पूर्वोत्तर भारत का प्रवेशद्वार और उत्तर बंगाल की अघोषित राजधानी सिलीगुड़ी हमेशा से ही पश्चिम बंगाल की राजनीति की बड़ी प्रयोगशाला रहा है। इस बार भी है जब इस महकमा में पंचायत चुनाव होने जा रहे हैं।
यह चुनाव बहुत ही दिलचस्प हो गया है। इसलिए कि एक ओर जहां यह राज्य के सत्तारूढ़ दल तृणमूल कांग्रेस और केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की पहली उम्मीद है तो वहीं दूसरी ओर राज्य में अंतिम सांसें गिन रहे माकपा नीत वाममोर्चा की आखिरी उम्मीद भी है। देश का संभवत: पहला व एकमात्र महकमा परिषद सिलीगुड़ी महकमा परिषद वर्ष 1989 में अपनी स्थापना से लेकर अब तक पूरे 34 सालों से लगातार माकपा नीत वाममोर्चा के ही कब्जे में रहा है।
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मगर, इस बार मामला जरा अलग है। क्योंकि, पश्चिम बंगाल राज्य की सत्ता में एक के बाद एक लगातार तीन बार एकतरफा बहुमत से जीत हासिल करते हुए हैट्रिक लगाने वाली तृणमूल कांग्रेस का मनोबल बहुत ऊंचा है। वहीं, इसी वर्ष 2022 के फरवरी महीने में हुए सिलीगुड़ी नगर निगम चुनाव में भी पहली बार एकछत्र बहुमत से मिली जीत ने तृणमूल कांग्रेस के हौसले को और भी बुलंद कर दिया है।

इन सबके बीच भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी जम कर ताल ठोके हुए है। इसलिए कि, गत वर्ष 2021 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में राज्य में तृणमूल कांग्रेस की एकतरफा जीत के बावजूद सिलीगुड़ी महकमा में दाल नहीं गल पाई। यहां की तीनों विधानसभा सीटों माटीगाड़ा-नक्सलबाड़ी, खोरीबाड़ी और फांसीदेवा में से एक भी सीट तृणमूल कांग्रेस को नहीं मिली। इन तीनों ही सीटों को भाजपा ने जीता।
यह इतिहास में पहली बार हुआ कि यहां भाजपा को जीत नसीब हुई। इतना ही नहीं जिस जिले में सिलीगुड़ी महकमा पड़ता है उस दार्जिलिंग जिले की कुल पांच (सिलीगुड़ी महकमा की तीन विधानसभा सीट समेत) में से पांच विधानसभा सीटों पर ही भाजपा की ही जीत हुई। वहीं, दार्जिलिंग जिले की एकमात्र दार्जिलिंग संसदीय सीट पर भी वर्ष 2009 से अब तक लगातार भाजपा ही बरकरार है। यह और बात है कि दार्जीलिंग संसदीय सीट पर कभी भी भाजपा अकेले अपने बलबूते नहीं जीती। उसे हमेशा पहाड़ के सर्वेसर्वा बिमल गुरुंग के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) के सहारे ही जीत मिली।

मगर, बीते वर्ष 2021 में भाजपा से नाता तोड़ कर बिमल गुरुंग तृणमूल कांग्रेस के पाले में आ बैठे। इसके बावजूद तृणमूल कांग्रेस को कोई फायदा नहीं पहुंचा। दार्जिलिंग जिला के पार्वत्य क्षेत्र की दोनों विधानसभा सीट दार्जीलिंग व कर्सियांग भी पहली बार भाजपा की झोली में चली गई। केवल, दार्जिलिंग जिला से इतर दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र की एकमात्र सीट कालिम्पोंग पर तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) के बिनय तामंग गुट को जीत नसीब हो पाई।
इधर फिर, बिमल गुरुंग डगमगाए हुए हैं। उनकी स्थिति साफ नहीं है कि वह तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं या भाजपा के साथ। वजह तृणमूल कांग्रेस द्वारा उन्हें बहुत ज्यादा महत्व नहीं देना है। हालांकि, भाजपा उन पर खूब डोरे डाल रही है। इन तमाम समीकरणों के बीच यहां कांग्रेस की स्थिति कोई बहुत ज्यादा प्रभावशाली नहीं है। उसे जो मिल जाए वही गनीमत। वहीं, माकपा नीत वाममोर्चा के लिए यह अस्तित्व का सवाल है। यही वजह है कि वाममोर्चा और कांग्रेस ने इस पंचायत चुनाव में गठबंधन कर लिया है।
