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राज्यसभा चुनाव ने उत्तर बंगाल में गोरखाओं के राजनीतिक महत्व पर उठाए सवाल

चुनाव में इस बार ऐसा राजनीतिक समीकरण रहा कि उत्तर बंगाल में राजनीति की धुरी में रहने वाले गोरखाओं के राजनीतिक महत्व पर सवाल उठने लगे हैं। गत चार दशक से भी अधिक समय की परंपरा टूट गई है। इस बार किसी भी राजनीतिक दल ने गोरखा समुदाय से किसी को राज्यसभा के लिए अपना उम्मीदवार नहीं बनाया।

Tanzil Asif is founder and CEO of Main Media Reported By Tanzil Asif |
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पश्चिम बंगाल, गुजरात व गोवा में राज्यसभा की 11 सीटों के लिए 24 जुलाई को मतदान होना है।‌ मगर, पश्चिम बंगाल में यह मतदान नहीं होगा। क्योंकि, यहां की सभी सात सीटें, जिनके लिए वोटिंग होनी थी, के सभी उम्मीदवार निर्विरोध जीत गए हैं। इनमें तृणमूल कांग्रेस के छह उम्मीदवार डेरेक ओ ब्रायन, सुखेंदु शेखर, प्रो. शमीरुल इस्लाम, साकेत गोखले व प्रकाश चिकबड़ाइक शामिल हैं। वहीं, भाजपा की ओर से अनंत राय उर्फ अनंत महाराज शामिल हैं।

गोरखा समुदाय से कोई उम्मीदवार नहीं

इस चुनाव में इस बार ऐसा राजनीतिक समीकरण रहा कि उत्तर बंगाल में राजनीति की धुरी में रहने वाले गोरखाओं के राजनीतिक महत्व पर सवाल उठने लगे हैं। गत चार दशक से भी अधिक समय की परंपरा टूट गई है। इस बार किसी भी राजनीतिक दल ने गोरखा समुदाय से किसी को राज्यसभा के लिए अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। तृणमूल कांग्रेस के छह और भाजपा के एक यानी कुल मिलाकर जो सात राज्यसभा सांसद निर्वाचित हुए हैं, उनमें दो सांसद भाजपा के अनंत महाराज व तृणमूल कांग्रेस के प्रकाश चिकबड़ाइक उत्तर बंगाल से हैं।

भाजपा के अनंत महाराज राजवंशी समुदाय से हैं और कूचबिहार को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग करने वाले संगठन ‘ग्रेटर कूचबिहार पीपुल्स एसोसिएशन’ (जीसीपीए) के एक गुट के प्रमुख हैं। याद‌ रहे कि कूचबिहार से ही 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के बागी निशिथ प्रमाणिक को टिकट देकर लोकसभा में सांसद व केंद्र सरकार में गृह राज्यमंत्री बनाया था, जो कि अभी भी उस पद पर बरकरार हैं। वहीं, प्रकाश चिकबड़ाइक आदिवासी समुदाय से हैं और तृणमूल कांग्रेस के अलीपुरद्वार जिले के अध्यक्ष हैं। उस अलीपुरद्वार से जहां से भाजपा ने गत लोकसभा चुनाव 2019 में अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के पूर्व नेता जान बारला को सांसद और केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों का राज्यमंत्री बनाया, वह भी उसी पद पर बरकरार हैं।


अब, इधर, वर्तमान राज्यसभा चुनाव को लेकर यह सवाल उठने लगा है कि आखिर राजवंशी व आदिवासी समुदाय की तो पूछ हुई, लेकिन गोरखा समुदाय की पूछ क्यों नहीं हुई? यहां तक कि पिछले तीन बार से भाजपा की झोली में दार्जिलिंग संसदीय सीट जा रही है। गत विधानसभा चुनाव में भी दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र की तीन में से दो विधानसभा सीट भाजपा की ही झोली में गई है। इसके बावजूद भाजपा ने भी इस राज्यसभा चुनाव में यहां से किसी को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। तृणमूल कांग्रेस ने भी किसी गोरखा को राज्यसभा का उम्मीदवार नहीं बनाया। जबकि, एक बार छोड़ दें तो गत चार दशक से भी अधिक समय से दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र से ही लगातार किसी गोरखा को ही राज्यसभा भेजा जाता रहा है।

ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या अब गोरखाओं का राजनीतिक महत्व कम हो गया है?

