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Darjeeling Lok Sabha Seat: जहां नहीं गलती राष्ट्रीय दलों की दाल, फिर भी जीतते हैं राष्ट्रीय दल

अब जबकि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को बस कुछ ही महीने बचे हैं, तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि इस चुनाव में दार्जिलिंग से सांसद कौन होगा? इस बारे में राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस बार ‘भूमिपुत्र’ बनाम ‘बाहरी’ का मुद्दा किसी की भी उम्मीदवारी में अहम रहेगा।‌ इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र के कर्सियांग के भाजपा विधायक बी.पी. बजगाईं अपने ही दल भाजपा से दार्जिलिंग के सांसद राजू बिष्ट के बारे में बार-बार ‘बाहरी-बाहरी’ का राग अलाप चुके हैं।

Tanzil Asif is founder and CEO of Main Media Reported By Tanzil Asif |
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पश्चिम बंगाल राज्य या फिर यूं कह लें कि पूरे भारत में दार्जिलिंग लोकसभा सीट ही शायद इकलौती ऐसी सीट है जहां राष्ट्रीय दलों की दाल नहीं गलती है। मगर, आश्चर्य की बात यह है कि, इसका इतिहास देखें तो, एकाध बार छोड़ हर बार राष्ट्रीय दल ही इस सीट पर जीतते आए हैं।‌ इधर, हाल के दशक में यह सीट मानो भाजपा की सुनिश्चित सीट सी हो गई है, लेकिन भाजपा की अपनी बदौलत नहीं बल्कि दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र के दलों की ही बदौलत है।

वर्ष 2009 में जसवंत सिंह, वर्ष 2014 में एसएस अहलूवालिया और वर्ष 2019 में राजू बिष्ट की जीत के साथ इस संसदीय क्षेत्र से भाजपा अपनी जीत की हैट्रिक लगा चुकी है। पर, अब आगे 2024 में नतीजा कुछ और भी हो सकता है। क्योंकि, अब समीकरण बहुत बदल चुके हैं।

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अहम है दार्जिलिंग लोकसभा सीट

दार्जिलिंग लोकसभा सीट पश्चिम बंगाल राज्य ही नहीं बल्कि पूरे भारत की एक बहुत ही अहम लोकसभा सीट है। इसलिए कि यहीं विश्व प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र पहाड़ों की रानी दार्जिलिंग है। यहां यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की ट्वॉय ट्रेन चलती है तो वहीं हसीन वादियों में उगने वाली दार्जिलिंग चाय का पूरी दुनिया में अपना ही जलवा है।


देश-दुनिया से हमेशा लाखों की तादाद में सैलानियों का दार्जिलिंग आने-जाने का सिलसिला लगा रहता है। इसके साथ ही पूर्वोत्तर भारत का प्रवेशद्वार सिलीगुड़ी शहर भी दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र में ही आता है जो कि पूरे उत्तर बंगाल की अघोषित राजधानी है।

वहीं, दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण है कि इसके गोरखा बहुल पहाड़ी क्षेत्र में 100 बरस से अधिक समय से अलग राज्य ‘गोरखालैंड’ की मांग होती आ रही है। भौगोलिक दृष्टि से भी न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि पूरे भारत के लिए दार्जिलिंग क्षेत्र का अपना अलग महत्व है। पूर्वी हिमालय में स्थित दार्जिलिंग क्षेत्र के पश्चिम में नेपाल का सबसे पूर्वी प्रांत, पूर्व में भूटान, उत्तर में भारतीय राज्य सिक्किम और सुदूर उत्तर में चीन का तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र स्थित है। वहीं, दार्जिलिंग जिले के दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में बांग्लादेश स्थित है।