वाममोर्चा-कांग्रेस गठबंधन
वाममोर्चा व कांग्रेस के लिए इस पंचायत चुनाव में गठबंधन करना बहुत जरूरी भी था। क्योंकि, इसी वर्ष हुए सिलीगुड़ी नगर निगम चुनाव के दौरान दोनों अपनी अकड़ में रहे और वहां की अपनी सत्ता गंवा बैठे। उस चुनाव में वाममोर्चा व कांग्रेस का गठबंधन अजब-गजब रहा। कुछ सीटों पर वे साथ-साथ रहे तो कुछ सीटों पर एक-दूसरे का जम कर विरोध किया।

उस अजब-गजब गठबंधन का परिणाम यह हुआ कि माकपा नीत वाममोर्चा 23 से घट कर चार सीटों वाला हो गया। वहीं, कांग्रेस की सीट चार से घट कर मात्र एक रह गई। भाजपा बढ़़त बनाते हुए दो से पांच सीट वाली हो गई। तृणमूल कांग्रेस 17 से बढ़ कर 37 सीटों पर जा पहुंची। सिलिगुड़ी नगर निगम की कुल 47 में से 37 सीटों पर जीत हासिल करते हुए तृणमूल कांग्रेस एकतरफा बहुमत से सत्ता में आ गई।
कांग्रेस व वाममोर्चा मुख्य विपक्षी दल की कुर्सी भी न पा सके। उस कुर्सी पर भाजपा विराजमान हो गई। सो, उससे सबक लेते हुए इस बार पंचायत चुनाव में वाममोर्चा व कांग्रेस ने एक-दूसरे को ज्यादा नखरे न दिखाने में ही अपनी भलाई समझी। उन्होंने अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार सीटों का बंटवारा करते हुए गठबंधन कर लिया। इन सबके बावजूद यहां चुनावी मामला बड़ा टेढ़ा ही है। क्योंकि, सियासत की किताब में सिलीगुड़ी हमेशा अबूझ पहेली ही रहा है।
यहां नहीं चलती लहर
सिलीगुड़ी में देश व राज्य की राजनीतिक लहर का असर कभी भी बहुत ज्यादा नहीं हो पाया है। अपवाद के रूप में केवल वर्ष 2011 और वर्ष 2021 हैं। 2011 की ममता लहर में वाममोर्चा राज्य की अपनी लगातार 34 सालों (1977 से 2011) की सत्ता तृणमूल कांग्रेस के हाथों गंवा बैठा। उस समय सिलीगुड़ी में भी लगातार 20 साल के माकपाई विधायक और राज्य के नगर उन्नयन मंत्री अशोक भट्टाचार्य को भी अपनी सीट गंवानी पड़ी।
मगर, 2015 में सिलीगुड़ी नगर निगम चुनाव में राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस व केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा की दाल नहीं गल पाई। अशोक भट्टाचार्य के नेतृत्व में माकपा नीत वाममोर्चा ने सिलीगुड़ी नगर निगम की सत्ता की जीत हासिल की। इतना ही नहीं 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भी राज्य भर के विपरीत यहां तृणमूल कांग्रेस का सिक्का नहीं चल पाया। सिलीगुड़ी विधानसभा सीट उसके हाथों से निकल कर पुन: माकपाई अशोक भट्टाचार्य के हाथों में आ गई। तब, अशोक भट्टाचार्य का ‘सिलीगुड़ी मॉडल’ राज्य भर में वाममोर्चा के लिए अंधेरे में उम्मीद की एक लौ बनकर उठा था।
यह मॉडल हालांकि ज्यादा टिक नहीं पाया। 2021 में धराशायी हो गया। उस वर्ष पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में राज्य भर की भांति सिलीगुड़ी में भी माकपा और उसका वाममोर्चा जीरो हो गया। 2022 में सिलीगुड़ी नगर निगम भी वाममोर्चा के हाथों से चला गया।
इसके अलावा अगर 2014 के देश भर की मोदी लहर की बात करें तो भी 2015 के सिलीगुड़ी नगर निगम चुनाव व सिलीगुड़ी महकमा परिषद चुनाव और 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव किसी में भी यहां मोदी लहर नहीं चल पाई। 2019 में भी वही हाल रहा। इधर, 2021 में भाजपा की हालत बेहतर हुई। सिलीगुड़ी की तीन नहीं बल्कि दार्जिलिंग जिला की पूरी पांचों की पांचों विधानसभा सीटें ही भाजपा की झोली में चली गईं। इसलिए शुरू से अब तक राजनीतिक समीकरणों को देखें तो यह अंदाजा लगा पाना बड़ा मुश्किल है कि सिलीगुड़ी में कब कौन सी लहर चलेगी।
