साल 1920 के आसपास की कोई तारीख रही होगी। तब रामकृष्ण डालमिया युवा थे और बड़ा कारोबारी बनने का सपना पाले हुए थे। लेकिन, तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें बड़ा ब्रेक नहीं मिल पा रहा था।
कहते हैं कि जब तमाम कोशिशें नाकाम हो जाती हैं, तो लोग अक्सर किस्मत पर भरोसा करने लगते हैं। रामकृष्ण डालमिया को भी लगा कि क्यों न एक बार अपनी हाथ की रेखाएं किसी बाबा से दिखा लें। वह पहुंच गये राजस्थान के फतेहपुर। वहां उन्होंने पंडित मोतीलाल बियाला से अपनी किस्मत की रेखा देखने को कहा। उनका हाथ देख पंडित ने कहा – “अगले डेढ़ महीने में तेरी किस्मत का ताला खुलेगा और तू एक लाख रुपये कमा लेगा।”
उन दिनों वह चांदी में पैसा लगाया करते थे। चांदी की एक डील उन्होंने की थी, जो कैंसिल होने वाली थी। संयोग से वह डील कैंसिल तो नहीं हुई, उल्टे उन्हें उससे डेढ़ लाख रुपये की कमाई हो गई। उस वक्त डेढ़ लाख कमाई अभी के लगभग ढाई करोड़ रुपये के बराबर थी।
तब किसे पता था कि फतेहपुर के पंडित की वह भविष्यवाणी 1250 किलोमीटर दूर बिहार के शाहाबाद (अब रोहतास) की किस्मत के ताले भी खोल देगी।
डालमिया के पास जब पैसा आने लगा, तो उन्होंने अपना बिजनेस फैलाना शुरू कर दिया। कलकत्ता से वह बिहार आ गये और पटना के बिहटा में साल 1932 में शुगर मिल स्थापित की और कंपनी का नाम दिया साउथ बिहार शुगर मिल्स लिमिटेड। उस वक्त वह देश की सबसे बड़ी चीनी मिला हुआ करती थी।
साल 1932-33 के आसपास ही उनकी नजर शाहाबाद में सोन नदी के किनारे बसे आधा दर्जन गांवों पर पड़ी। गांवों के आसपास ही पहाड़ियां थीं, जहां लाइमस्टोन समेत अन्य खनीज पदार्थ थे। औद्योगिक कचरा को ठिकाने लगाने के लिए सोन नदी थी। फैक्टरियों तक कच्चा माल लाने और तैयार माल अन्यत्र भेजने के लिए हाईवे व रेलवे की कनेक्टिविटी थी। अतः उन्होंने इन गांवों की जमीन ले ली और रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड नाम से एक कंपनी बनाई। इसी कंपनी के अधीन उन्होंने एक के बाद एक दो दर्जन औद्योगिक इकाइयां स्थापित कीं। स्कूल-कॉलेज, निजी एयरपोर्ट, रेलवे लाइन बनाये। अपना खुद का पावर हाउस तक बनाया, जहां से फैक्टरियों और स्टाफ क्वार्टरों में बिजली की सप्लाई हुआ करती थी। थोड़े दिनों में ही इन गांवों का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहा। चूंकि रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड डालमिया समूह की थी, तो यह औद्योगिक क्षेत्र डालमियानगर के नाम से मशहूर हो गया। लगभग 3800 एकड़ में फैला डालमियानगर औद्योगिक टाउनशिप अपने दौर में देश इतना बड़ा टाउनशिप था, जिसे देखकर दूसरे राज्यों के लोगों को रस्क हुआ करता था।
टिंकू सिंह चंद्रवंशी डालमियानगर में पान की एक टपरी चलाते हैं। उनके दादा रामकृष्ण डालमिया की गाड़ी चलाया करते थे। वह कहते हैं, “मेरे दादाजी डालमिया की गाड़ी चलाते थे। लेकिन शाम को वह घर लौट जाते थे। एक दिन उन्होंने रोज घर से आने जाने की परेशानी बताई, तो एक महीने के भीतर डालमिया ने उन्हें 8 कमरे का एक मकान बनाकर दे दिया।”
