नक्सलबाड़ी। एक ऐतिहासिक जगह। पश्चिम बंगाल राज्य के दार्जिलिंग जिला अंतर्गत सिलीगुड़ी महकमा की वह जगह जिसने देश-दुनिया में अपनी एक अलग ही लकीर खींची। आज से आधी सदी पहले जब वहां हथियार उठे थे तब यह जगह सारी दुनिया में सुर्खियों में थी। लेकिन, आज जब वहां से कलम उठने जा रहा है तब कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही।
यह नक्सलबाड़ी वही जगह है जहां आजाद भारत का पहला सशस्त्र संग्राम हुआ था। आज से 55 साल पहले 1967 के मार्च महीने में जब किसानों-मजदूरों ने “जोतदार” यानी जमीन के मालिकान के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया था तब नक्सलबाड़ी का नाम दुनिया भर में छाया था। उस समय किसानों-मजदूरों ने हाथों में हथियार उठा जगह-जगह धावा बोल “जोतदारों” की फसलों व जमीन पर कब्जा कर लिया था।
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उनका कहना था कि फसल उगाने को हाड़-तोड़ मेहनत वे करें और फसल पर हक “जोतदारों” का रहे, ऐसा नहीं चलेगा। किसान-मजदूर भूखे रह जाएं और “जोतदार” मलाई खाएं, ऐसा नहीं चलेगा। इसी के खिलाफ पनपा विद्रोह जंगल में आग की तरह फैल गया। नक्सलबाड़ी व आस-पास के क्षेत्र में इसी तर्ज पर भीषण संग्राम छिड़ गया।
सामंती व्यवस्था के विरुद्ध छिड़े इस संग्राम में दोनों ही ओर के अनगिनत जानें गईं। वो समय बड़ा ही दहशत भरा रहा। मगर, जैसा कि होता है वैसा ही हुआ। शासन-सत्ता ने पूरी कड़ाई से उस विद्रोह का दमन किया। कुछ ही महीनों में विद्रोह शांत पड़ गया। मगर, उसने एक नई लकीर तो खींच ही दी। उसी लकीर पर अब और एक नई लकीर खिंचने जा रही है।
कानू सान्याल के घर को स्कूल बनाने की योजना
नक्सलबाड़ी विद्रोह के अगुआ नेताओं में रहे एक कानू सान्याल का ऐतिहासिक घर अब एक नई मिसाल बनने जा रहा है। वह घर यूं तो झोपड़ीनुमा 15×15 का एक छोटा सा घर है। यहां कानू सान्याल ने अपनी जिंदगी का लंबा समय गुजारा और उन्होंने 78 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस भी ली।
यह वही घर है, जहां 23 मार्च 2010 को उनका शव फंदे से झूलती हालत में पाया गया था। कहते हैं कि उन्होंने आत्महत्या की थी। उनके गुजर जाने के बाद नक्सलबाड़ी के हाथीघीसा ग्राम पंचायत अंतर्गत सेबदुल्लाजोत स्थित उनके घर को संग्रहालय बनाने की कोशिश की गई। एक दशक से भी अधिक समय से वह संग्रहालय बरकरार है।
मगर, उसका कोई खास जलवा नजर नहीं आता। यही वजह है कि अब वहां एक नई इबारत लिखने की शुरुआत की जा रही है। उनके चाहने वालों ने उनके घर को अब बच्चों के स्कूल में तब्दील करने की कोशिश शुरू कर दी है। कानू सान्याल मेमोरियल ट्रस्ट ने इसका प्रस्ताव राज्य सरकार के समक्ष रखा है और जमीन ट्रस्ट को लीज पर दिए जाने की मांग की है।
इसे लेकर नक्सलबाड़ी प्रखंड प्रशासन के माध्यम से भूमि व भूमि सुधार विभाग के दार्जिलिंग जिला प्राधिकार के समक्ष आवेदन दिया गया है। उस जमीन का सर्वेक्षण व मूल्यांकन कर स्थानीय प्रशासन ने उस आवेदन को जिला प्रशासन के माध्यम से राज्य सरकार को अग्रसारित कर दिया है। अब बस, सबको राज्य सरकार की मंजूरी का इंतजार है।
