हर बार जैसा होता है इस बार भी वैसा ही हुआ है। एक बार चुनाव में जाग कर अगले चुनाव तक सो जाने वाला अलग राज्य ‘गोरखालैंड (Gorkhaland)’ का मुद्दा अब फिर चुनाव में सुर्खियों में आ गया है। गत लोकसभा और विधानसभा चुनावों की ही तरह इस बार गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) चुनाव में यह मुद्दा गरमा गया है।

इसने दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र के तमाम राजनीतिक दलों को दो धड़े में बांट दिया है। एक धड़ा पश्चिम बंगाल राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में है और जीटीए चुनाव चाहता है व उसमें भाग भी ले रहा है। वहीं, दूसरा धड़ा केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) के साथ है और ‘गोरखालैंड (Gorkhaland)’ के जिन्न को जगा कर जीटीए चुनाव का विरोध करने पर तुला है। यहां तक कि केवल राजनीतिक विरोध ही नहीं हो रहा है बल्कि जीटीए चुनाव को अदालत में भी चुनौती दे दी गई है। भाजपा के सहयोगी गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) ने कलकत्ता हाई कोर्ट में याचिकाएं दायर कर एक ओर जहां जीटीए की वैधता को चुनौती दी है, वहीं दूसरी ओर, जीटीए चुनाव पर भी रोक लगाए जाने की मांग की है।
कौन क्या चाहता है?
BJP का धड़ा नहीं लड़ रहा GTA Election
इस मांग की वकालत करते हुए इस धड़े के मुख्य घटक दल भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता व दार्जीलिंग के सांसद राजू बिष्ट बार-बार यही दोहराते आ रहे हैं कि जीटीए अवैध है। उनका कहना है कि पश्चिम बंगाल राज्य की तृणमूल कांग्रेस सरकार ने जीटीए का गठन असंवैधानिक रूप में किया है।

इसके लिए संविधान संशोधन नहीं किया गया। इसकी कोई संवैधानिक स्वीकृति नहीं है। इससे दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र का न तो कोई मसला हल होने वाला है और न ही इस क्षेत्र को व यहां के लोगों को इससे कोई लाभ पहुंचने वाला है। इसलिए जीटीए चुनाव को रोका जाए और संविधान सम्मत रूप में दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र का ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ निकाला जाए। इस मांग को लेकर भाजपा इस बार जीटीए चुनाव नहीं लड़ रही है। उसी की तरह उसके सहयोगी दल जीएनएलएफ, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ रिवोल्यूशनरी मार्क्सिस्ट (CPRM), व अखिल भारतीय गोरखा लीग (अभागोली) आदि भी चुनाव नहीं लड़ रहे हैं।
चुनावी लड़ने वाली पार्टियां
वे पार्टियां जो जीटीए चुनाव लड़ रही हैं उनमें सर्वप्रमुख दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र की नई शक्ति के रूप में उभरी ‘हाम्रो पार्टी’ है। इस पार्टी ने सभी 45 की 45 सीटों पर ही अपने उम्मीदवारों को खड़ा किया है। ‘हाम्रो पार्टी’ के मुखिया अजय एडवर्ड (Ajoy Edwards) खुद भी दार्जीलिंग सदर की तीन नंबर सीट से चुनावी मैदान में हैं।

वहीं, अनित थापा (Anit Thapa) के भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा ने 36 सीटों पर और तृणमूल कांग्रेस (AITC) ने 10 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को खड़ा किया है। जबकि, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) 12 और कांग्रेस मात्र पांच सीटों पर ही अपने उम्मीदवार दे पाई है। इस परिदृश्य में राजनीतिक पंडितों की मानें तो एक और दिलचस्प पहलू भी है। वह यह कि जो दल जीटीए चुनाव का विरोध कर रहे हैं और यह चुनाव नहीं लड़ रहे हैं वे भी वास्तव में यह चुनाव लड़ ही रहे हैं। वह ऐसे कि भले वे दल अपने दलीय चुनाव चिन्ह के साथ चुनाव मैदान में नहीं दिख रहे हैं लेकिन उनके लोग निर्दलीय रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। इस बात को बल इसलिए भी मिलता दिख रहा है कि जीटीए चुनाव में कुल 45 सीटों के लिए जो कुल 318 उम्मीदवार हैं उनमें मात्र 108 ही विभिन्न दलों के हैं बाकी 210 उम्मीदवार निर्दलीय ही हैं।
Bimal Gurung क्या चाहते हैं?
