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गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर मंतर में धरना

जुलाई 2011 में राज्य की ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार व केंद्र की कांग्रेस सरकार और बिमल गुरुंग के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ। जिसके बाद गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) बना। छह साल तक पहाड़ शांत रहा।

Sumit Dewan Reported By Sumit Dewan |
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दिल्ली के जंतर-मंतर पर ‘गोरखालैंड एक्टिविस्ट समूह’ ने अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर धरना दिया। धरना में सैकड़ों कार्यकर्ता शामिल हुए और अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर अपनी आवाज़ बुलंद की।

कई वक्ताओं ने कार्यक्रम को संबोधित किया। धरना में सांस्कृतिक गीत और नाटक के माध्यम से भी कलाकारों ने अपनी बात रखी। कार्यक्रम में आए राहुल राय ‘गोरखालैंड एक्टिविस्ट समूह’ के एक कार्यकर्ता हैं। वह बताते हैं कि अलग गोरखालैंड राज्य उनलोगों की एक सौ साल पुरानी मांग है। उन्होंने कहा कि देश के प्रधानमंत्री भी गोरखा लोगों के सपना को अपना सपना बोल चुके हैं, पर प्रधानमंत्री अपना सपना भूल जाते हैं।

क्या है मांग?

आपको बता दें कि दार्जिलिंग क्षेत्र के बहुसंख्यक गोरखा वर्ष 1907 से ही अपनी अलग स्वायत्त शासन व्यवस्था के तहत अलग राज्य गोरखालैंड की मांग करते आ रहे हैं। लोगों का कहना है कि उनकी भाषा, संस्कृति, इतिहास सब कुछ पश्चिम बंगाल से अलग है, इसलिए उनकी शासन व्यवस्था भी अलग होनी चाहिए। जंतर-मंतर के धरने में आए बिक्रम राय कहते हैं कि जिस तरह तामिल लोगों के लिए तामिलनाडु है, बिहारियों के लिए बिहार है, पंजाबी के लिए पंजाब है, उसी तरह गोरखा लोगों के लिये भी गोरखालैंड होना चाहिये।


‘गोरखाओं का सपना मेरा सपना है’

धरने में आई बिंध्या दुक्पा कहती हैं कि वर्तमान भाजपा सरकार ने ही सबसे ज्यादा अलग गोरखालैंड का सपना दिखाया था और प्रधानमंत्री मोदी ने तो यहां तक कह दिया था कि गोरखाओं का सपना उनका सपना है। बिंध्या ने कहा कि भाजपा को अपना वादा पूरा करना चाहिये और इस समस्या का हल ढूंढना चाहिये। उन्होंने आगे कहा कि इस समस्या का परमानेंट हल एक अलग गोरखालैंड राज्य की स्थापना है।

गोरखालैंड आंदोलन का इतिहास

आपको बताते चलें कि आजाद भारत में सबसे पहले 1952 में अखिल भारतीय गोरखा लीग ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष अलग गोरखालैंड की मांग उठाई थी। उसके बाद, 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष भी यह मांग दोहराई गई। 80 के दशक में सुभाष घीसिंग ने गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) गठित कर नए सिरे से गोरखालैंड की आवाज उठाई। इसके बाद 1986 में बड़ा खूनी संघर्ष हुआ, जिसमें लगभग 1200 लोगों की जानें गईं।

अंततः 1988 में केंद्र की कांग्रेस व पश्चिम बंगाल राज्य की माकपा नीत वाममोर्चा सरकार और जीएनएलएफ के सुभाष घीसिंग के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ। समझौते के तहत दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (DGHC) गठित हुआ और सुभाष घीसिंग उसके प्रशासक बने। जिसके बाद अलग गोरखालैंड की मांग ठंडे बस्ते में चली गई।

2007 में एकबार फिर बिमल गुरुंग के नेतृत्व में नए सिरे से गोरखालैंड आंदोलन शुरू हुआ। आन्दोलन इतना प्रभावी था कि दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल के प्रशासक सुभाष घीसिंग तक को पहाड़ से निर्वासित होना पड़ा। आंदोलन में कई जानें गईं।

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जुलाई 2011 में राज्य की ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस सरकार व केंद्र की कांग्रेस सरकार और बिमल गुरुंग के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ। जिसके बाद गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (GTA) बना। छह साल तक पहाड़ शांत रहा।

2017 में एकबार फिर आन्दोलन हुआ और दार्जिलिंग 105 दिनों तक बन्द रहा। हर बार चुनाव से पहले गोरखालैंड आन्दोलन से जुड़े संगठन अलग गोरखालैंड राज्य की मांग उठाते हैं और चुनाव खत्म होते ही मामला ठंडा पड़ जाता है।

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सुमित दिवान पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग ज़िले की ख़बरों पर नज़र रखते हैं।

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