दो ज़िले से ज़्यादा का एक लोकसभा सीट

यूं तो आमतौर पर एक जिले में एक लोकसभा सीट होती है या फिर जिला बड़ा हो तो एक ही जिले में दो लोकसभा सीट भी होती है। मगर देश में यह अपने आप में अलग मामला है कि दार्जिलिंग लोकसभा सीट वर्तमान समय में दो जिलों और तीसरे ज़िले की एक विधानसभा क्षेत्र को मिलाकर बनी है। एक दार्जिलिंग जिला, दूसरा कालिम्पोंग जिला और तीसरा उत्तर दिनाजपुर ज़िले का चोपड़ा विधानसभा क्षेत्र।

दरअसल, 14 फरवरी 2017 को दार्जिलिंग जिले का ही विभाजन कर कालिम्पोंग को पश्चिम बंगाल का 21वां जिला बना दिया गया। दार्जिलिंग सीट में पहाड़ी क्षेत्र से दो विधानसभा क्षेत्र दार्जिलिंग व कर्सियांग और इसी जिले के मैदानी इलाके से तीन विधानसभा क्षेत्र सिलीगुड़ी, माटीगाड़ा-नक्सलबाड़ी व फांसीदेवा शामिल हैं। वहीं, कालिम्पोंग जिले का एकमात्र विधानसभा क्षेत्र कालिम्पोंग भी दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र का ही हिस्सा है। 3149 वर्ग किलोमीटर में फैले दार्जिलिंग जिले की आबादी 18,46,823 और 1075.92 वर्ग किलोमीटर में फैले कालिम्पोंग जिले की आबादी 2,51,642 है।‌

अजब-गजब राजनीतिक समीकरण

दार्जिलिंग जिला व दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र का राजनीतिक समीकरण अजब-गजब है। वर्ष 2009, 2014 और 2019, लगातार तीन बार दार्जिलिंग लोकसभा सीट पर भाजपा की ही जीत हुई है। यहां तक कि वर्ष 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भी दार्जिलिंग जिले की सभी पांच विधानसभा सीटें भी भाजपा ने ही जीतीं।

हालांकि, दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र अंतर्गत पड़ने वाले कालिम्पोंग जिले की एकमात्र विधानसभा सीट कालिम्पोंग भाजपा नहीं जीत पाई। उस सीट पर बिनय तामंग गुट के गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) के उम्मीदवार रुदेन साडा लेप्चा विधायक निर्वाचित हुए। पर, बाद में वह अनित थापा के भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा में शामिल हो गए जो कि पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस समर्थित है।

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव और वर्ष 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव, दोनों में ही दार्जिलिंग जिला क्षेत्र में सर्वत्र भाजपा की ही एकतरफा जीत हुई। यहां तक कि राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और स्वयं पहाड़ी दल कोई गुल नहीं खिला पाए। मगर, भाजपा का यह विजय रथ अगले ही साल रुक गया और अब तक रुका ही हुआ है।

वर्ष 2022 में हुए सिलीगुड़ी नगर निगम चुनाव और सिलीगुड़ी महकमा परिषद चुनाव दोनों में ही भाजपा चारों खाने चित्त हो गई। इन दोनों चुनावों में तृणमूल कांग्रेस की एकतरफा जीत हुई। वह भी इतिहास में पहली बार 2022 के चुनाव में ही ऐसा हुआ कि तृणमूल कांग्रेस ने सिलीगुड़ी नगर निगम और सिलीगुड़ी महकमा परिषद दोनों पर पूर्ण बहुमत से एकतरफा जीत हासिल की।

इतना ही नहीं, वर्ष 2022 में ही हुए दार्जिलिंग नगर पालिका चुनाव और दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र के गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) चुनाव, दोनों में ही भाजपा का कमल नहीं खिल पाया। दार्जिलिंग नगर पालिका पर पहाड़ की एकदम नई उभरी, अजय एडवर्ड की ‘हाम्रो पार्टी’ की जीत हुई। वहीं, तृणमूल कांग्रेस समर्थित अनित थापा के भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा (BGPM) ने जीटीए पर कब्जा जमाया। हालांकि, बाद में दार्जिलिंग नगर पालिका पर भी BGPM ही काबिज़ हो गई।

trinamool congress supporter bgpm president and gta chief executive anit thapa
तृणमूल कांग्रेस समर्थक BGPM अध्यक्ष और GTA के मुख्य कार्यकारी अनित थापा।

