कहते हैं कि जो समाज अपने इतिहास को सहेजना जानता है, वही समाज अपने भविष्य को सफलता के सांचे में ढाल पाता है।
इंसान का इतिहास जीव-विज्ञान के किसी भी मामूली या ग़ैर मामूली किताब में मिल जाता है, मगर पुरखों का इतिहास अगली नस्ल सहज कर रखती, तभी वो आगे की पीढ़ियों तक जाता है।
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किशनगंज में ऐसा ही एक इतिहास है, जिसे सहेजने की जरूरत है, लेकिन अफसोस की बात है कि इसके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है।
किशनगंज के ठाकुरगंज विधानसभा क्षेत्र में एक छोटा परंतु प्राचीन गांव बसता है। लोग इसे चुरली गांव कहकर पुकारते हैं। लगभग 5 हज़ार की आबादी वाला यह गांव एक पुराने खंडहर की वजह से मशहूर है।
जब हम इस खंडहर को तलाशने पहुंचे तो ठाकुरगंज बस स्टैंड से 6 किमी दूर पिपरीथान से पहले एक किनारे पर बस वाले ने हमें उतार दिया। हमें वहां बताया गया कि यहां से कोई छोटी गाड़ी मसलन इलेक्ट्रिक रिक्शा या ऑटो लेकर चुरली गांव जाया जा सकता है।
हमने 2-3 रिक्शे वालों से चुरली इस्टेट ले जाने को कहा, पर उन्हें पता ही नहीं था कि यह चुरली इस्टेट आखिर क्या बला है। फिर खंडहर कहने पर एक रिक्शे वाले ने हामी भरी और हम निकल पड़े चुरली गांव के लिए।
रिकशे वाले ने हमें चुरली इस्टेट के पास उतार दिया। वहां सब्जी, फल, मछली और मोबाइल की कुछ दुकानें थीं। छोटे से पुल के नीचे नहर का पानी बह रहा था। थोड़ा आगे चलने पर खंडहर वाला रास्ता मिल गया।
लगभग 250 वर्ष पुराने इस खंडहर को देखने के लिए यूं तो दूर से लोग आते हैं, लेकिन स्थानीय लोग इसके इतिहास से अनजान हैं।
चुरली एस्टेट बिहार के चुनिंदा ऐतिहासिक एस्टेट्स में से एक है। चुरली एस्टेट का यह खंडहर एक जमाने में जमींदार खुदन लाल सिंह की हवेली हुआ करता था। खुदन लाल सिंह सीमांचल इलाके के सबसे बड़े जमींदारों में से एक थे।
पूर्णिया गजेटियर में चुरली गांव का जिक्र
पूर्णिया गजेटियर में चुरली गांव का जिक्र है, जो बताता है कि अंग्रेजों के वक्त यह गांव कई तरह की गतिविधियों का केंद्र रहा होगा।
गजेटियर में लिखा गया है कि साल 1788 में नेपाली सरदार ने इस गांव में छापेमारी की थी और एक स्थानीय निवासी को पकड़ लिया था। गांव वालों ने इस कार्रवाई के खिलाफ कड़ा प्रदर्शन किया था, जिसके बाद अंग्रेजों को उस व्यक्ति को छोड़ना पड़ा था। लेकिन युवक को इतनी बुरी तरह से पीटा गया था कि कुछ ही दिन बाद उसकी मौत हो गई थी।
इस घटना से ग्रामीणों में बेहद गुस्सा भर गया था। इससे अंग्रेजों में डर बढ़ गया था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि अगर इस गुस्से की अनदेखी की गई, तो इस क्षेत्र से अंग्रेजों का सफाया हो जाएगा।
क्या है इस खंडहरनुमा हवेली का इतिहास?
