅली हाउस के शिमला मिर्च की खेती कर वैज्ञानिकों की तकनीक को चुनौती दे रहे हैं। उन्होंने सिर्फ शिमला मिर्च की खेती ही नहीं की है, बल्कि ब्रोकली, बैंगन, खीरा के साथ अब खुद से विकसित की गई तकनीक से गाजर की खेती शुरू की है। तफेजुल के खेत में ढाई से तीन सौ ग्राम के गाजर उग रहे हैं। शिमला मिर्च की खेती के बारे में उन्होंने बताया कि इसके पौधे सितंबर माह में लगाए जाते हैं और अप्रैल माह तक मिर्च तोड़ी जाती है।
उन्होंने बताया कि शिमला मिर्च का हर पौधा अपने जीवनकाल में तकरीबन दस से तेरह किलो शिमला मिर्च देता है।
तफेजुल आलम ने बताया कि पहले उन्होंने ओपन फील्ड में पौधों में सिर्फ गोबर और कुछ बॉयो स्प्रे का प्रयोग किया था है। इस कारण मिर्च के फल काफी ठोस और बड़े हुए, लेकिन ज्यादा पैदावार नहीं हो सकी। “फिर भी हमारे शिमला मिर्च की बाजार में बहुत डिमांड थी और कीमत भी पैंतीस सौ से चार हजार रुपए प्रति सौ किलोग्राम मिली,” उन्होंने कहा।
तफेजुल आलम ने बताया कि खेती में उन्होंने अपने तरीके से प्रयोग किया। पॉली हाउस बनाना तो थोड़ा महंगा था इसके लिए उन्होंने अभी शिमला मिर्च पर प्रयोग करने के लिए नेट हाउस बनाया है। उनका कहना है कि जिस तरह इंसान धूलमिट्टी और बीमारी से बचने के लिए नाक मुँह पर मास्क लगाता है, उन्होंने पौधे को रोग और धूलमिट्टी से बचाने के लिए फिल्टर के नेट से हाउस बनाया है और इसके परिणाम अच्छे आए हैं। “हमारे शिमला मिर्च के पौधे इस नेट के हाउस के अंदर कीटाणुओं के साथ धूल मिट्टी से भी पूरी तरह सुरक्षित हैं। साथ ही मैंने इन पौधों को धागे के जरिए छत से बांध रखा है ताकि ये पौधे गिर ना जाएं और समय-समय पर इन पर आने वाले फलों को भी जांच की जाती है,” उन्होंने कहा।
“हमने पटवन के लिए इन पौधों के नीचे से पाइप से पानी पटाने का काम किया है। साथ ही बहुत कम मात्रा में रसायनिक खाद का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि पौधा लगाने से पहले ही मेड़ पर हमारे द्वारा गोबर के कंपोस्ट खाद को उन्हीं जगहों पर डाला जाता है जहां हमें पौधा लगाकर उनसे फल लेना होता है। अगर दूसरी जगह पर मिट्टी में खाद मिला दिया जाए तो उसका कोई फायदा नहीं होता है, इसलिए वह खाद सिर्फ पेड़ के नीचे ही रहता है और उसका फायदा शिमला मिर्च के पौधों को अच्छी तरह से मिल पाता है,” उन्होंने बताया।
वह कहते हैं, “इन पौधों की देखरेख अपने बच्चों की तरह करता हूं। जो मुझे आनेवाले दिनों में काफी फायदा पहुंचाते हैं, इसलिए हमारे शिमला मिर्च की डिमांड अररिया, फारबिसगंज, पूर्णिया जैसे बाजारों में काफी है। अब तो खरीदार गांव में ही आने लगे हैं।”
कैसे कर रहे गाजर की खेती
गाजर की खेती के बारे में तफेजुल ने बताया कि लोग समतल खेतों में बीज डाल देते हैं, इसलिए गाजर छोटे और पतले होते हैं। उन्होंने अलग तरह का प्रयोग किया। वह खेत में मेड़ बनाकर बीज को गिनती अनुसार खास दूरी पर रोपते हैं। यही वजह है कि उनके खेत का गाजर दस से बारह इंच लंबा और वजन ढाई से तीन सौ ग्राम तथा गहरे ऑरेंज कलर का होता है।
इस मौसम में खेती करने से अप्रैल माह से इसे उखाड़ना शुरू हो जाएगा और उस समय कीमत भी अच्छी मिलती है। तफेजुल आलम ने बताया, “मैंने जिस पद्धति से गाजर की खेती की है, उसमें बीज का कम प्रयोग होता है। मैं जिस तरह से गाजर की खेती करता हूं, उसमें सबसे पहले खेत में मेड़ बनाई जाती है। इन क्यारियों में एक एकड़ में लगभग 400 ग्राम ही बीज लगता है। हां, थोड़ी मजदूरी ज्यादा लगती है। एक एकड़ में मजदूरी और 10 हजार रुपये के बीज के साथ अगर लीज पर मैंने जमीन ले रखी है, तो उसमें भी 15 हजार रुपये का और खर्च जोड़ा जा सकता है। कुल मिलाकर खेत में 30 से 35 हजार रुपए का खर्च आता है।”