जुलाई 2023 में हुए पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में भी राज्य भर की भांति पूरे उत्तर बंगाल में भाजपा की करारी हार हुई। दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र में तो दर्जन भर दलों के साथ महगठबंधन बनाने के बावजूद उसका सिक्का नहीं चल पाया।

इधर, इसी सितंबर 2023 में हुए उपचुनाव में भी भाजपा के हाथों से निकल कर दार्जिलिंग व कालिम्पोंग के पड़ोसी जिला जलपाईगुड़ी की धूपगुड़ी विधानसभा सीट पुनः तृणमूल कांग्रेस की झोली में चली गई‌। इन तमाम चुनाव परिणामों को देखते हुए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कुछ ही महीने बाद होने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर बंगाल व इसकी दार्जिलिंग लोकसभा सीट पर भाजपा का कमल खिल पाना पहले जैसा आसान नहीं रहने वाला है।

अपनों ने ही कर दी है बगावत

दार्जिलिंग से भाजपा के वर्तमान सांसद राजू बिष्ट के खिलाफ कर्सियांग के भाजपा विधायक विष्णु प्रसाद शर्मा उर्फ बी.पी. बजगाईं ने बगावत का बिगुल फूंक दिया है। उन्होंने सांसद राजू बिष्ट को ‘बाहरी’ करार देते हुए पहाड़,‌ तराई व डूआर्स के गोरखाओं के लिए कुछ भी नहीं करने का आरोप‌ लगाया है। यह भी कहा है कि झूठ की बुनियाद पर ज्यादा देर तक टिका नहीं रहा जा सकता है।

उनका कहना है, “पहाड़ वासियों से किए गए दो मुख्य वायदे, 11 जनजातियों को मान्यता और पहाड़, तराई व डूआर्स का स्थायी राजनीतिक समाधान नहीं करने तक माना जाएगा कि हम झूठ की बुनियाद पर ही खड़े हैं।”

भाजपा विधायक बी. पी. बजगाईं का दो टूक कहना है, “भाजपा के नुकसान की भरपाई तभी हो पाएगी जब हम कुछ ‘डिलीवर’ कर पाएंगे। हमने जो वायदे किए, उन वादों को पूरा करके दिखाएं। वह भी 2024 के चुनाव से पहले। वरना, बड़ी मुश्किल हो जाएगी।”

वह भाजपा द्वारा पहाड़ वासियों से किए गए दो मुख्य वादे याद भी दिलाते हैं। एक, पहाड़ के गोरखाओं की 11 जनजातियों को मान्यता और, दो, पहाड़, तराई व डूआर्स का स्थायी राजनीतिक समाधान। मगर, भाजपा के साथ धर्मसंकट यह है कि अगर उसने गोरखा बहुल एकमात्र दार्जिलिंग लोकसभा सीट की चाह में अलग राज्य गोरखालैंड की जरा सी भी कवायद की तो फिर पश्चिम बंगाल राज्य की बाकी बंगाली बहुल 41 लोकसभा सीटों पर उसकी हालत पतली हो जाएगी। यही वजह है कि भाजपा दार्जीलिंग पहाड़ पर तो गोरखालैंड का राग अलाप देती है लेकिन पूरे पश्चिम बंगाल में अन्य कहीं भी वह इस पर कुछ नहीं कहती। यहां तक कि पूछे जाने पर विरोध ही जताती है।