इस बीच, पहले 2007 से 2021 तक भाजपा के और 2021 से अब तक तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी रहे गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJMM) अध्यक्ष बिमल गुरुंग (Bimal Gurung) अपने अलग ही स्टैंड पर हैं। उनका गोजमुमो (GJMM) भी जीटीए चुनाव नहीं लड़ रहा है। उनका कहना है कि वर्ष 2011 में गोरखालैंड टेरिटोरिअल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) को लेकर जो त्रिपक्षीय समझौता हुआ था उसके समस्त प्रावधानों को पूरा-पूरा लागू किया जाए। जीटीए की स्वायत्त शासन व्यवस्था के दायरे में जिन-जिन विभागों को लाया जाना था अब तक बाकी है उन सभी विभागों को इसके दायरे में लाया जाए। इसके साथ ही उसी समझौते के अनुसार दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र से इतर समतल के तराई व डूआर्स क्षेत्र के गोरखा बहुल मौजे भी जीटीए क्षेत्र में शामिल किए जाएं।
कुल 396 मौजे को जीटीए के दायरे में शामिल किये जाने की बात थी। इसके साथ ही दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र की 11 गोरखा जनजातियों को मान्यता दी जाए। दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र का ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ निकाला जाए। ये सब जब तक नहीं हो जाते तब तक जीटीए का चुनाव लंबित रखा जाए। उनका यह भी कहना है कि, जब 2017 से अब तक बिना चुनाव के ही राज्य सरकार की ओर से नियुक्त प्रशासक द्वारा जीटीए चल रहा है तो अभी कुछ और दिन यही व्यवस्था रहे। जब तक उपरोक्त मसले हल नहीं हो जाते तब तक जीटीए चुनाव न हो।
इसके अलावा सीपीआरएम, अखिल भारतीय गोरखा लीग व अन्य कई दलों एवं संगठनों ने भी कमोबेश ऐसे ही राग अलापे हैं। अपनी इन मांगों को लेकर बिमल गुरुंग (Bimal Gurung) ने तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamta Bannerjee) को गत महीने भर के अंदर दो-दो बार चिट्ठी भी लिखी लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। यहां तक कि अपनी मांगों को लेकर उन्होंने बीते 25 मई को दार्जीलिंग के सींगमारी स्थित अपने गोजमुमो कार्यालय में आमरण अनशन भी शुरू किया। मगर, लगभग 100 घंटे बाद 30 मई को उनकी हालत काफी बिगड़ने लगी। तब, भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता व दार्जीलिंग के सांसद राजू बिष्ट अलीपुरद्वार के भाजपाई सांसद व केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री जाॅन बारला और दार्जीलिंग व कर्सियांग के भाजपाई विधायक नीरज जिम्बा व बी.पी. बाजगाइन (बिष्णु प्रसाद शर्मा) संग बिमल गुरुंग से मिलने पहुंचे।

उनका हालचाल लिया और कहा कि जीटीए चुनाव विरोधी उनके आंदोलन में वे साथ-साथ हैं। उसी दिन बिमल गुरुंग को इलाज के लिए आनन-फानन में पड़ोसी राज्य सिक्किम के एसटीएनएम अस्पताल ले जाया गया। वहां छह दिन इलाज के बाद बीते दो जून को वह सिक्किम के एसटीएनएम अस्पताल से वापस दार्जीलिंग आ गए। अभी फिलहाल वह तृणमूल कांग्रेस के साथ ही हैं या भाजपा के हो गए हैं वह रहस्यमयी रूप से अस्पष्ट है।
GTA Election को लेकर अडिग रही ममता सरकार
इधर, इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद पश्चिम बंगाल राज्य की तृणमूल कांग्रेस सरकार मई-जून में जीटीए चुनाव कराए जाने की अपनी बात पर अडिग रही। पश्चिम बंगाल राज्य चुनाव आयोग ने बीती 27 मई को जीटीए चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी। उसके तहत 27 मई से तीन जून तक नामांकन पत्र लेने व दाखिल करने की प्रक्रिया हुई। उसके बाद चार जून को छंटनी और छह जून को नामांकन वापसी की प्रक्रिया को अंजाम दिया गया। अब आगामी 26 जून को मतदान होगा व 29 जून को मतगणना होगी।

इस बारे में तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व जीटीए चुनाव के दलीय प्रभारी और राज्य के मंत्री अरूप विश्वास का कहना है कि, ‘जो लोग दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र के विकास के दुश्मन हैं वे लोग ही जीटीए चुनाव का विरोध कर रहे हैं। पहाड़ व पहाड़ के लोगों के चहुंमुखी विकास के लिए एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में जीटीए जरूरी है। इसके लिए जीटीए चुनाव भी जरूरी है। इक्के-दुक्के छोटे-मोटे नेताओं को छोड़ दें तो पूरा पहाड़ व पहाड़ के सारे लोग जीटीए चुनाव के पक्ष में हैं। इसलिए यह चुनाव हो भी रहा है। हमारी तृणमूल कांग्रेस भी चुनाव लड़ रही है। हमने 10 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। अन्य कई दल विशेष रूप से पहाड़ी दल भी चुनावी मैदान में हैं।’ उन्होंने आगे कहा, ‘पहाड़ की अधिकांश जनता हमारी मां-माटी-मानुष की नेत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में यहां के विकास में विश्वास करती है। दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र व यहां के लोगों का बहुत विकास हुआ है और आगे भी बहुत विकास होगा।’ हालांकि, पहाड़ पर किस दल के साथ तृणमूल कांग्रेस का गठबंधन है? इस बाबत उन्होंने अभी तक कुछ खुलासा नहीं किया है।

किसके साथ है तृणमूल कांग्रेस?
