साल 2009 के लोकसभा चुनाव की हलचल के बीच जदयू में भी बड़ा उथलपुथल हुआ था। इस चुनाव में नीतीश कुमार ने ‘खराब स्वास्थ्य’ का हवाला देकर वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस का टिकट काट दिया था। नीतीश के इस फैसले के खिलाफ उन्होंने बगावत का बिगुल फूंकते हुए मुजफ्फरपुर सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भर दिया।
यह कदम नीतीश कुमार को नगवार गुजरा और उन्होंने जॉर्ज को पार्टी से ही निकाल बाहर किया और पार्टी ने जय नारायण प्रसाद निषाद को टिकट दिया। साल 2009 तक जॉर्ज का राजनीतिक जादू खत्म हो चुका था और चुनाव परिणाम में वह स्पष्ट तौर पर दिखा। उस चुनाव में उन्हें महज 22804 वोट मिले और वह पांचवे नंबर पर रहे। निर्दलीय चुनाव लड़ रहे एक छोटे मोटे नेता विजेंद्र चौधरी, जो फिलहाल कांग्रेस में हैं, ने उनसे दोगुना (लगभग 44 हजार) वोट लाया।
नीतीश और जाॅर्ज सियासी तौर पर लम्बे समय तक साथ थे। 1994 में जनता दल को तोड़कर समता पार्टी की स्थापना नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस ने मिलकर की थी।
2009 का यह वाकया एक अजीबोगरीब सियासी घटना थी, जिसमें अपने राजनीतिक संघर्ष के साथी को ही पार्टी से बेदखल कर दिया गया था। भले ही यह लग रहा हो कि 2009 में अचानक यह सब हुआ, मगर सच तो यह है कि इस वाकया से 5-6 साल पहले से ही समता पार्टी में दो खेमे बन गये थे- एक नीतीश कुमार का खेमा और दूसरा जॉर्ज फर्नांडिस का। दोनों ही खेमा एक दूसरे को सीधी नजर से नहीं देखता था। दोनों खेमों के बीच का टकराव साल 2003 में खुलकर सतह पर आ गया था, जब समता पार्टी के प्रवक्ता पीके सिन्हा को पद से हटा दिया गया था। सिन्हा, जॉर्ज के करीबी थे, इसलिए उन्हें पद से हटाकर उनकी जगह नीतीश के करीबी नेता को प्रवक्ता बना दिया गया था।
पीके सिन्हा ने इस कार्रवाई का विरोध करते हुए निर्वाचन आयोग का दरवाजा खटखटाया था। उन्होंने निर्वाचन आयोग को पत्र लिखकर कहा था कि उन पर कार्रवाई और पार्टी की राज्य कमेटी को भंग करना पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र और निर्वाचन आयोग दिशानिर्देश के खिलाफ है। उन्होंने नीतीश कुमार को तानाशाह तक कह दिया था। बाद में उन्होंने अपनी पार्टी बना ली।
2009 में जॉर्ज के साथ जो कुछ हुआ, उसकी पुनरावृति नीतीश कुमार आने वाले सालों में भी करेंगे, उस वक्त किसी ने नहीं सोचा था।
पार्टी से निकाले गये नेताओं की लंबी फेहरिस्त
पिछले कुछ सालों में नीतीश कुमार अपनी पार्टी जदयू के कई बड़े नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा चुके हैं। इनमें शरद यादव, आरसीपी सिंह, प्रशांत किशोर, जीतनराम मांझी शामिल हैं। शरद यादव जनता दल में थे। साल 2003 में जनता दल का समता पार्टी में विलय हो गया और नई पार्टी जदयू अस्तित्व में आई और इसका पहला अध्यक्ष शरद यादव बने। वह साल 2016 तक पार्टी के अध्यक्ष पद पर बने रहे।
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साल 2017 में जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन से नाता तोड़कर भाजपा के साथ सरकार बनाई, तो शरद यादव ने नीतीश कुमार को सत्ता का भूखा कह दिया था और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की भाजपा विरोधी रैली में शामिल हुए थे। उनकी इस कार्रवाई का खामियाजा उन्हें राज्यसभा की सदस्यता खोकर भुगतना पड़ा और बाद में पार्टी को भी अलविदा कहना पड़ा। 2018 में उन्होंने अपनी नई पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल बनाई। लेकिन उनकी पार्टी बिहार की ऊबड़-खाबड़ सियासी जमीन पर कोई जगह नहीं बना सकी और 2022 में उन्होंने अपनी पार्टी का राजद में विलय कर लिया।