बी. पी. बजगाईं यह भी कहते हैं, “जब मैंने विधानसभा के अंदर कहा था कि यहां मुझे लोगों ने गोरखालैंड के लिए ही वोट दिया है तो मेरी पार्टी के ही अंदर लगभग 4 रिक्टर स्केल का भूकंप आ गया था। अब मैं 7-8 रिक्टर स्केल का भूचाल ला रहा हूं।”

उल्लेखनीय है कि बीते 6 अगस्त को पश्चिम बंगाल विधानसभा परिसर में उन्होंने अलग राज्य गोरख लैंड के समर्थन में प्रदर्शन भी किया था। उनका कहना है कि दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र से गोरखाओं ने भाजपा को लगातार तीन बार जीत दी। 15 वर्षों का कार्यकाल दिया। मगर, भाजपा ने गोरखाओं के लिए कुछ भी नहीं किया। इधर, मानसून सत्र में भी कुछ नहीं हुआ। अब 2024 के लोकसभा चुनाव को बस कुछ ही महीने बचे हैं और उससे पहले संसद का केवल एक शीतकालीन सत्र ही बचा है। इसलिए 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले वादों को पूरा करके दिखाया जाए। वरना, भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल हो जाएगी।

 

bjp rebel, kurseong mla vishnu prasad sharma
भाजपा के बागी, कर्सियांग के विधायक विष्णु प्रसाद शर्मा उर्फ बी.पी. बजगाईं।

अंदरखाने भी कलह

भाजपा के अपने अंदरूनी संगठन में भी काफी कलह मची हुई है। दार्जिलिंग जिले के दार्जीलिंग पहाड़ी क्षेत्र समेत सिलीगुड़ी मैदानी क्षेत्र में भी भाजपा की विभिन्न इकाइयों के विभिन्न स्तर की कमेटियों के लगभग 50 पदाधिकारियों ने अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे दिया है। यहां तक कि, दार्जिलिंग जिला व इसके सिलीगुड़ी महकमा अंतर्गत फांसीदेवा विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक दुर्गा मुर्मू ने भी भाजपा की सिलीगुड़ी संगठन जिला कमेटी के महासचिव पद से इस्तीफा दे दिया है। अब तक जिला कमेटी व इससे संबद्ध विभिन्न इकाइयों से 50 से अधिक पदाधिकारी इस्तीफा दे चुके हैं।

गत 6 अगस्त 2023 को जब से माटीगाड़ा-नक्सलबाड़ी के विधायक आनंदमय बर्मन को भाजपा की सिलीगुड़ी संगठन जिला कमेटी के अध्यक्ष पद से हटा कर उनकी जगह भाजपा के स्थानीय किसान मोर्चा के नेता अरुण मंडल को बिठाया गया है तब से दलीय नेताओं व कार्यकर्ताओं के इस्तीफे की झड़ी लगी हुई है। वहीं, गुटबाजी भी चरम पर है।

उत्तर बंगाल की अघोषित राजधानी सिलीगुड़ी में भाजपा का संगठन इन दिनों सिलीगुड़ी के विधायक शंकर घोष और पड़ोसी माटीगाड़ा-नक्सलबाड़ी के विधायक आनंदमय बर्मन के बीच दो गुटों में बंटा हुआ है। इसके अलावा ऊपर से लेकर नीचे तक, हर स्तर पर गुटबाजी जोरों पर है।‌ पुराने भाजपाई, नए भाजपाई, शुद्ध भाजपाई, दल-बदलू भाजपाई, ऐसे कई गुटों की गुटबाजी जारी है।

अब दोस्त भी दोस्त न रहा

दार्जिलिंग लोकसभा सीट लगातार तीन बार भाजपा की झोली में डालने वाले भाजपा के परम मित्र गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) अध्यक्ष बिमल गुरुंग भी अब उसके न रहे। हाल ही में वह भाजपा व केंद्र सरकार के खिलाफ दिल्ली में धरना देकर आए हैं। बिमल गुरुंग ने साफ कह दिया है कि अब 2009, 2014 व 2019 नहीं है। या तो केंद्र सरकार ‘डिसीजन’ ले या वह ‘सॉल्यूशन’ निकालेंगे।

