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एमडी मैम! लड़कियां पीरियड में अब भी करती हैं कपड़े का इस्तेमाल

हाल ही में प्रकाशित हुई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 15-24 आयु वर्ग की 49.6 % महिलाएं सैनिटरी पैड की जगह कपड़े का उपयोग करती हैं।

Ariba Khan Reported By Ariba Khan |
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a girl and a diaper

पिछले दिनों यूनिसेफ के सहयोग से आयोजित राज्य स्तरीय कार्यशाला में बिहार की एक छात्रा ने सरकार द्वारा दी जाने वाली मुफ्त साइकिल और स्कूल यूनिफॉर्म जैसी स्कीमों का जिक्र करते हुए सरकार से लड़कियों को मुफ्त सैनिटरी पैड देने की मांग की थी।


इस मांग पर बिहार की महिला आईएएस अफसर व महिला विकास निगम की एमडी (मैनेजिंग डायरेक्टर) हरजोत कौर भड़क गई थीं। उन्होंने छात्रा पर पलटवार करते हुए कहा कि इस तरह की मुफ्तखोरी का कोई अंत नहीं है। “सरकार पहले से ही बहुत कुछ दे रही है। आज आप मुफ्त में नैपकिन का एक पैकेट चाहते हैं। कल आपको जीन्स और जूते चाहिए और बाद में जब परिवार नियोजन की बात आएगी, तो आप मुफ्त कंडोम की भी मांग कर सकते हैं,” कौर ने कहा, “ऐसे लोगों को पाकिस्तान जाना चाहिए।”

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हरजोत कौर की इस टिप्पणी की काफी आलोचना हुई और सवाल पूछने वाली छात्रा का समर्थन किया गया। सेनिटरी पैड बनाने वाली कई कंपनियां सामने आईं और छात्रा को मुफ्त में सैनिटरी पैड देने की घोषणा कर दी।


‘मैं मीडिया’ ने सीमांचल की कुछ छात्राओं से सैनिटरी पैड को लेकर बात की, तो पता चला कि छात्रा ने कार्यक्रम में जो मुद्दा उठाया था, वह ग्रामीण छात्राओं के लिए बेहद गंभीर समस्या है। ग्रामीण इलाकों में छात्राओं के लिए सैनिटरी पैड अब भी पहुंच के बाहर की चीज है और पीरियड्स (माहवारी) के दौरान उन्हें असुरक्षित माध्यमों का सहारा लेना पड़ता है।

शीतल (बदला हुआ नाम) किशनगंज के एक उच्च विद्यालय में 9वीं क्लास की छात्रा है। शीतल की उम्र लगभग 16 साल है और वह अपने पीरियड्स के दौरान ज्यादातर कपड़े का इस्तेमाल करती है, जिससे उसे शारीरिक तौर पर काफी दिक्कत होती है। उसके परिवार के पास हमेशा सैनिटरी पैड्स खरीदने के लिए पैसा नहीं होता। वह तब ही सैनिटरी पैड्स इस्तेमाल कर सकती है, जब उसके परिवार के पास उसे देने के लिए पैसे होते हैं।

हाल ही में प्रकाशित हुई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 15-24 आयु वर्ग की 49.6 % महिलाएं सैनिटरी पैड की जगह कपड़े का उपयोग करती हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) स्थानीय रूप से तैयार किए गए नैपकिन, सैनिटरी नैपकिन, टैम्पोन और मासिक धर्म कप (menstrual cup) को ही सुरक्षा के स्वच्छ तरीके मानता है।

बिहार में 41% महिलाएं अपनाती हैं अस्वच्छ तरीके

पीरियड्स में स्वच्छ तरीकों का उपयोग करने वाली महिलाओं का सबसे कम प्रतिशत बिहार में है। यहां केवल 59% महिलाएं ही पीरियड्स के समय स्वच्छ तरीकों का उपयोग करती हैं। बाकी 41% महिलाएं अपने पीरियड्स के दौरान अस्वच्छ तरीकों का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं।

किशनगंज की रहने वाली हाई स्कूल की छात्रा सीमा (बदला हुआ नाम) बताती है कि जब उसकी मां के पास पैड्स रहते हैं, तो वह दे देती है, और जब नहीं रहता, तो उसको कपड़ा ही इस्तेमाल करना होता है।