राजनीतिक पंडितों का कयास यही है कि जो दल जीतेगा उसी को तृणमूल कांग्रेस तवज्जो देगी। इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि इसी वर्ष फरवरी-मार्च महीने में हुए दार्जीलिंग नगर पालिका चुनाव में भी तृणमूल कांग्रेस का रवैया ऐसा ही रहा। उस समय भी उसने कुल 32 में से 10 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए। भले ही मात्र दो सीट ही जीत पाई। उस समय भी तृणमूल कांग्रेस ने किसी भी पहाड़ी दल के साथ अपने गठबंधन का खुल्लम-खुल्ला ऐलान नहीं किया। जब चुनाव परिणाम आया और मात्र पांच महीने पहले (नवंबर 2021) गठित अजय एडवर्ड की ‘हाम्रो पार्टी’ 32 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज करते हुए दार्जीलिंग नगर पालिका की सत्ता पर काबिज हुई तो तृणमूल कांग्रेस ने उसका स्वागत किया। खुद तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बीते मार्च-अप्रैल महीने में दार्जीलिंग दौरे पर गईं तो अजय एडवर्ड को आमंत्रित कर उनसे मिलीं, उनका स्वागत व अभिनंदन किया व जीत की बधाई दी।
पूर्व के GTA Election
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2011 में गठन के बाद गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) का पहला चुनाव मार्च-अप्रैल 2012 में हुआ था। उसकी मियाद 2017 में ही पूरी हो गई। मगर, उस समय पहाड़ पर नए सिरे से अशांति उत्पन्न हो गई। फिर, कोरोना महामारी आन पड़ी। इस वजह से जीटीए चुनाव लंबित होता चला गया। राज्य सरकार अपनी ओर से प्रशासक नियुक्त कर जीटीए को चलाती रही। अब जाकर जीटीए का चुनाव हो रहा है। गोरखा बहुल दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र की सदी भर से भी ज्यादा पुरानी अलग राज्य ‘गोरखालैंड’ की मांग को ले तमाम आंदोलनों का हासिल अब तक यही है कि मामला स्वायत्त शासन व्यवस्था के बतौर दार्जीलिंग गोरखा हिल काउंसिल (DGHC) होते हुए गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) तक पहुंचा है।
Gorkhaland, DGHC, GTA
एक नज़र इतिहास पर
‘गोरखालैंड’ एक सपना है। पश्चिम बंगाल राज्य के दार्जीलिंग जिले के पहाड़ी क्षेत्र के बहुसंख्यक गोरखा 100 सालों से भी ज्यादा समय से इस सपने को लेकर आंदोलन करते आ रहे हैं। उनका कहना है कि उनकी भाषा, संस्कृति, इतिहास सब कुछ पश्चिम बंगाल से अलग है इसलिए उनकी शासन व्यवस्था भी अलग होनी चाहिए। सो, अपनी अलग स्वायत्त शासन व्यवस्था के लिए ही उन्हें अलग राज्य गोरखालैंड चाहिए।
यह मांग सबसे पहले 1907 में उठी थी। हिल मेंस एसोसिएशन ऑफ दार्जीलिंग ने इसकी मांग ब्रिटिश सरकार से की थी। फिर, आजाद भारत में 1952 में अखिल भारतीय गोरखा लीग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष यह मांग उठाई थी। 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष भी यह मांग उठाई गई। उसी 80 के दशक में सुभाष घीसिंग (Subhash Ghising) ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) गठित कर नए सिरे से गोरखालैंड की आवाज उठाई। 1986 में बड़ा खूनी आंदोलन हुआ, लगभग 1200 लोगों की जानें गई। तब, जाकर 1988 में केंद्र की कांग्रेस व पश्चिम बंगाल राज्य की माकपा नीत वाममोर्चा सरकार और जीएनएलएफ के सुभाष घीसिंग (Subhash Ghising) के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ।