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वह एक एकड़ में 400 से 450 क्विंटल गाजर उगा लेते हैं जबकि पहले सामान्य तरीके से की गई खेती में एकड़ में 130 से 150 क्विंटल गाजर ही उग पाता था।
“मेरी तकनीक से की गई खेती में मजदूरी ज्यादा लगती है क्योंकि क्यारी बनाकर 3 इंच की दूरी पर एक एक बीज डालना पड़ता है, जो एक सप्ताह से 10 दिन में पौधे में तब्दील हो जाता है। इस तरह एक गाजर का वजन ढाई सौ से 300 ग्राम तक हो जाता है, क्योंकि इससे बड़े गाजर का उपयोग बाजार में लोग कम मात्रा में करते हैं,” वह कहते हैं। उन्होंने आगे बताया कि वह खेतों में देसी कंपोस्ट खाद ही डालते हैं। कीड़े मकोड़े और खरपतवार को मारने के लिए रसायनिक खाद का बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल किया जाता है। इससे गाजर का स्वाद भी अच्छा होता है और सीरत भी इसकी निखर के आती है।
“कुल मिलाकर अगर सिर्फ 1 एकड़ में सारे खर्च मिला दिए जाएं, तो 4 महीने की खेती में तकरीबन 5 लाख रुपये का फायदा मुझे मिल रहा है,” उन्होंने जानकारी दी।
उन्होंने बताया कि किसानों को चाहिए कि सब्ज़ी की खेती करें, ये काफी फायदेमंद साबित हो रहा है। “मैंने भी पारंपरिक खेती को छोड़ कर सब्ज़ी की खेती 2001 शुरू की थी और आज लाभकारी खेती कर रहा हूं,” उन्होंने कहा।
कृषि विज्ञान केंद्र, अररिया के वरिष्ठ सह प्रमुख वैज्ञानिक विनोद कुमार ने बताया कि तफेजुल आलम की खेती ज़िले के लिए उदाहरण है। किसानों को उनसे टिप्स लेनी चाहिए, जिन्होंने मेहनत और तकनीक का इस्तेमाल कर आज सब्ज़ी की खेती कर ज़िले में पहचान बनाई है।
अररिया कृषि विज्ञान केंद्र की ओर से भी कई बार उनके खेतों का भ्रमण किया गया है और उनकी तकनीकी को दूसरे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। ताकि कम रासायनिक खाद और कम संसाधन में भी अच्छी खेती की जा सके। क्योंकि आजकल रसायनिक खाद का काफी बुरा प्रभाव मिट्टी पर पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि कृषि विश्वविद्यालय सबौर भागलपुर के द्वारा तफेजुल आलम के ऊपर एक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म भी बनाई गई है।
गैड़ा पंचायत में बढ़ा सब्जी उगाने का क्रेज
गैड़ा पंचायत के मुखिया प्रतिनिधि आसिफ हुसैन ने बताया, “तफेजुल से प्रेरित होकर हमारी पंचायत के लगभग सभी किसान पूरी तरह से सब्जी की खेती करते हैं और यहां के किसानों के लिए तफेजुल आलम एक नई राह लेकर आए हैं। यहां खीरा, ककड़ी, बैगन, फूल गोभी, बंदागोभी की बड़े पैमाने पर खेती की जा रही है।”
“हमारे यहां तरबूज और खरबूज की भी खेती सीजन पर बड़े पैमाने पर की जाती है,” उन्होंने कहा।
कई जगह सम्मानित हो चुके हैं तफेजुल
तफेजुल आलम ने बताया कि उनकी तकनीक से की जा रही खेती से बिहार के अन्य जिलों के किसान भी प्रेरित हो रहे हैं। इसके लिए कृषि विभाग की ओर से उन्हें पटना, भागलपुर के सबौर, पूसा जैसी जगहों पर बुलाकर सम्मानित भी किया जा चुका है। कई जगह पर वह खुद जाकर किसानों को खेती की तकनीक बता चुके हैं। लेकिन अभी तक उनके गृह जिले के कृषि विभाग द्वारा इस तरह की खेती को बढ़ावा देने के लिए कोई विशेष पहल नहीं की गई है।
उन्होंने कहा, “अगर कृषि विभाग सहयोग करे, तो हमारा जिला सब्जी की खेती में काफी अलग पहचान बना सकता है। लेकिन, अभी तक कृषि विभाग द्वारा इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है।”
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