“मेरे परिवार में मेरे पापा-मम्मी, दो बड़े भाई और मैं अकेली बहन हूं। मेरे पापा का एक्सीडेंट हो गया था इसलिए वह घर पर ही रहते हैं और मेरे भाई पैसा कमाने के लिए बाहर गए हुए हैं। अभी घर की स्थिति बहुत खराब है, इसलिए हमें सोच समझ कर ही खर्च करना पड़ता है,” सीमा ने बताया।

सैनिटरी पैड के लिए पैसा ट्रांसफर स्कीम कितनी कारगर

साल 2018 में बिहार सरकार ने ‘मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना’ की शुरुआत की थी। इस योजना के तहत सभी सरकारी माध्यमिक विद्यालयों और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में लड़कियों को सैनिटरी पैड खरीदने के लिए उनके बैंक अकाउंट में साल में 300 रुपए भेजे जाते हैं।

सैनिटरी पैड विवाद पर समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी ने कहा था कि लड़कियां जो मांग रही थीं, वह सब पहले से ही सरकार दे रही है। लड़कियों के लिए अलग शौचालय, सैनिटरी पैड वेंडिंग मशीन और सैनिटरी पैड खरीदने के लिए सालाना ₹300 रुपए देने का प्रावधान है।”

लेकिन, जमीन पर यह योजना प्रभावी नहीं है। इसके पीछे कई वजहें हैं। अव्वल तो, नियमित तौर पर पैसा बैंक में आता नहीं है और आता भी है, तो बहुत सारी लड़कियों को पता ही नहीं है कि उनके बैंक अकाउंट में सैनिटरी पैड का पैसा आता है।

दूसरा, जिन्हें मालूम भी है, तो उनके लिए सिर्फ 300 रुपए बैंक से निकालने के लिए लम्बी सफर तय कर शहर जाना होता है, जो उनके लिए मुश्किल है। तीसरी बात यह है कि गरीब परिवारों में कई बार सैनिटरी पैड का पैसा किसी अन्य जरूरी कामों में खर्च हो जाता है।

शालिनी (बदला हुआ नाम) भी सीमांचल के एक उच्च माध्यमिक विद्यालय की छात्रा है। उसने बताया कि उसको इस योजना के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। अलबत्ता, उसके स्कूल की शिक्षक निजी पहल पर सभी लड़कियों से पांच – पांच रुपए इकट्ठे करवाए जाते हैं और अगर किसी लड़की को स्कूल में ही जरूरत पड़ती है, तो वह स्कूल से पैड लेकर इस्तेमाल कर सकती है।

नौंवीं क्लास की एक छात्रा मीनाक्षी (बदला हुआ नाम) ने बताया कि उसने आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई ‘कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय’ से की है, जहां वह हॉस्टल में रहती थी।

मीनाक्षी ने बताया, “हॉस्टल में रहने के समय हमारे बैंक में ₹400 आते थे, लेकिन हमें पता नहीं था कि क्यों आते हैं। हमें आठवीं क्लास की किताबें नहीं दी गई थीं और कहा गया था कि इन ₹400 में किताबें खरीदनी हैं।”

पैड इस्तेमाल करने के सवाल पर वह कहती है कि उसने आठवीं क्लास तक कपड़े का ही इस्तेमाल किया, क्योंकि उस समय परिवार के पास इतना पैसा नहीं था।

“हमारे परिवार में हम पांच बहनें हैं और मम्मी पापा हैं। पापा खिलौने का काम करते हैं। पहले तो हमारे घर का खर्चा ठीक-ठाक चलता था, लेकिन अब दिक्कत आती है क्योंकि पापा ही अकेले हम पांच बहनों का खर्चा उठाते हैं,” मीनाक्षी ने बताया।

बता दें कि ‘कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना’ भारत सरकार द्वारा अगस्त 2004 में शुरू की गई थी। तब इसे सर्व शिक्षा अभियान कार्यक्रम में एकीकृत किया गया था। ये विद्यालय अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक समुदायों और गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों की लड़कियों को मुफ्त में बेहतर शैक्षिक सुविधाएं प्रदान करने के लिए खोले गए थे।

सरकारी दावों के अनुसार, यहां के हॉस्टल में दी गई सुविधाओं के अंतर्गत लड़कियों के लिए आंतरिक वस्त्र और सैनिटरी पैड उपलब्ध करवाना भी शामिल है।

कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय की ही एक पूर्व छात्रा ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “शायद हॉस्टल में सरकार की तरफ से सैनिटरी पैड्स भेजे जाते थे, लेकिन वह हम छात्राओं को कभी नहीं दिए गए।”