पहाड़ के लिए स्वायत्त शासन की एक नई व्यवस्था हुई। दार्जीलिंग गोरखा हिल काउंसिल (DGHC) गठित हुआ। सुभाष घीसिंग उसके प्रशासक बने। DGHC द्वारा उन्होंने लगभग 20 वर्षों तक लगातार पहाड़ पर निरंकुश शासन किया। इस दौरान अलग राज्य ‘गोरखालैंड’ की मांग लगभग ठंडी पड़ गई। मगर, सुभाष घीसिंग के दाहिना हाथ रहे बिमल गुरुंग ने उनसे बगावत कर जीएनएलएफ पार्टी छोड़ अपना नया गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJM) गठित करते हुए नए सिरे से गोरखालैंड की मांग बुलंद कर दी।
बिमल गुरुंग का प्रभाव
उस दौरान अपना खोया जनाधार वापस पाने के लिए सुभाष घीसिंग ने दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र की और अधिक स्वायत्तता के लिए छठी अनुसूची के तहत जनजाति परिषद की मांग उठाई, मगर वह काम न आया। बिमल गुरुंग के नेतृत्व में नए सिरे से फिर गोरखालैंड आंदोलन शुरू हुआ। उनके प्रभाव में सुभाष घीसिंग तक को पहाड़ से निर्वासित होना पड़ा। उस आंदोलन में कई जानें गईं। तब, जुलाई 2011 में राज्य की ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार व केंद्र की कांग्रेस सरकार और बिमल गुरुंग के GJM के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ। पहाड़ को और अधिक स्वायत्ता की व्यवस्था हुई।

उसके तहत गोरखालैंड टेरिटोरिअल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) बना। इसका पहला चुनाव 2012 में हुआ। उस समय पहाड़ के सबसे प्रभावशाली नेता बिमल गुरुंग के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJM) ने सभी 45 की 45 सीटों पर एकतरफा जीत हासिल की थी। बिमल गुरुंग GTA के पहले चीफ बने। उनकी मियाद 2017 में पूरी होनी थी। उसी समय उन्होंने पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार पर GTA को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ही रखने और समझौता अनुसार स्वायत्त शासन व्यवस्था न देने का आरोप लगाते हुए एक नई बगावत छेड़ दी।
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पहाड़ एक बार फिर अशांत हो उठा। तब, पश्चिम बंगाल की ममता सरकार ने कठोरतापूर्वक दमन भरा रवैया अपनाया। सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारी हुई। बिमल गुरुंग अपने दाहिना हाथ रौशन गिरि संग भूमिगत होने को बाध्य हुए। क्योंकि, उनके विरुद्ध 100 से अधिक मुकदमे दर्ज हुए थे। अक्टूबर 2017 से अक्टूबर 2021 तक वह भूमिगत रहे। मगर, पहाड़ पर उनका प्रभाव बरकरार ही रहा। उस दौरान 2019 का लोकसभा चुनाव जब आया तब भूमिगत रहते हुए भी उन्होंने ऑडियो, वीडियो वार्ता और पत्र जारी कर-कर के भाजपा के पक्ष में माहौल को बरकरार रखा।
दार्जीलिंग लोकसभा सीट पर भाजपाई उम्मीदवार राजू बिष्ट की जीत सुनिश्चित करवाई। इससे पहले 2009 व 2014 में भी उन्होंने अपने बलबूते दार्जिलिंग लोकसभा सीट भाजपा को जीत दिलाई थी। वह शुरू से ही छोटे राज्यों की समर्थक भाजपा के सहयोगी रहे और बंग-भंग (बंगाल विभाजन) विरोधी तृणमूल कांग्रेस के साथ उनका 36 का आंकड़ा रहा। जब बिमल गुरुंग भूमिगत हो गए तब उनके ही बेहद करीबी सहयोगी रहे बिनय तामंग (Binay Tamang) व अनित थापा (Anit Thapa) ने पश्चिम बंगाल राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी से हाथ मिला लिया।