भू-माफिया की थी नजर
उल्लेखनीय है कि जिस जमीन पर कानू सान्याल का घर है, वह लगभग छह डेसीमल जमीन गैर-मजरुआ है। उसका पट्टा भी नहीं है।
उस जमीन पर एक ओर कानू सान्याल का छोटा-सा झोंपड़ीनुमा घर है और बाकी जमीन खाली पड़ी है। वह घर भी, जब तक कानू सान्याल जीवित रहे, तब तक ही गुलजार रहा। उनके ठिकाने के साथ ही साथ, वह घर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) सीपीआई (एमएल) यानी भाकपा (माले) का मुख्यालय भी रहा।
वह और उनके अन्य साथियों ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होकर 1969 में सीपीआई (एमएल) का गठन किया था। जोतदारों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वीकृति नहीं दी थी। इसलिए चारू मजूमदार व कानू सान्याल और उनके गुट के लोग उससे अलग हो गए थे व अपना संगठन सीपीआई (एमएल) बनाया था। कानू सान्याल के गुजर जाने के बाद उनके घर को उनके संग्रहालय के रूप में संरक्षित रखा गया, लेकिन संग्रहालय और जमीन एक दशक से भी अधिक समय से यूं ही अनुपयोगी पड़ी हुई है।
इतना ही नहीं, बीच में भू-माफिया ने भी उस जमीन पर अपनी नजरें गड़ा दी थीं और जमीन के कुछ भाग पर कब्जा भी कर लिया था। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस पर नाराजगी जताई थी। उन्होंने भू-माफिया के विरुद्ध कार्रवाई का निर्देश भी दिया। उसके बाद पुलिस हरकत में आई और सिर्फ वहीं नहीं बल्कि पूरे सिलीगुड़ी महकमा में जगह-जगह भू-माफिया की नकेल कसी। अब वह जमीन भू-माफिया मुक्त है।
अभी है संग्रहालय
कानू सान्याल मेमोरियल ट्रस्ट की सदस्य व सीपीआई (एमएल) की दार्जीलिंग जिला कमेटी की सचिव दीपू हलदर का कहना है कि सीपीआई (एमएल) के संस्थापक जिला महासचिव कानू सान्याल ही थे। वह तीन दशक तक यहीं इसी घर में रहे। उनके संग्राम, सुख-दुख सब कुछ की यादें इस घर से जुड़ी हुई हैं।
वर्तमान में इस घर में कानू सान्याल का चश्मा, डायरी, किताब, टाइप राइटर, कपड़े, बर्तन आदि संरक्षित हैं। सर्वोपरि उनकी यादें संरक्षित हैं, सो, उनके चाहने वाले अनेक लोगों की भावनाएं भी इस घर से जुड़ी हुई हैं। इसीलिए उनके निधन के बाद उनके नाम पर ट्रस्ट का गठन कर ट्रस्ट द्वारा ही उनके घर को संग्रहालय के रूप में संरक्षित रख कर देख-भाल की जा रही है।
ट्रस्ट की ओर से सबसे पहले 2016 में इस घर की जमीन को लीज पर दिए जाने का राज्य सरकार के समक्ष आवेदन किया गया था। तब, राज्य सरकार ने इसके लिए 2 लाख 60 हजार रुपये लीज शुल्क अदा करने को कहा था। उस समय पैसे का बंदोबस्त नहीं हो पाया।
उसके बाद फिर से 2020 में आवेदन दिया गया जिसका राज्य सरकार की ओर से अब तक कोई जवाब नहीं मिला है। मगर, जैसा कि स्थानीय प्रशासन व जिला प्रशासन ने अपनी ओर से उस आवेदन को राज्य सरकार को अग्रसारित कर दिया है, तो उम्मीद है कि राज्य सरकार की मंजूरी भी मिल जाएगी। तब, इसे ढांचागत तौर पर ठीक-ठाक कर यहां छोटे-छोटे बच्चों के लिए स्कूल कायम की जाएगी। अगर ऐसा होता है, तो नक्सलबाड़ी फिर एक नई मिसाल पेश करेगा।
