अररिया: जिले में थैलेसीमिया के मरीजों की संख्या बढ़ रही है। इसको लेकर स्वास्थ्य विभाग भी चिंतित है। वैसे बच्चों को ब्लड चढ़ाने के लिए सदर अस्पताल से मुफ्त में ब्लड उपलब्ध कराया जा रहा है, लेकिन जिले में खून की उपलब्धता मांग के मुकाबले कम है।
बता दें कि थैलेसीमिया के मरीजों को नियमित रूप से खून चढ़ाया जाता है तभी उनकी जिंदगी बची रहती है। स्वास्थ्य विभाग से मिली जानकारी के अनुसार जिले में 47 बच्चे थैलेसीमिया से ग्रसित हैं। इन्हें डॉक्टर की सलाह के मुताबिक नियमित खून चढ़ाना जरूरी है। थैलेसीमिया के मरीजों के लिए खून का इंतेजाम स्वास्थ्य विभाग करता है। इसके लिए सदर अस्पताल परिसर स्थित ब्लड बैंक से उन मरीजों को आवश्यकता अनुसार खून उपलब्ध कराया जाता है।
सदर अस्पताल के प्रभारी अधीक्षक सह थैलेसीमिया विभाग के नोडल पदाधिकारी डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बताया कि जिले में लगातार थैलेसीमिया के मरीजों की संख्या बढ़ रही है, जो चिंता का विषय है। अभी जिले में थैलेसीमिया के 47 मरीज हैं। इनमें जीरो से 15 वर्ष के बच्चे शामिल हैं।
उन्होंने बताया कि इनमें थैलेसीमिया से ग्रसित 30 बच्चों को महीने में एक बार ब्लड चढ़ाया जाता है। बाकी 17 बच्चों को महीने में दो या तीन बार खून चढ़ाने की जरूरत होती है। इनमें ज्यादातर बच्चे बी और ओ पॉजिटिव ग्रुप के हैं, जिनको आसानी से खून मिल जाता है। तीन बच्चे ओ निगेटिव और एक एबी निगेटिव ब्लड ग्रुप के हैं। निगेटिव ग्रुप के खून की काफी कमी होती है। उसके लिए एसएसबी के जवान और निजी संस्था द्वारा दान किये गए खून से पूरा किया जाता है।
उन्होंने बताया कि ऐसे मरीजों को स्वास्थ्य विभाग की ओर से निशुल्क खून उपलब्ध कराया जाता है और अस्पताल परिसर स्थित पीकू वार्ड में इन्हें ब्लड चढ़ाने की भी व्यवस्था है, जहां मरीज की देखभाल के लिए कई विशेषज्ञ, नर्स और दूसरे कर्मचारी मौजूद रहते हैं।
क्या है थैलेसीमिया
यह खून का एक विकार है, जिसमें ऑक्सीजन वाहक प्रोटीन सामान्य से कम मात्रा में होते हैं।
थैलेसीमिया एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाने वाली खून से संबंधी बीमारी है, जो शरीर में सामान्य के मुकाबले कम ऑक्सीजन ले जाने वाले प्रोटीन (हिमोग्लोबिन) और कम संख्या में लाल रक्त कोशिकाओं से पहचानी जाती है।
शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ मोइज ने बताया कि
थैलेसीमिया बच्चों को माता-पिता से अनुवांशिक तौर पर मिलने वाला रक्त-रोग है। इस रोग के होने पर शरीर की हिमोग्लोबिन निर्माण प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है जिसके कारण रक्तक्षीणता के लक्षण प्रकट होते हैं। इसकी पहचान तीन माह की आयु के बाद ही होती है। इसमें रोगी बच्चे के शरीर में रक्त की भारी कमी होने लगती है जिसके कारण उसे बार-बार बाहरी खून चढ़ाने की आवश्यकता होती है। उन्होंने बताया कि सूखता चेहरा, लगातार बीमार रहना, वजन ना बढ़ना आदि थैलेसीमिया के लक्षण हैं।
दो तरह के होते हैं थैलेसीमिया