हर चुनाव में एक ही मुद्दा

दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र विशेष कर इसके पहाड़ी क्षेत्र में चुनाव चाहे जो भी हो, मुद्दा बस एक ही रहता है। वह मुद्दा है गोरखाओं की ‘पहचान का मुद्दा’। मतलब, अलग राज्य ‘गोरखालैंड’ का मुद्दा। यह मुद्दा गाहे-ब-गाहे ऐसा राजनीतिक पारा चढ़ा देता है कि अन्य राजनीतिक दलों की दाल दार्जिलिंग पहाड़ पर गल ही नहीं पाती है।

आजादी के बाद से 80 के दशक की शुरुआत तक यहां पहले कांग्रेस और फिर माकपा की दाल ठीक-ठाक गलती रही थी। पर, 80 के दशक के बाद हालात बदल गए। दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र के बहुसंख्यक गोरखाओं के पहचान-संकट यानी अस्तित्व के सवाल पर अलग राज्य गोरखालैंड के लिए गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) बना कर 80 के दशक की शुरुआत में सुभाष घीसिंग ने जो नए सिरे से गोरखालैंड आंदोलन छेड़ कर तापमान बढ़ाया तब से गैर-पहाड़ी सारे दलों की दाल गलनी बंद हो गई।

बीते दशक में दार्जिलिंग पहाड़ पर अपनी दाल गला सकने का दम-खम एक पहाड़ी दल गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) में ही था। यह दल 2007 में सुभाष घीसिंग से अलग हो कर, उनके ही दाहिना हाथ रहे बिमल गुरुंग ने बनाया था।

दार्जिलिंग, सत्ता, शक्ति व समीकरण

1980-82 के गोरखालैंड आंदोलन के बाद से लगातार 2007 तक सुभाष घीसिंग के आशीर्वाद व उनके जीएनएलएफ की मदद से कांग्रेस व माकपा जैसे दल दार्जिलिंग लोकसभा सीट पर अपनी दाल गलाते रहे। फिर, वर्ष 2007 में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) बना कर बिमल गुरुंग जब दार्जिलिंग पहाड़ की नई शक्ति बन कर उभरे तो पूरे एक दशक यानी 2017 तक उनका सिक्का चला और उस दौरान उन्होंने वहां भाजपा की जड़ें जमा‌ दी।

मगर, असामान्य राजनीतिक परिस्थितियों में 2017 में बिमल गुरुंग को अपने छाया संगी रौशन गिरि संग भूमिगत हो जाना पड़ा। उन्हें, ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा। उन पर देशद्रोह समेत सौ से अधिक मुकदमे हो गए। उसी बीच उनके करीबियों में से एक बिनय तामंग ने गोजमुमो को अपने नियंत्रण में ले लिया। गोजमुमो दो धड़ों में बंट गया।

पश्चिम बंगाल राज्य के सत्तारूढ़ दल तृणमूल कांग्रेस व राज्य सरकार से आशीर्वाद प्राप्त कर बिनय तामंग, बिमल गुरुंग की गोरखालैंड टेरिटोरिअल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) चीफ की कुर्सी पर भी विराजमान हो गए। सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था पर 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव की धमक के साथ ही मामला पेचीदा हो गया।

अंदर-अंदर बिमल गुरुंग का पश्चिम बंगाल राज्य व तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी संग प्रत्यक्ष किंतु अदृश्य समझौता हो गया। उन्हें ममतामय आशीर्वाद प्राप्त हो गया। वह अक्टूबर 2020 में सार्वजनिक जीवन में लौट आए। उन पर से अनेक मुकदमे भी हटा दिए गए। बिमल गुरुंग ममता बनर्जी के साथ हो गए। जबकि, 2007 से 2020 तक लगातार वह ममता बनर्जी के धुर विरोधी और भाजपा के कट्टर समर्थक रहे थे। अब वह कहते हैं कि भाजपा ने गोरखाओं को केवल वोट बैंक समझा, केवल छला और गोरखाओं के लिए कुछ नहीं किया।