पश्चिम बंगाल राज्य की ममता सरकार की मेहरबानी से बिनय तामंग जीटीए के प्रशासक बन गए। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJM) दो गुट, बिमल गुरुंग गुट और बिनय तामंग गुट में बंट गया। इसी बीच अजब-गजब चीज हो गई। जैसा कि कोई नहीं जानता कि राजनीति कब कौन सी करवट लेगी और वैसा ही हुआ। वर्ष 2021 में जब पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव आया तब बिमल गुरुंग नए रूप में नजर आए। वह 2007 से 2021 तक लगातार भाजपा के समर्थक रहे। 2017 से 2021 तक भूमिगत रहने के बाद जब अक्टूबर 2021 में वह सार्वजनिक जीवन में लौटे तब वह भाजपा के नहीं बल्कि तृणमूल कांग्रेस के समर्थक के रूप में आए। वहीं, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJM) का बिनय तामंग गुट भी तृणमूल कांग्रेस के साथ ही रहा। इसके साथ ही अनित थापा ने अपना नया भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा बना लिया। वह भी तृणमूल कांग्रेस के साथ ही रहे। मगर, इन सबका तृणमूल कांग्रेस को कोई लाभ नहीं मिल पाया।
विधानसभा चुनाव में दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र की तीन में से दो सीट भाजपा जीत गई। केवल कालिम्पोंग विधानसभा सीट गोजमुमो (बिनय गुट) की झोली में आ पाई। यहां तक कि दार्जीलिंग जिले के सिलीगुड़ी समतल क्षेत्र की तीनों विधानसभा सीट भी भाजपा के ही हाथों में चली गई। ऐसा पहली बार हुआ।
GNLF और Ajoy Edwards
पहाड़ के अन्य दलों की बात करें तो सुभाष घीसिंग के निधन के बाद वर्ष 2015 से जीएनएलएफ को उनके पुत्र मन घीसिंग संभाल रहे हैं। वहीं, जीएनएलएफ से अलग हो कर अजय एडवर्ड ने नवंबर 2021 में अपनी नई ‘हाम्रो पार्टी’ बना ली। यह पार्टी इन दिनों दार्जीलिंग पार्वत्य क्षेत्र की नई शक्ति के रूप में उभरी है। इसी वर्ष फरवरी-मार्च महीने में हुए दार्जीलिंग नगर पालिका चुनाव में कुल 32 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज करते हुए यह सत्ता पर काबिज हुई है। हालांकि, उस चुनाव में खुद अजय एडवर्ड नहीं जीत पाए।
अब जीटीए चुनाव में भी ‘हाम्रो पार्टी’ ने सभी 45 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। ‘हाम्रो पार्टी’ के मुखिया अजय एडवर्ड खुद भी उम्मीदवार हैं। उनका कहना है कि गोरखालैंड की मांग पर हम अब भी कायम हैं। मगर, हमारी शैली अलग है। इसे हम लोकतांत्रिक व राजनीतिक रूप में ही प्राप्त करने की ओर अग्रसर रहेंगे।

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इन दिनों गोरखालैंड के मुद्दे पर पहाड़ के तमाम दल दो धड़े में बट गए हैं। एक धड़ा तृणमूल कांग्रेस के साथ है। वह जीटीए चुनाव चाहता है और उसमें भाग भी ले रहा है। वहीं, दूसरा धड़ा भाजपा के साथ है जो पहाड़ के ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ की बात करता है और जीटीए चुनाव का विरोध कर रहा है। हालांकि, यह ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ क्या है, इसको लेकर अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने कोई खांका सामने नहीं रखा है। कोई अलग राज्य गोरखालैंड तो कोई केंद्र शासित प्रदेश तो कोई पूर्ण स्वायत्त शासन व्यवस्था की बात कर रहा है। अब आगे क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है।
Darjeeling: संक्षिप्त इतिहास
‘दार्जीलिंग (Darjeeling)’ शब्द की उत्पत्ति तिब्बती शब्दों ‘दोर्जी’ (वज्र) व ‘लिंग’ (स्थान/भूमि) से हुई है। इसका अर्थ ‘वज्रभूमि’ होता है। यह शुरुआत में निर्जन पहाड़ी जंगली क्षेत्र था। केवल मात्र लेप्चा जनजाति के कुछेक भिक्षु ही यहां बसते थे। वर्ष 1835 दार्जीलिंग के इतिहास में एक ऐतिहासिक वर्ष है। मगर, इसका इतिहास उससे भी पुराना है।