सैनिटरी पैड के लिए नकद ट्रांसफर स्कीम में शिक्षक भी झोल देखते हैं। टीईटी टीचर्स एसोसिएशन से जुड़े शिक्षक अमित विक्रम कहते हैं, “बैंक अकाउंट में सैनिटरी पैड के पैसे भेजने वाली स्कीम जमीन पर बिल्कुल काम नहीं कर पा रही है। लड़कियों को सैनिटरी पैड का पैसा हर महीने अकाउंट में नहीं भेजा जाता है जबकि लड़कियों को सैनिटरी पैड की जरूरत हर महीने होती है। कई बार तो पैसा काफी देर से भेजा जाता है।”

“इस मामले में प्रभावी तरीका यह होगा कि छात्राओं को हर महीने पैसे की जगह सैनिटरी पैड ही दे दिया जाए,” उन्होंने कहा।

हर महीने पैसे की जगह सैनिटरी देने के लिए टीईटी टीचर्स एसोसिएशन ने बिहार लोक शिकायत निवारण अधिकार अधिनियम के तहत परिवाद भी दायर किया है, जिसकी सुनवाई 10 अक्टूबर को होनी है।

पीरियड्स के दौरान स्कूल नहीं जाती छात्राएं

पीरियड्स के दरम्यान स्कूल में सैनिटरी पैड नहीं रहने से छात्राओं को दिक्कतें आती हैं और इसका परिणाम यह निकलता है कि बहुत सारी छात्राएं पीरियड्स की अवधि में स्कूल नहीं आती हैं।

कटिहार के आजमनगर के प्रोजेक्ट कन्या उच्च विद्यालय के एक छात्रा ने अपना नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, “हमारे स्कूल में ज्यादातर छात्राएं किशोरावस्था में हैं और इस अवस्था में हर महीने महिलाओं से संबंधित कुछ परेशानियां आती हैं। लेकिन स्कूल के शौचालयों में पानी की व्यवस्था नहीं होने की वजह से पीरियड के दौरान हम लोग स्कूल नहीं जा पाते हैं और क्लास छूट जाती है।”

इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर में एक अध्ययन के हवाले से बताया गया है कि भारत में लड़कियों के पीरियड्स शुरू होने के बाद, उनकी स्कूल छोड़ने की दर 23% है और साल भर में करीब 20% लड़कियां इसी कारण से स्कूल से अनुपस्थित रहती हैं।

बिहार में वुमन हाइजीन पर काम करने वाली संस्था “पोथी पत्री फाउंडेशन” की संस्थापक ऋचा राजपूत कहती हैं, “हमलोग इस फील्ड में कई सालों से काम कर रहे हैं। पटना के तो लगभग सभी सरकारी स्कूलों में हम जा चुके हैं। अब तक हमने बिहार में जितने भी स्कूल विजिट किए हैं, वहां हमने तो नहीं देखा है कि सरकार की तरफ से पैड्स खरीदने के लिए कोई पैसा आता है या पैड्स के लिए वेंडिंग मशीन लगी हुई है।”

ऋचा मानती हैं कि परिवारों में पीरियड को लेकर जागरूकता की कमी की वजह से भी लड़कियों को कपड़े इस्तेमाल करना पड़ता है। “सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाली बच्चियां ज्यादातर कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार से आती हैं जिनके माता-पिता को भी इस बारे में बहुत कम जागरूकता है। अगर सरकार लड़कियों के अकाउंट में पैसा डालती भी है, तो उनके माता-पिता को लगेगा ₹300 इधर खर्च करने से अच्छा है कि हम उन पैसों में त्यौहार पर कपड़े बना लें। क्योंकि पीरियड्स में तो कपड़ा भी यूज कर सकते हैं। इसलिए आपको माता-पिता को भी जागरूक करना जरूरी है।”

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अरीबा खान जामिया मिलिया इस्लामिया में एम ए डेवलपमेंट कम्युनिकेशन की छात्रा हैं। 2021 में NFI fellow रही हैं। ‘मैं मीडिया’ से बतौर एंकर और वॉइस ओवर आर्टिस्ट जुड़ी हैं। महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर खबरें लिखती हैं।

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5 thoughts on “एमडी मैम! लड़कियां पीरियड में अब भी करती हैं कपड़े का इस्तेमाल

  1. शानदार रिपोर्ट 👌 इस प्रकार की स्टोरी ज्यादा लोगों तक पहुंचनी चाहिए।

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