हालांकि, 2019 में भूमिगत रहने के बावजूद लोकसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा के समर्थन में ऑडियो, वीडियो वार्ता और पत्र पर पत्र जारी कर-कर दार्जिलिंग से भाजपा की जीत सुनिश्चित की थी। मगर, 2021 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में उन्होंने खुल कर भाजपा का विरोध और तृणमूल कांग्रेस का समर्थन किया। इसके बावजूद कहीं भी न वह खुद अपने गोजमुमो को जिता पाए और न ही तृणमूल कांग्रेस को कोई लाभ दिला पाए।

एक के बाद एक हुआ बदलाव

वर्ष 2022 में हुए दार्जिलिंग नगर पालिका चुनाव में भी बिमल गुरुंग का सिक्का नहीं चला। उसके बाद गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) के चुनाव में भी अनित थापा के BGPM को जीटीए की सत्ता मिल गई। ऐसे में लगातार बिमल गुरुंग का राजनीतिक कद कम होता चला गया। वहीं, जिस तृणमूल कांग्रेस ने उन्हें भाजपा के पाले से छुड़ा कर अपने पाले में किया था वह भी उन्हें अब बहुत महत्व नहीं दे रही है।

गोरखा जन मुक्ति मोर्चा (गोजमुमो) के दूसरे धड़े के नेता बिनय तामंग भी सिमट कर रह गए हैं। इन दिनों दार्जिलिंग पहाड़ पर अनित थापा व उनका BGPM ही प्रभावी है। उन्हें राज्य के सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का संरक्षण प्राप्त है। वहीं, भाजपा की बात करें तो, सुभाष घीसिंग के पुत्र मन घीसिंग के नेतृत्व वाला जीएनएलएफ ही एकमात्र ऐसा पहाड़ी दल है जो इन दिनों भाजपा के साथ है। अन्य पहाड़ी दल भाजपा से न केवल दूरी बना कर चल रहे हैं बल्कि उसका मुखर विरोध भी कर रहे हैं।

दार्जिलिंग को कब किसने जीता?

आजाद भारत का पहला लोकसभा चुनाव वर्ष 1952 में हुआ। उसके बाद वर्ष 1957 में हुए दूसरे लोकसभा चुनाव के समय से ही दार्जिलिंग लोकसभा सीट गठित है। इस सीट से पहले सांसद थ्योडोर मेनन हुए जो कि भूमिपुत्र थे।‌ दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र के कर्सियांग में जन्मे थ्योडोर मेनन भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव चुने जाने वाले पहले गोरखा थे। वह लगातार दो बार दार्जिलिंग के सांसद रहे। पहली बार वर्ष 1957 में गोरखा लीग और दूसरी बार वर्ष 1962 में कांग्रेस के टिकट पर उन्होंने जीत हासिल की।

वर्ष 1967 से 1971 तक मैत्रेयी बसु दार्जिलिंग की सांसद हुईं जो कि वहां की पहली महिला, निर्दलीय और गैर-गोरखा सांसद रहीं। उनके बाद 1971 में माकपा के रतनलाल ब्राह्मिण, 1977 में कांग्रेस के कृष्ण बहादुर छेत्री और फिर 1980 व 1984, लगातार दो बार, माकपा के आनंद पाठक वहां से सांसद निर्वाचित हुए जो कि दार्जिलिंग में ही जन्मे भूमिपुत्र सांसद थे।