गोरखाओं का राजनीतिक महत्व

इस बारे में पूर्व राज्यसभा सांसद व मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के दार्जिलिंग जिला सचिव समन पाठक का कहना है, “इस बार राज्यसभा चुनाव में राज्य भर से एक भी गोरखा को न चुना जाना चिंता का विषय है। इस पर गोरखा समाज को मंथन करना चाहिए। पश्चिम बंगाल में वर्ष 1977 से 2011 तक लगातार 34 साल माकपा नीत वाममोर्चा सरकार रही, तब तक यह परंपरा सी बन गई थी कि पिछड़े गोरखाओं के कल्याण के लिए राज्यसभा में गोरखा का एक न एक प्रतिनिधि रहेगा।”

उन्होंने आगे कहा, “उसी के तहत दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र से आनंद पाठक, एसपी लेप्चा, बद्री नारायण प्रधान, पीएस गुरुंग, आरबी राई व दावा लामा को राज्यसभा सांसद बनाया गया। यहां तक कि एक गोरखा संतान के रूप में मुझे भी वर्ष 2006 से 2012 तक राज्यसभा में प्रतिनिधित्व दिया गया। मैं राज्यसभा सांसद रहा। हम सभी दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र से ही प्रतिनिधि रहे। वर्ष 2011 में जब वाममोर्चा की सरकार नहीं रही और तृणमूल कांग्रेस की सरकार आ गई, तब 2012 से 2018 हेतु राज्यसभा के लिए यहां से किसी को नहीं चुना गया। इधर, भले ही तृणमूल कांग्रेस ने एक बार 2018 से 2023 के लिए दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र से गोरखा प्रतिनिधि शांता छेत्री को चुना व राज्यसभा सांसद बनाया, लेकिन अब वह भी नहीं हैं।”

“ऐसे ही लोकसभा में भी भाजपा लगातार तीन बार से बाहरी लोगों को ही दार्जिलिंग से सांसद बना रही है, लेकिन दार्जिलिंग के भूमिपुत्र गोरखाओं को कोई महत्व नहीं दे रही है। इस तरह से जो गोरखाओं का राजनीतिक महत्व दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है‌, वह चिंतनीय है। इसके लिए बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के साथ ही साथ गोरखाओं के अपने छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल भी बहुत जिम्मेदार हैं। उन्हें आत्ममंथन करना चाहिए,” उन्होंने कहा।

वहीं दूसरी ओर, इस बारे में निवर्तमान राज्यसभा सांसद व दार्जिलिंग जिला (पार्वत्य) तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष शांता छेत्री का कहना है, “यह कहना गलत है कि गोरखाओं का राजनीतिक महत्व कम हो गया है। यदि हमारा महत्व कम रहता तो हमारा दल तृणमूल कांग्रेस मुझे राज्यसभा सांसद बनाता ही नहीं। उत्तर बंगाल से पहले मुझे ही मौका दिया गया। मैं गोरखा की बेटी हूं। मैं राजसभा सांसद बनाई गई। इस बार भी उत्तर बंगाल की उपेक्षा नहीं की गई है। यहीं के अलीपुरद्वार से प्रकाश चिकबड़ाइक को मौका दिया गया है। इस बार वह राज्यसभा सांसद बने हैं। हमारी मां-माटी-मानुष की नेत्री ममता बनर्जी का आदर्श ही यही है कि गोरखा, आदिवासी, राजवंशी व हरेक समुदाय को साथ लेकर चला जाए। हरेक का विकास हो।‌ हम सब उनके आदर्श को अपना आदर्श मानते हैं।”

“उन्होंने (ममता बनर्जी) दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र और यहां के गोरखाओं का जितना कल्याण और विकास किया है, उतना इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। इसके लिए हम सब उनके आभारी हैं,” वह कहती हैं।

इन दिनों दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र के सबसे प्रभावशाली नेता भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा (बीजीपीएम) के अध्यक्ष अनित थापा भी यही राग अलापते हैं कि गोरखाओं की सबसे बड़ी हितैषी ममता बनर्जी ही हैं और उनसे बड़ा हितैषी कोई नहीं।

“उन्होंने पहाड़ व पहाड़ वासियों के लिए जितना किया है, उतना कभी किसी ने नहीं किया। आज जो पहाड़ पर शांति और विकास की धारा बह रही है, वह सब उनकी ही देन है। भाजपा का हम गोरखाओं ने लगातार 15 सालों तक साथ दिया, लेकिन भाजपा ने हमें सपने दिखाने के अलावा और कुछ भी नहीं किया,” उन्होंने कहा।

वहीं, दार्जिलिंग से सांसद और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजू बिष्ट बार-बार यही दोहराते हैं कि दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र व गोरखाओं का जितना विनाश तृणमूल कांग्रेस ने किया है उतना कभी किसी ने नहीं किया।