एक ओर जहां संग्रहालय के रूप में यह नक्सलबाड़ी आंदोलन की याद दिलाता रहेगा, वहीं दूसरी ओर बच्चों के स्कूल के रूप में शिक्षा की नई अलख जगा कर समाज को नया संदेश भी देगा।
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इस बारे मे़ नक्सलबाड़ी आंदोलन के अंतिम जीवित विद्रोहियों में से एक और कानू सान्याल की छाया-संगी रहीं सीपीआई (एमएल) की दार्जिलिंग जिला कमेटी की पूर्व सचिव 80 वर्षीया शांति मुंडा का भी यही कहना है, “नक्सलबाड़ी आंदोलन अपने आप में एक बड़ा इतिहास है। यहां नक्सलबाड़ी में जो हमारे आंदोलन व हमारे नेता कानू सान्याल की यादों से समृद्ध उनका एक घर है वह भी अपने आप में एक बड़ा ऐतिहासिक धरोहर है। उसे संरक्षित रखा जाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियां गुजरे कल के इतिहास से रू-ब-रू हो सकें।”
नक्सलबाड़ी में आज के आधुनिक बदलाव पर उनकी राय है, “आज नक्सलबाड़ी में जो बदलाव दिख रहा है वह केवल कंक्रीट का बदलाव है। सामाजिक बदलाव अभी भी कोसों दूर है। आज भी यहां के युवाओं को रोजी-रोटी के लिए बाहर ही जाना पड़ रहा है। कुछ शिक्षित युवा जो सेठ, साहूकारों के यहां या कंपनियों में काम कर रहे हैं, वे भी नए जमाने के शोषित मजदूर ही हैं। व्यवस्था में आम आदमी आज भी महत्वहीन ही है। समाज में जो सच्चा व बेहतर बदलाव आना चाहिए था वह अभी भी नहीं आया है, पर आएगा, जरूर आएगा।”
वह यह भी कहती हैं कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के मर्म को सच्चे अर्थों में समझा ही नहीं गया। इस आंदोलन के नेताओं चारू मजूमदार व कानू सान्याल आदि के विचारों को, आदर्शों को भी आम समाज ने ठीक से नहीं समझा। पर, एक न एक दिन सब समझेंगे और स्वीकारेंगे भी।”
किस हाल में है नक्सलबाड़ी
उनकी यह टीस आज धरातल पर भी नजर आ जाती है। वह यह कि नक्सलबाड़ी से फैला नक्सलपंथ भले आज भी देश-दुनिया में विभिन्न जगहों पर विभिन्न रूपों में कायम है लेकिन खुद नक्सलबाड़ी में उसका उतना महत्व नहीं रह गया है।
चारू मजूमदार व कानू सान्याल आदि के हाथों गठित सीपीआई (एमएल) की संगठन शक्ति भी अब पहले जैसी नहीं रह गई है। वह कई अलग-अलग समूहों में बंट कर बहुत कमजोर हो चुकी है। अब खुद नक्सलबाड़ी में उसका झंडा ढोने वाले इक्के-दुक्के लोग ही बचे रह गए हैं। आज की नई सदी की नई पीढ़ी के लिए तो नक्सलबाड़ी आंदोलन एक अनजान चिड़िया जैसा है।
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नक्सलबाड़ी के अनेक युवाओं ने जहां नक्सलबाड़ी आंदोलन व उसके नेताओं के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट की, वहीं कुछ ने अगर जानकारी रखने की बात कही भी, तो साथ ही यह भी कहा कि वह उस जमाने का आंदोलन था। इस जमाने में उससे क्या लेना-देना। वैसे भी वह आंदोलन हिंसक था और लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। उनका यह भी कहना है कि अगर वह आंदोलन वास्तव में बहुत ही प्रभावशाली रहा, तो यहां कोई प्रभावशाली परिवर्तन क्यों नहीं ला पाया। इसलिए हिंसा की जगह अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए शिक्षा, नौकरी, रोजी-रोजगार ही सर्वोपरि है।