हिमालय पर्वत श्रृंखला का यह क्षेत्र 1835 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिग्रहण से पहले सिक्किम व नेपाल का हिस्सा था। 1780 से ही नेपाल के गोरखाओं ने लगातार सिक्किम में दखल देना शुरू कर दिया था। 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक गोरखाओं ने सिक्किम के राजा के प्रभुत्व को पूर्व की ओर ढकेलते हुए सीमित कर दिया था। उन्होंने तीस्ता को जीत लिया था व तराई क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया था। उसी बीच अंग्रेजों का आगमन हुआ।
1814 का एंग्लो-नेपाल युद्ध
1814 में एंग्लो-नेपाल युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों से गोरखा हार गए। उनके बीच 1816 में सुगौली की संधि हुई। उसके तहत नेपाल द्वारा सिक्किम के राजा से छीने हुए सभी क्षेत्रों को ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ा। उन क्षेत्रों को 1817 की ‘तेंतुलिया की संधि’ के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी ने सिक्किम के राजा को लौटा दी। मगर, फिर भी बीच-बीच में नेपाल व सिक्किम की झड़प बरकरार ही रही। अंततः 1835 में सिक्किम राजा ने ईस्ट इंडिया कंपनी को यह क्षेत्र उपहार में दे दिया। यह भी कहते हैं कि, अंग्रेजों ने ही सिक्किम से उक्त क्षेत्र को फिर वापस मांग लिया। क्योंकि, हिमालयी क्षेत्र में अपने साम्राज्य व अपने प्रभुत्व के विस्तार हेतु यह क्षेत्र अंग्रेजों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था।
सर्वोपरि यहां का एकदम ठंडा वातावरण यूरोपीय वातावरण जैसा ही था जहां रहना अंग्रेजों के लिए बहुत आरामदायक था। उस समय इसका ज्यादातर भू-भाग निर्जन पहाड़ी जंगली क्षेत्र ही था। अंग्रेजों ने यहां आवश्यक आधारभूत संरचना स्थापित कर अपनी कॉलोनियां बसाई और यहां बसने लगे। 1839 में इसकी आबादी 100 से ज्यादा नहीं थी जो कि एक दशक में बढ़ते-बढ़ते 1849 में 10,000 तक पहुंच गई। अंग्रेजों ने नेपाल, चीन, तिब्बत व भूटान आदि राज्यों को साधने के उद्देश्य से इस क्षेत्र को ‘बफर स्टेट’ (उभयरोधी राज्य) के रूप में ही बरकरार रखा।
Darjeeling: राजशाही डिविजन का हिस्सा
1850 के बाद इस क्षेत्र को ब्रिटिश भारत के राजशाही डिविजन (वर्तमान में बांग्लादेश) में शामिल कर दिया गया। 1905 में जब वायसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल प्रोविंस के विभाजन का निर्देश दिया तब इस दार्जीलिंग क्षेत्र को भागलपुर डिविजन (वर्तमान में बिहार राज्य का जिला) का हिस्सा बना दिया गया। उस समय भागलपुर ‘पश्चिमी बंगाल’ (आज के पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा व झारखंड राज्य का भू-भाग) का एक डिवीजन था। वहीं ‘पूर्वी बंगाल’ में आज के असम व बांग्लादेश आदि क्षेत्र शामिल थे। उक्त बंगाल विभाजन का घोर विरोध हुआ था जिसके फलस्वरूप पुनः 1911 में उसे एकीकृत कर दिया गया। तब, इस दार्जीलिंग क्षेत्र को 1912 में वापस राजशाही डिवीजन के दायरे में ले आया गया। भारत की आजादी के समय 1947 में यह क्षेत्र पश्चिम बंगाल राज्य के अंग के रूप में रह गया। इस क्षेत्र के बहुसंख्यक गोरखा 1907 से ही अपनी अलग स्वायत्त शासन व्यवस्था के तहत अलग राज्य गोरखालैंड की मांग करते आ रहे हैं। मगर, विशेषज्ञों का मानना है कि, भौगोलिक रूप में पड़ोसी देश नेपाल, चीन व भूटान के काफी करीब होने के चलते भारत के लिए इस क्षेत्र का अपना सामरिक महत्व है। यही वजह इस क्षेत्र में छोटा सा राज्य गठित करने के आड़े आ रही है।
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