इन सियासी घटनाओं की पृष्ठभूमि बताती है कि नीतीश कुमार को अपने किसी भी फैसले को लेकर अपनी पार्टी में किसी तरह का विरोध कतई मंजूर नहीं और वह यह भी नहीं चाहते कि उनकी पार्टी के किसी नेता का कद उनसे ऊपर जाए।
लम्बे समय तक बिहार की राजधानी पटना में रिपोर्टिंग करने वाले वरिष्ठ पत्रकार गंगा प्रसाद कहते हैं, “शुरू में जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने बिहार के विकास के लिए कई अच्छे काम किये। लेकिन बाद के वर्षों में उन्होंने अपनी पूरी राजनीति सिर्फ मुख्यमंत्री बने रहने के लिए की।”
“नीतीश कुमार जब सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे थे, तो वह अक्सर कहते थे कि मैं लकीर नहीं मिटाता हूं, बल्कि उसके बगल में उससे बड़ी लकीर खींचता हूं। जब उनकी पार्टी में किसी नेता की लकीर बड़ी होने लगती है, या वह बड़ी लकीर खींचने की कोशिश करता है, तो नीतीश कुमार उसे किनारे लगा देते हैं, बड़ी लकीर खींचने का उनका यही तरीका है। वह बेहद महात्वाकांक्षी नेता हैं,” गंगा प्रसाद कहते हैं।
“यह उनकी सत्ता में बने रहने की महात्वाकांक्षा ही है कि जिस लालू यादव को उन्होंने भाजपा नेताओं से भी ज्यादा भला बुरा कहा, सत्ता में बने रहने के लिए उनके साथ हाथ मिलाया,” उन्होंने कहा।
पटना के एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार दीपक मिश्रा नीतीश कुमार की इन कार्रवाइयों को उनके भीतर बैठी सियासी असुरक्षा का परिणाम बताते हैं।
दीपक मिश्रा कहते हैं, “वह अपने राजनीतिक करियर को लेकर हमेशा असुरक्षित रहते हैं और पार्टी को पूरी तरह अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं, इसलिए कोई नेता आगे बढ़ता दिखता है, तो उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।”
भाजपा से बढ़ती नजदीकियां
नीतीश कुमार के अपने अहम् के अलावा दिलचस्प बात यह भी है जदयू के शीर्ष नेतृत्व के अलावा दूसरे ज्यादातर नेताओं को नीतीश कुमार की छाया में अपना कोई बड़ा राजनीतिक करियर नहीं दिखता है, इसलिए वे गुपचुप तरीके से दूसरी पार्टियों में अपनी संभावनाएं तलाशने की कोशिश करते रहते हैं। जीतनराम मांझी से लेकर आरसीपी सिंह उन नेताओं की फेहरिस्त में शामिल हैं, जिन्होंने जदयू से इतर अपना राजनीतिक करियर तलाशने की कोशिश की और पार्टी से निकाले गये।
जदयू के एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, “नीतीश कुमार अपनी पार्टी में अहम पदों पर बैठे लोगों की गतिविधियों पर पैनी नजर रखते हैं।”
साल 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये जाने से नाराज होकर नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ लिया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत हुई थी। बिहार में भी पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया था और जदयू की शर्मनाक हार हुई थी। इस हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और जीतनराम मांझी को सीएम बनाया था। लेकिन, 9 महीने बाद ही जीतनराम मांझी को सीएम पद से भी हटाया गया और पार्टी से भी बाहर किया गया व नीतीश कुमार ने फिर एक बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। जीतनराम मांझी पर आरोप लगा कि वह दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले थे और जदयू को तोड़ भाजपा के साथ मिलकर बिहार में एनडीए की सरकार बनाने की कवायद में थे।