वहीं, नक्सलबाड़ी की बात करें तो यहां अब विकास पांव पसारने लगा है। इसके बीच से गुजरता एनएच-31 अब एशियन हाईवे-2 में तब्दील होकर चकाचक हो गया है। इलाके में बाहर से भी आकर काफी संख्या में लोग बसने लगे हैं। पक्के घर व इमारतें काफी बढ़ गई हैं। गली-गली में भी सड़कें बन गई हैं। रेल स्टेशन छोटा सा है, पर पहले से उसका कायाकल्प हुआ है। बाजार वगैरह पहले से काफी विकसित हुए हैं।
इधर, हाल ही में पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से हाथीघीसा में बिरसा मुंडा कॉलेज भी कायम किया गया है, जिससे यहां के चाय बागान बहुल इलाके के बहुसंख्यक आदिवासी समाज के बच्चों को सहूलियत हुई है। अन्य आधारभूत संरचनात्मक विकास को भी काफी बल मिला है। 2014 से 2019 तक दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र के सांसद रहे एस.एस. अहलूवालिया ने नक्सलबाड़ी के हाथीघीसा गांव को आदर्श गांव बनाने के लिए गोद लिया था। मगर, वह सपना अभी तक सपना ही है।
कानू सान्याल के घर के बारे में समाज के बुद्धिजीवी वर्ग का कहना है कि इस दिशा में शासन-प्रशासन को पूरी तत्परता से आगे आकर कानू सान्याल मेमोरियल ट्रस्ट की योजना को साकार करना चाहिए। यह अपने आप में एक बड़ी मिसाल होगी।
नक्सल आंदोलन की अगली कतार के नेताओं में से एक रहे कानू सान्याल व उनके साथियों के नेतृत्व में 70 के दशक में सशस्त्र विद्रोह के दौरान नक्सल पंथियों द्वारा चीन की तर्ज पर यहां क्रांति का बिगुल फूंकते हुए शैक्षिक व सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचाया गया था।
स्कूल-काॅलेज छोड़ कर युवाओं से नक्सलपंथ की राह पर आगे बढ़ने का आह्वान किया गया था। हथियार उठाने के लिए युवाओं को प्रेरित किया गया था। हालांकि वर्षों बाद नक्सल विचारकों ने अपनी गलती मानी। उन्होंने माना कि सांस्कृतिक विरासत को नुकसान पहुंचाया जाना सही कदम नहीं था। उनसे चीजों को समझने में गलती हुई।
कहा जाता है कि अपनी भूल को वही स्वीकारते हैं, जो साहसी व ईमानदार होते हैं। कानू सान्याल की ईमानदारी व साहस पर किसी को कोई संदेह नहीं रहा है। संगठन के प्रति वे समर्पित थे। खेतिहर मजदूरों, किसानों, दबे-कुचले, शोषितों, पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने हथियार तक उठाए। सशस्त्र आंदोलन के जरिये जमींदारी व सामंती प्रथा पर हमला बोला। यह सब जिस घर से हुआ, मतलब, जिस घर से कभी हथियार उठा कर विद्रोह किया गया उसी घर से अगर आज कलम उठा कर शिक्षा की अलख जगाने का प्रयास हो रहा है, वह अपने आप में बड़ी बात है।
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