जीत: हर किसी का दावा
सिलीगुड़ी में सक्रिय राजनीतिक पार्टियों की बातें करें तो सिलीगुड़ी महकमा परिषद चुनाव-2022 में सब अपनी-अपनी जीत के दावे ठोकने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। लाल पार्टी के मोर्चा यानी वाममोर्चा के मुख्य घटक दल माकपा की पश्चिम बंगाल प्रदेश कमेटी की सचिव मंडली के सदस्य व दार्जीलिंग जिला कमेटी के वरिष्ठ नेता जीवेश सरकार का दावा है कि, ‘सिलीगुड़ी महकमा परिषद में माकपा नीत वाममोर्चा ही था, है, और रहेगा’।
कांग्रेस के दार्जिलिंग जिलाध्यक्ष शंकर मालाकार भी कहते हैं कि, ‘हमारी जो क्षमता है उसी क्षमता में रह कर हम लड़ाई कर रहे हैं। जो भी परिणाम होगा, कबूल होगा। चूंकि, इस बार माकपा नीत वाममोर्चा व कांग्रेस दोनों ही गठबंधन कर चुनाव लड़ रहे हैं सो दोनों को ही फायदा मिलना लाजिमी है। इस बार भाजपा व तृणमूल कांग्रेस विरोधी वोट कांग्रेस व वाममोर्चा के लिए अलग-अलग दो जगह बंटेंगे नहीं बल्कि एक ही जगह गठबंधन को मिलेंगे। सो, हमें फायदा होगा ही होगा’।
इस बाबत गेरुआ पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सिलीगुड़ी सांगठनिक जिला कमेटी के अध्यक्ष विधायक आनंदमय बर्मन का भी अपना ही दावा है कि, ‘जैसे बीते लोकसभा और विधानसभा चुनाव में यहां भाजपा की एकतरफा जीत हुई है वैसे ही सिलीगुड़ी महकमा परिषद चुनाव में भी भाजपा की शानदार जीत होगी’।

वहीं, हरी पार्टी के नाम से जानी जाने वाली तृणमूल कांग्रेस की दार्जिलिंग जिला (समतल) अध्यक्षा पापिया घोष का दावा है कि, ‘जैसे सिलीगुड़ी नगर निगम चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की एकतरफा बहुमत से ऐतिहासिक जीत हुई है वैसे ही सिलीगुड़ी महकमा परिषद में भी तृणमूल कांग्रेस का ही परचम लहराएगा’।
ऐसे में कुल मिला कर यही है कि सिलीगुड़ी लाल, हरी व गेरुआ पार्टी की इज्जत का सवाल बन गया है। यह इसलिए भी बहुत ही अहम है कि पूरे उत्तर बंगाल की दशा व दिशा इसकी अघोषित राजधानी सिलीगुड़ी से ही तय होती है।

युद्ध नहीं महायुद्ध
सिलीगुड़ी महकमा परिषद के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में ग्राम पंचायत, पंचायत समिति व महकमा परिषद तीनों ही स्तर पर एक साथ चुनाव होने जा रहा है। इसकी अधिसूचना पश्चिम बंगाल राज्य चुनाव आयोग द्वारा बीती 27 मई को जारी की गई। उस दिन से दो जून तक नामांकन पर्चे लेने व दाखिल करने की प्रक्रिया हुई। उसके बाद चार जून तक छंटनी और सात जून तक नामांकन वापसी की प्रक्रियाएं पूरी की गईं।
इन दिनों हर राजनीतिक दल की ओर से जगह-जगह चुनाव प्रचार जोरों पर है। अब आगामी 26 जून को मतदान होगा। उसके बाद 29 जून को मतगणना के साथ ही जनादेश सामने आ जाएगा।
उल्लेखनीय है कि सिलीगुड़ी महकमा परिषद में कुल नौ सीटें हैं। इसके अंतर्गत सिलीगुड़ी महकमा के चारों प्रखंडों माटीगाड़ा, नक्सलबाड़ी, खोरीबाड़ी व फांसीदेवा में एक-एक कर कुल चार पंचायत समितियां हैं, जिनकी कुल सीट संख्या 66 है। इन चारों पंचायत समितियों के अंतर्गत कुल ग्राम पंचायतों की संख्या 22 है और उनकी, कुल सीटें 462 हैं।