थैलासीमिया दो प्रकार का होता है। यदि पैदा होने वाले बच्चे के माता-पिता के जींस में माइनर थैलेसीमिया होता है, तो बच्चे में मेजर थेलेसीमिया हो सकता है, जो काफी घातक हो होता है। किन्तु अगर सिर्फ माता या पिता में से किसी एक को ही माइनर थैलेसीमिया होने पर बच्चे को खतरा नहीं होता।
यदि माता-पिता दोनों को माइनर रोग है, तब भी बच्चे को यह रोग होने की आशंका 25 प्रतिशत होती है। अतः यह अत्यावश्यक है कि विवाह से पहले महिला-पुरुष दोनों अपनी जाँच करा लें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में हर वर्ष सात से दस हजार थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों का जन्म होता है। केवल दिल्ली व राजधानी क्षेत्र में ही यह संख्या 1500 के करीब है। भारत की कुल जनसंख्या का 3.4 प्रतिशत हिस्सा थैलेसीमिया ग्रस्त है।
थैलेसीमिया का कोई इलाज नहीं
विशेषज्ञ के अनुसार, इस रोग का फिलहाल कोई ईलाज नहीं है।
लेकिन, खून के अलावा थैलेसीमिया के मरीजों को लाल कोशिकाओं वाला मांस, कलेजी, मूंगफली का मक्खन, बीफ, गेहूं की क्रीम, शिशु अनाज, तरबूज, आलूबुखारा, मटर, पालक, किशमिश, ब्रोकली और हरी पत्तेदार सब्जियां आदि खिलाना लाभदायक होता है। थैलेसीमिया के मरीजों के लिए कैल्शियम बेहद महत्वपूर्ण पोषक तत्व है।
हिमोग्लोबिन दो तरह के प्रोटीन से बनता है अल्फा ग्लोबिन और बीटा ग्लोबिन। थैलेसीमिया इन प्रोटीन में ग्लोबिन निर्माण की प्रक्रिया में खराबी होने से होता है। इस कारण लाल रक्त कोशिकाएं तेजी से नष्ट होती हैं। रक्त की भारी कमी होने के कारण रोगी के शरीर में बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। रक्त की कमी से हिमोग्लोबिन नहीं बन पाता है। और बार-बार रक्त चढ़ाने के कारण रोगी के शरीर में अतिरिक्त लौह तत्व जमा होने लगता है, जो हृदय, यकृत और फेफड़ों में पहुंच कर भारी नुकसान पहुंचा सकता है।
मुख्यतः इस रोग को दो वर्गों में बांटा गया है। पहला मेजर थैलेसीमिया होता है। यह बीमारी उन बच्चों में होने की आशंका अधिक होती है, जिनके माता-पिता के जींस में थैलेसीमिया होता है। दूसरा माइनर थैलेसीमिया होता है। माइनर थैलेसीमिया उन बच्चों को होता है, जिन्हें थैलेसीमिया से प्रभावित जीन माता-पिता दोनों में से किसी एक से प्राप्त होता है। जहां तक बीमारी की जांच की बात है, तो रक्त जांच के समय लाल रक्त कणों की संख्या में कमी और उनके आकार में बदलाव की जांच से इस बीमारी को पकड़ा जा सकता है।
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थेलेसीमिया पीड़ित बच्चों के इलाज में काफी बाहरी रक्त चढ़ाने और दवाइयों की आवश्यकता होती है। इस कारण सभी इसका इलाज नहीं करवा पाते हैं। इस वजह से 12 से 15 वर्ष की आयु में बच्चों की मृत्य हो जाती है। सही इलाज करने पर 25 वर्ष व इससे अधिक उम्र तक जीने की उम्मीद होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, रक्त की जरूरत भी बढ़ती जाती है।
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