वह कहते हैं, “‌गोरखाओं को अलग-अलग जातियों में बांट कर कमजोर करते हुए तृणमूल कांग्रेस ने हमेशा अपनी राजनीतिक रोटी सेंकी है और पहाड़ व पहाड़ वासियों के लिए कल्याण का कार्य कुछ भी नहीं किया है। पहाड़ी दलों के साथ मिलकर भाजपा पहाड़ के स्थायी राजनीतिक समाधान के लिए प्रयासरत है।”

उत्तर बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन

उल्लेखनीय है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को लेकर राजनीतिक पंडितों का मानना है कि गत लोकसभा चुनाव-2019 और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव-2021 के बाद से यहां की राजनीति विशेषकर उत्तर बंगाल की राजनीति में बहुत कुछ परिवर्तन आया है। ‌2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर बंगाल की आठ लोकसभा सीटों में से राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई। एकमात्र मालदा दक्षिण की सीट कांग्रेस के खाते में गई, जबकि, बाकी सारी की सारी सात सीटों पर भाजपा ने कब्जा जमा लिया।

इसी तरह 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में उत्तर बंगाल की 54 विधानसभा सीटों में से सर्वाधिक 30 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की। राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को 23 सीटें ही मिलीं जबकि एक सीट उसके सहायक गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) के विनय तामंग गुट के खाते में ही गई।‌ पश्चिम बंगाल में वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनाव दोनों में ही घाटे के बावजूद तृणमूल कांग्रेस ने अपनी जीत का सिलसिला बरकरार रखा, लेकिन दक्षिण बंगाल की तुलना में उत्तर बंगाल में उसकी जमीन ज्यादा खिसक गई। यही वजह है कि उत्तर बंगाल को साधने में अब तृणमूल कांग्रेस ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है।

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इधर, हाल ही में संपन्न हुए पंचायत चुनाव में राज्य भर की भांति उत्तर बंगाल में भी सर्वत्र तृणमूल कांग्रेस की शानदार जीत पर तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व उत्तर बंगाल के पर्यवेक्षक राजीव बनर्जी ने कहा है कि जमीनी स्तर के चुनाव यानी पंचायत चुनाव की शानदार जीत से हमें पूरी उम्मीद है कि उत्तर बंगाल में अपनी खोई हुई जमीन तृणमूल कांग्रेस वापस पा लेगी। यह पंचायत चुनाव सेमीफाइनल था और अगले वर्ष 2024 में होने वाला लोकसभा चुनाव फाइनल होगा। इस सेमीफाइनल की तरह ही फाइनल में भी तृणमूल कांग्रेस की ही एकतरफा शानदार जीत होगी।

Newly elected Rajya Sabha MPs BJP’s Anant Maharaj and TMC’s Prakash Chik Baraik are from North Bengal

गत लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उत्तर बंगाल में भाजपा के अप्रत्याशित रूप से बढ़े जनाधार में सेंध लगाने के लिए तृणमूल कांग्रेस भी अब अलग ही रणनीति पर चल रही है। वह अब केवल एक-दो जिले में बहुसंख्यक गोरखा समुदाय केंद्रित ही नहीं, बल्कि अन्य 6-7 जिले के बहुसंख्यक राजवंशी व आदिवासी समुदाय केंद्रित राजनीति को भी बहुत गंभीरता से ले रही है। यही वजह है कि इस बार राज्यसभा चुनाव में गत चार दशक से अधिक समय की परंपरा को तोड़ते हुए राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी ने गोरखा समुदाय की जगह आदिवासी समुदाय से प्रतिनिधि को राज्यसभा भेजा है, तो भाजपा ने राजवंशी समुदाय से।‌ केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की यह नई रणनीति उनके मुख्य मिशन 2024 में क्या गुल खिलाती है, यह तो अगले वर्ष होने वाला लोकसभा चुनाव परिणाम ही बताएगा।‌

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तंजील आसिफ एक मल्टीमीडिया पत्रकार-सह-उद्यमी हैं। वह 'मैं मीडिया' के संस्थापक और सीईओ हैं। समय-समय पर अन्य प्रकाशनों के लिए भी सीमांचल से ख़बरें लिखते रहे हैं। उनकी ख़बरें The Wire, The Quint, Outlook Magazine, Two Circles, the Milli Gazette आदि में छप चुकी हैं। तंज़ील एक Josh Talks स्पीकर, एक इंजीनियर और एक पार्ट टाइम कवि भी हैं। उन्होंने दिल्ली के भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) से मीडिया की पढ़ाई और जामिआ मिलिया इस्लामिआ से B.Tech की पढ़ाई की है।

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