याद रहे कि इससे पूर्व वर्ष 2015 में यहां चुनाव हुआ था। उसकी मियाद वर्ष 2020 में पूरी हो गई थी। मगर, तब कोरोना महामारी के चलते चुनाव नहीं हो पाया। वह चुनाव अब होने जा रहा है। इसे लेकर राजनीतिक पार्टियों के बीच यूं तो तीनों ही स्तर पर युद्ध है लेकिन महकमा परिषद स्तर पर महायुद्ध है।
ग्राम पंचायत व पंचायत समिति स्तर पर राजनीतिक पार्टियां उतनी जान की बाजी नहीं लगाए हुए हैं जितनी कि सिलीगुड़ी महकमा परिषद पर अपना झंडा फहराने के लिए लगाए हुए हैं।
मगर, होगा क्या? यह तो जनता ही जानती है। सिलिगुड़ी महकमा परिषद क्षेत्र यानी कि सिलीगुड़ी महकमा का ग्रामीण क्षेत्र ज्यादातर चाय बागान और आदिवासी बहुल इलाका है। अब ये किसकी ओर जाएंगे यह तो वक्त ही बताएगा।
इतिहास की बात
देश के संभवत: सबसे पहले व एकमात्र महकमा परिषद, सिलीगुड़ी महकमा परिषद की स्थापना वर्ष 1989 में हुई थी। उससे पहले यह दार्जिलिंग जिले के चार महकमा दार्जिलिंग, कर्सियांग, कालिम्पोंग व सिलीगुड़ी में एक महकमा के रूप में दार्जिलिंग जिला परिषद का अंग था।
दार्जिलिंग जिला परिषद की स्थापना वर्ष 1978 में हुई थी। मगर, उसी बीच गोरखा बहुल दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र की अपनी स्वायत्त शासन व्यवस्था को लेकर आंदोलन भी चल रहा था। मतलब, अलग राज्य गोरखालैंड के लिए आंदोलन। वह आंदोलन सुभाष घीसिंग के गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के नेतृत्व में 80 के दशक के मध्य में चरम पर पहुंच गया। खूब हिंसा हुई।
कहते हैं कि लगभग 1200 लोगों की जानें गईं। तब, अंतत: भारत सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार व जीएनएलएफ के बीच दार्जिलिंग पार्वत्य क्षेत्र को सीमित रूप में अपनी स्वायत्त शासन व्यवस्था दिए जाने का एक समझौता हुआ। उस समझौते के तहत दार्जिलिंग जिले के पार्वत्य क्षेत्र के तीनों महकमा क्षेत्रों दार्जिलिंग, कर्सियांग व कालिम्पोंग को मिला कर वर्ष 1988 में दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) गठित हुआ।

उसके चलते दार्जिलिंग जिला परिषद समाप्त हो गया। तब, दार्जिलिंग जिला के पार्वत्य क्षेत्र से इतर समतल क्षेत्र सिलीगुड़ी महकमा की अलग पंचायती राज व्यवस्था हुई। उसी के तहत 1989 में सिलीगुड़ी महकमा परिषद का गठन हुआ।
दार्जिलिंग जिला परिषद के सभाधिपति रहे माकपाई अनिल साहा सिलीगुड़ी महकमा परिषद के भी पहले सभाधिपति हुए। वह वर्ष 1989 से 2004 तक लगातार 15 सालों तक इस पद पर रहे। उनके बाद मणि थापा (2004-2009) व पास्केल मिंज (2009-2013) ने यह कुर्सी संभाली। फिर, 21 अक्टूबर 2013 से 21 जुलाई 2014 तक ज्योति तिर्की महकमा परिषद की सभाधिपति हुईं। उनके बाद 16 नवंबर 2015 से 11 नवंबर 2020 तक प्रोफेसर तापस कुमार सरकार सिलीगुड़ी महकमा परिषद के सभाधिपति रहे।
ये सभी वाममोर्चा संचालित बोर्ड के माकपाई सभाधिपति ही रहे। अब तक सिलीगुड़ी महकमा परिषद में माकपा नीत वाममोर्चा का ही राज रहा है। कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस केवल विपक्ष में ही रह पाई है। भाजपा को यहां कभी कोई मौका नहीं मिला। इधर, बीते वर्ष 2020 में सिलीगुड़ी महकमा परिषद का चुनाव होना था लेकिन कोरोना महामारी के चलते वह नहीं हो पाया, जो अब जाकर आगामी 26 जून 2022 को होगा। उस दिन मतदान के बाद 29 जून 2022 को मतगणना होगी और जनादेश आएगा।
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