जदयू से हटाये जाने के बाद जीतनराम मांझी ने अपनी अलग राजनीतिक पार्टी हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) बना ली। वह कभी एनडीए में रहे, तो कभी महागठंबधन में। फिलहाल वह एनडीए के साथ हैं।
आरसीपी सिंह एक वक्त जदयू में नंबर दो की हैसियत रखते थे। यूपी कैडर के आईएएस अफसर आरसीपी, नीतीश सरकार में प्रधान सचिव रहे। वह जाति से कुर्मी (नीतीश कुमार भी कुर्मी जाति से आते हैं) हैं और उनका गृह जिला नालंदा है, जो नीतीश कुमार का भी गृह जिला है। इन वजहों ने दोनों को एक दूसरे के करीब लाया। आरसीपी सिंह ने साल 2010 में प्रधान सचिव के पद से वीआरएस लिया और जदयू में शामिल हो गये और तुरंत ही नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा का टिकट दे दिया। राज्यसभा के रास्ते वह एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्री भी बने। नीतीश कुमार की जाति (कुर्मी) और उनके ही गृह जिला नालंदा के रहने वाले आरसीपी सिंह को नीतीश कुमार का राजनीतिक वारिश कहा जा रहा था। लेकिन घटनाक्रम कुछ ऐसा हुआ कि आरसीपी सिंह को पार्टी छोड़नी पड़ी।
जदयू छोड़ने के साथ सियासी गलियारे में यह अफवाह तेजी से फैली कि वह भाजपा के बेहद करीब हो गये थे और जदयू के कुछ विधायकों सांसदों को तोड़कर भाजपा के साथ जाने की फिराक में थे। इन अफवाहों के बीच ही नीतीश कुमार को अपनी पार्टी के सांसदों व विधायकों के साथ बैठक करनी पड़ी थी।
हालांकि, आरसीपी जदयू को तोड़ नहीं पाये, मगर भाजपा के साथ उनकी नजदीकी का सबूत जरूर सामने आया, जब वह भाजपा में शामिल हो गये।
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू व राजद का चुनावी प्रबंधन देखने वाले प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया था और 2018 में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया था, लेकिन दो साल बाद 2020 में उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
उपेंद्र कुशवाहा ने तो कई बार जदयू छोड़ा और शामिल हुए। फिलहाल, वह जदयू से अलग हैं और आने वाले समय में वह किस गठबंधन के साथ जाएंगे, यह कुछ महीनों में साफ हो जाएगा। उपेंद्र कुशवाहा ने आखिरी बार जदयू में वापसी इस उम्मीद में की थी कि उन्हें नीतीश कुमार का राजनीतिक वारिस बना दिया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
पत्रकार से राजनेता बने हरिवंश नारायण सिंह, जिन्हें जदयू ने राज्यसभा सांसद बनाया और फिलहाल राज्यसभा में डिप्टी चेयरमैन हैं, पर भी यह आरोप लगा कि उनकी नजदीकी भाजपा से है और संभवतः इसी वजह से उन्हें पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी कमेटी से हटा दिया गया। जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी कमेटी से हरिवंश की विदाई के सवाल पर जो बयान दिया था, उससे स्पष्ट हो जाता है कि जदयू के शीर्ष नेतृत्व को लग रहा था कि उनकी नजदीकी भाजपा से है।