फिर, पत्रकार से राजनेता बने दिल्ली के इंदरजीत दार्जिलिंग के सांसद हुए। वह 1989 में सुभाष घीसिंग के गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) और 1991 में कांग्रेस के टिकट पर सांसद निर्वाचित हुए। उल्लेखनीय है कि 80 के दशक में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के मुखिया सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में हुए गोरखालैंड आंदोलन के फलस्वरूप 1988 में दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र की स्वायत्त शासन व्यवस्था के बतौर 1988 में दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) के गठन में इंदरजीत ने अहम भूमिका निभाई थी।‌ इसी वजह से वह यहां से दो बार सांसद निर्वाचित हुए।

1996, 1998 और 1999 लोकसभा चुनावों में क्रमशः रत्न बहादुर राई, आनंद पाठक व एसपी लेप्चा तीनों ही पश्चिम बंगाल की तत्कालीन सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) टिकट पर दार्जिलिंग के सांसद हुए।‌ ये तीनों ही दार्जिलिंग के स्थानीय नेता थे। फिर, 2004 में दार्जिलिंग के ही भूमिपुत्र दावा नर्बूला कांग्रेस के टिकट पर दार्जिलिंग के सांसद हुए। उनके बाद वर्ष 2009 में जसवंत सिंह, 2014 में एसएस अहलूवालिया और वर्ष 2019 में राजू बिष्ट, तीनों ही भाजपा के टिकट पर दार्जिलिंग से सांसद निर्वाचित हुए।

raju bisht, current bjp mp from darjeeling
दार्जीलिंग के वर्तमान भाजपा सांसद राजू बिष्ट।

अब 2024 में कौन?

अब जबकि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को बस कुछ ही महीने बचे हैं, तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि इस चुनाव में दार्जिलिंग से सांसद कौन होगा? इस बारे में राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस बार ‘भूमिपुत्र’ बनाम ‘बाहरी’ का मुद्दा किसी की भी उम्मीदवारी में अहम रहेगा।‌ इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खुद दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र के कर्सियांग के भाजपा विधायक बी.पी. बजगाईं अपने ही दल भाजपा से दार्जिलिंग के सांसद राजू बिष्ट के बारे में बार-बार ‘बाहरी-बाहरी’ का राग अलाप चुके हैं।

वहीं, दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र के अन्य तमाम दल भी अब भूमिपुत्र-भूमिपुत्र का राग अलापने लगे हैं। इस पहलू को भांपते हुए ही शायद केंद्र की सत्तारूढ़ भाजपा भी, एक समय पहाड़ के सर्वेसर्वा रहे स्वर्गीय सुभाष घीसिंग के पुत्र और वर्तमान में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के मुखिया मन घीसिंग पर डोरा डाले हुए है और उन्हें अपने साथ रखे हुए है।

वहीं, दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस भी पहाड़ के वर्तमान प्रभावशाली नेता अनित थापा और उनके भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा को शह दे रही है। इधर, केंद्र की सत्तारूढ़ भाजपा के विरुद्ध विपक्षी दलों के नवगठित “इंडिया” गठबंधन की अभी फिलहाल उत्तर बंगाल व दार्जिलिंग क्षेत्र में कोई खास हलचल नहीं है। अन्य, दलों की बात करें तो फिलहाल दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र में उनका प्रभाव न के बराबर ही है।

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तंजील आसिफ एक मल्टीमीडिया पत्रकार-सह-उद्यमी हैं। वह 'मैं मीडिया' के संस्थापक और सीईओ हैं। समय-समय पर अन्य प्रकाशनों के लिए भी सीमांचल से ख़बरें लिखते रहे हैं। उनकी ख़बरें The Wire, The Quint, Outlook Magazine, Two Circles, the Milli Gazette आदि में छप चुकी हैं। तंज़ील एक Josh Talks स्पीकर, एक इंजीनियर और एक पार्ट टाइम कवि भी हैं। उन्होंने दिल्ली के भारतीय जन संचार संस्थान (IIMC) से मीडिया की पढ़ाई और जामिआ मिलिया इस्लामिआ से B.Tech की पढ़ाई की है।

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