जब अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश के विभिन्न हिस्सों में पांव पसारना शुरू किया, तो उन्होंने देश के कोने कोने में अपना टैक्स सिस्टम लागू किया। उस समय ब्रिटिश हुकूमत ने कलकत्ता (अभी कोलकाता) को पूर्वी भारत का मुख्यालय बनाया था।
कलकत्ता से महज 400 किमी दूर चुरली एस्टेट के जमींदार खुदन लाल सिंह जमीन से आने वाले कर (टैक्स) का एक हिस्सा ईस्ट इंडिया कंपनी को चुकाया करते थे।
यह वही समय था जब बंगाल का टैगोर एस्टेट ने भी बड़ी तेजी से उत्तर-पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में अपना सिक्का जमाना शुरू कर चुका था। उन्नीसवीं सदी के खत्म होते होते टैगोर एस्टेट की बागडोर महान लेखक रवींद्रनाथ टैगोर ने संभाल ली थी। चुरली एस्टेट ने जमींदारी का अधिकार टैगोर एस्टेट से ही लिया था।
टैगोर एस्टेट बांग्लादेश के राजशाही से लेकर भारत के ओडिशा तक फैला हुआ था। उसी समय चुरली इस्टेट ने भी पूर्वी भारत के एक बड़े से टुकड़े की देखरेख की जिम्मेदारी उठाई हुई थी। चुरली इस्टेट बिहार से लेकर बंगाल के सोनापुर तक फैला था। अंग्रेज़ों के समय खुदन लाल सिंह की हवेली पर ख़ूब रौनकें होती थीं। शाही खाने से लेकर खूबसूरत तालाब और आलीशान हवेली की आरामदायक जिंदगी, ये सब खुदन लाल सिंह, उनके परिवार और कार्यमंडल के खास लोगों के लिए थे।
नेपाल बॉर्डर से महज़ 90 किमी दूर चुरली एस्टेट के मालिक खुदन लाल सिंह के पास बोसरपट्टी और निजागछ के जमींदारी के अधिकार थे, जो उन्होंने टैगोर एस्टेट से प्राप्त किए थे।
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जब भारत में अंग्रेजों की हुकूमत समाप्त हुई, तो जमींदारी अधिनियम को भी खत्म कर दिया गया। 1952 में भूमि निपटान अधिनियम के लागू होने के बाद ज़मींदारों की ज़्यादातर संपत्ति को सरकार ने सील कर दी।
चुरली एस्टेट और टैगोर एस्टेट ने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अदालत में कानुनी लड़ाई लड़ी, मगर उनके हारते ही जमींदारी और चुरली एस्टेट का अंत हो गया।
अंग्रेजों के दौर में उन्नीसवीं सदी में लॉर्ड कार्नवालिस ने जमींदारी प्रणाली की शुरुआत की थी। इस सिस्टम में किसानों और गरीब ग्रामीणों को जमींदारों को टैक्स के तौर पर कुछ पैसे देने होते हैं।
इलाके का जमींदार सारा टैक्स जमा कर अंग्रेजी हुकूमत तक पहुंचाता था। उन्हीं टैक्स का कुछ हिस्सा जमींदारों में बांट दिया जाता था बाकी सब अंग्रेजी हुकूमत के जेब में जाता था।
भारत जब 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ, तो जमींदारी प्रथा अन्य प्रथाएं, जो अंग्रेजों ने शुरू की थी, उन्हें खत्म करने की कोशिश शुरू हुई। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के दो साल बाद जमींदारी अधिनियम को खत्म कर दिया गया और इस तरह धीरे-धीरे जमींदारों की हवेली की शान-ओ-शौकत भी जाती रही।
खंडहर में क्या दिखा
हम खंडहर वाले रास्ते से आगे चलते रहे और कुछ ही कदम की दूरी पर वह खंडहर दिख गया। पुराने और जर्जर खंडहर में अब भी आकर्षण बचा हुआ था। ईंटों और सुरखी से बनी इमारत में बड़े बड़े पेड़ और हरियाली थी। इस हवेली के पीछे ही खुदन लाल सिंह के वंशज अब भी रह रहे हैं। हवेली के पीछे की तरफ मंदिर है और उसके थोड़ा आगे कुछ मकान बने हुए हैं।
उनमे से एक मकान में जब हम पहुंचे, तो हमारी मुलाकात हुई निहारेंदु सिंह से।
81 वर्षीय निहारेंदु सिंह, खुदन लाल सिंह की पांचवीं पीढ़ी हैं। एक दौर में इस इलाके में जमींदार खुदन लाल सिंह के नाम का सिक्का चलता था। आज उनके वंशज निर्धनता में जी रहे हैं।