ललन सिंह ने कहा था, “9 अगस्त 2022 को जदयू के एनडीए गठबंधन से बाहर निकलने के बाद से वह (हरिवंश) जदयू की बैठकों में लगातार अनुपस्थित रहते थे। जब दोनों सदन चलते हैं, तब भी पार्टी की हर हफ्ते होने वाली बैठकों में वह गैरहाजिर रहते थे। हो सकता है कि प्रधानमंत्री ने उन्हें बैठकों में हिस्सा लेने से मना किया हो। लेकिन उन्हें राज्यसभा का डिप्टी चेयरमैन भाजपा ने नहीं, बल्कि जदयू ने बनाया है। यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे, जिन्होंने व्यक्तिगत तौर पर सभी क्षेत्रीय दलों के नेताओं से मुलाकात कर हरिवंश को वोट डालने की अपील की थी।”
ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाया
ताजा मामला ललन सिंह का है, जिन्हें पिछले दिनों पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और नीतीश कुमार दोबारा राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये गये। ललन सिंह पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद हैं। आरसीपी सिंह के पार्टी छोड़ने के बाद उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था। हालांकि, ललन सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटने की चर्चा कई रोज से चल रही थी, मगर वह और उनकी पार्टी के दीगर नेता इसे कोरी अफवाह करार दे रहे थे। मगर दिल्ली में पार्टी की हुई बैठक में आधिकारिक तौर पर ललन सिंह के इस्तीफे और नीतीश की ताजपोशी की घोषणा कर दी गई।
पार्टी के नेताओं ने इसे बेहद सामान्य प्रक्रिया करार दिया, लेकिन दिल्ली की बैठक से पहले जिस तरह पार्टी के तमाम नेता ललन सिंह के इस्तीफे की खबर की पर्दादारी कर रहे थे, वह सामान्य ‘ट्रांसफर ऑफ पावर’ जैसा नहीं लगता है। इसमें पार्टी में संभावित टूट, राजद से अवांछित नजदीकी और नीतीश की अपनी महात्वाकांक्षाओं का तड़का है।
बताया जाता है कि ललन सिंह अपनी जदयू पार्टी की जगह राजद के शीर्ष नेताओं के ज्यादा करीब आ गये थे। कुछ लोग तो यह तक दावा करते हैं कि ललन सिंह जदयू के कुछ विधायकों को तोड़कर राजद में शामिल होने की तैयारी में थे। हालांकि ललन सिंह ने इस दावे को सिरे से खारिज किया और ऐसी खबर चलाने वाले एक चैनल को मानहानि का कानूनी नोटिस तक भेज दिया। दूसरा दावा यह है कि लोकसभा चुनाव को लेकर इंडिया गठबंधन में जदयू अपनी दावेदारी मजबूत करना चाहता है, इसलिए नीतीश कुमार ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली है। वहीं, एक थ्योरी यह भी चल रही है कि ललन सिंह, भाजपा पर कुछ अधिक ही हमलावर थे, जिस वजह से भविष्य में जदयू के लिए एनडीए में वापसी मुश्किल हो सकती थी, इसलिए यह कदम उठाना पड़ा।
पत्रकार दीपक मिश्रा कहते हैं, “अव्वल तो जदयू का राजनीतिक जनाधार कमजोर है और दूसरा यह पार्टी बहुत छोटी है, इसलिए इस पार्टी में नेताओं का कोई बड़ा राजनीतिक करियर नहीं है। इसके उलट भाजपा में उनके लिए अपार संभावनाएं हैं, यही वजह है कि पार्टी के नेता भाजपा के करीब हो जाते हैं। भाजपा में केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल व बहुत सारी केंद्रीय कमेटियों का हिस्सा बनने की संभावनाएं हैं। जदयू में वैसी संभावनाएं नहीं है। जो थोड़ी बहुत संभावनाएं हैं भी, वो नीतीश कुमार के रहम-ओ-करम पर ही हैं।”
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