निहारेंदु सिंह ने हमें बताया कि पिछले 60-70 वर्ष से हवेली की देखरेख न होने के कारण ऐसी हालत हो गई है। हवेली के आगे के स्तंभ टूट गए हैं तथा दीवारों में पेड़ की टहनियां तक निकल आई हैं।
इस हवेली का बनावट कुछ-कुछ कलकत्ता के विक्टोरिया पैलेस या दिल्ली का कनॉट प्लेस जैसी लगाती है।
निहारेंदु सिंह ने हमें हवेली के अंदर रखी 250 साल पुरानी संदूक और सिंहासन रखने की जगह दिखाई। खुदन लाल की हवेली के ऊपर के कमरों तक आने जाने के लिए सीढ़ियों का उपयोग किया जाता था, सीढ़ी वाले कमरों में बड़े बड़े ताले लगे हुए थे। ये ताले कम से कम 70-80 साल पुराने तो होंगे ही।
हवेली में कुल 10 कमरे हुआ करते थे, साथ ही साथ बाहर में बैठक और बरामदा जैसे हॉल भी थे। ऊपर के कमरों में दशकों से कोई नहीं गया, जो इक्का दुक्का लोग घूमने आते हैं, वे बस नीचे के कमरे ही देख पाते हैं।
दो सदी पुरानी हवेली ना जाने कितने राज अपने अंदर दफ़न किये हुए है।
सिंह से हमने जानने की कोशिश की कि राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग क्यों हवेली की देख रेख नहीं करता, तो उन्होंने बताया कि कई सालों पहले कुछ लोग विभाग से आये थे। उन्होंने फोटो वगैरह खींची और जो गए, तो दोबारा नहीं लौटे।
निहारेंदु सिंह इस बात से दुखी हैं कि इतने पुराने एस्टेट की यह हवेली सालों से बंद पड़ी है और कोई भी इसे धरोहर घोषित करवाने में रुचि नहीं लेता।
उनके अनुसार, जिस तरह बाकी ऐतिहासिक धरोहरों का सरकारी विभाग संरक्षण करता आया है, उसी तरह चुरली एस्टेट को भी संरक्षित करना चाहिए था। सिंह कहते हैं कि इस छोटी सी जगह पर भी आसपास के कई जिलों के लोग इस खंडहर को देखने आते हैं।
उनके अनुसार इस पुरानी हवेली को अगर सरकार धरोहर घोषित करती, तो टिकट बेचकर पैसे कमा सकती थी। अपने पूर्वजों की निशानियों को धूल मिट्टी में भस्म होता देख निहारेंदु सिंह दुखी हैं।
खुदन सिंह के वंश के ज्यादातर लोगों ने बड़े शहरों में पलायन कर लिया है। ज्यादातर लोग शहरों में नौकरी करते हैं। जो थोड़े बहुत गांव में ही रह गए हैं, वे खेतीबाड़ी या छोटी-मोटी दुकानें खोलकर जीवनयापन कर रहे हैं।
250 साल पहले कैसा दिखता था चुरली एस्टेट
किशनगंज ज़िले के इस छोटे से गांव में आज भी खूब हरयाली देखी जा सकती है। निहारेंदु सिंह की मानें, तो दो सदी पहले चुरली एस्टेट का नजारा बहुत ही जुदा था।
उनके अनुसार चुरली एस्टेट एक बहती नदी के किनारे था और यहां दार्जिलिंग वाली डीएचआर स्टीम-ट्राम गाड़ी भी चलती थी। मैं मीडिया की पड़ताल में डीएचआर ट्राम गाड़ी वाली बात सच निकली।
दरअसल, साल 1915 में सिलीगुड़ी से किशनगंज तक पहली बार यह ट्राम सेवा शुरू की गई थी। उन्नीसवीं सदी का यह आविष्कार आज भी दार्जिलिंग और उसके आसपास के इलाकों में सेवाएं दे रहा है।
इसे तकनीकी भाषा में डीएचआर (दार्जिलिंग हिमालियन रेलवे) स्टीम ट्रामवे सर्विस कहते हैं।
बताया जाता है कि उस समय चुरली एस्टेट में सिलीगुड़ी व दार्जिलिंग से इसी डीएचआर ट्राम गाड़ियों में चायपत्ती भेजी जाती थी। खुदन लाल सिंह की हवेली में विभिन्न प्रकार के प्रकाश के लिए फानूस लगे थे। दुर्गा पूजा जैसे उत्सवों में लोक-संगीत और बिहारी व बंगाली लोक नृत्यों का आयोजन हुआ करता था।
हमने उनसे पूछा कि वह और खुदन लाल के बाकी वंशज के लोग इस धरोहर को बचाने का प्रयास क्यों नहीं करते, तो उन्होंने कहा, “यहां बचा ही कहां है कोई? सब तो पलायन कर गए हैं। हम बूढ़े लोगों से क्या हो जाएगा। ना हमारे पास पैसा है और ना पहुंच कि हम किसी से अर्जी करें।”
उन्होने आगे कहा, “आज आप लोग आए हैं, तो मैंने इतनी बातें बताईं वरना कोई इस इमारत के बारे में पूछने भी नहीं आता है।”
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