पांच दशकों तक डालमियानगर औद्योगिक क्षेत्र खूब फूला-फला। लेकिन फिर धीरे धीरे यह उजड़ने लगा। इन दिनों यह फिर एक बार सुर्खियों में है क्योंकि अदालत ने यहां के स्टाफ क्वार्टरों में रहने वाले फैक्टरियों के पूर्व कर्मचारियों को क्वार्टर खाली करने का आदेश दिया है। इन क्वार्टरों को खाली कराकर जमीन की कीमत तय होगी और अदालत की देखरेख में जमीन की नीलामी कर दी जाएगी।
गुमनाम गांवों के डालमियानगर के रूप में देश के औद्योगिक मानचित्र के शीर्ष पर पहुंचने से लेकर इसके उजाड़ होने तक की कहानी में कई नाटकीय मोड़ हैं।
खुद रामकृष्ण डालमिया की कहानी भी किसी परिकथा से कम नहीं है।
रामकृष्ण डालमिया का सफर
रामकृष्ण डालमिया का जन्म 7 अप्रैल 1893 में राजस्थान के एक छोटे से गांव में हुआ। उन दिनों कलकत्ता देश की औद्योगिक राजधानी हुआ करती थी। हर राज्य के लोगों के लिए रोजगार का अल्टीमेट डेस्टिनेशन कलकत्ता हुआ करता था। राजस्थान के बहुत सारे व्यापारी उत्तर कलकत्ता में अपना धंधा चला रहे थे।
डालमिया जब 18 साल के हुए, तो उनके पिता की मौत हो गई और परिवार की जिम्मेवारी उनके नाजुक कंधे पर आ गई। रामकृष्ण भी अन्य राजस्थानियों की तरह कलकत्ता आ गये और उत्तर कोलकाता में एक छोटे से कमरे में किराये पर रहने लगे। रामकृष्ण के दूर के चाचा मोतीलाल झुनझुनवाला यहां चांदी का व्यापार करते थे, तो उन्होंने डालमिया को अपने यहां नौकरी दे दी।
डालमिया का मुख्य काम कारोबार का बही-खाता संभालना और लंदन में काम कर रहे चांदी कारोबार के एजेंट के टेलीग्राम का मैसेज झुनझुनवाला तक पहुंचाना था। चांदी के कारोबारी के यहां काम करने वाला आदमी चांदी का व्यापार नहीं सीखेगा, तो भला क्या सीखेगा, सो डालमिया भी यह व्यापार समझने लगे। कभी कभार चांदी में पैसा लगाते। कभी थोड़ी कमाई होती, तो कभी नुकसान भी हो जाता।
फिर एक रोज राजस्थान के एक पंडित ने उनके भाग्य के खुलने की भविष्यवाणी कर दी। इस भविष्यवाणी के बाद ही चांदी की एक डील में उन्हें डेढ़ लाख का फायदा हो गया। और उसके बाद जो हुआ, वो इतिहास है।
डालमिया अगले 10-12 साल में बड़े कारोबारी बन चुके थे और डॉ राजेंद्र प्रसाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मोहम्मद अली जिन्ना जैसे नेताओं के साथ उनकी नजदीकी हो चुकी थी। इसी नजदीकी के चलते साल 1938 में उन्होंने सुभाष चंद्र बोस से डालमियानगर की सीमेंट फैक्टरी और साल 1939 में डॉ राजेंद्र प्रसाद से पेपर फैक्टरी का उद्घाटन कराया था।
मोहम्मद अली जिन्ना से उनका लगाव कुछ अधिक था। जब देश का बंटवारा हुआ, मो. अली जिन्ना के दिल्ली वाले घर को डालमिया ने ही खरीदा था।
वहीं, पंडित जवाहरलाल नेहरू के वह आलोचक थे और गौ हत्या के खिलाफ उस वक्त उन्होंने बड़ा अभियान चलाया था।
डालमिया समूह के हिस्सेदार
रामकृष्ण डालमिया ने अपने जीवन में कुल छह शादियां कीं, मगर, उन्हें कोई पुत्र न हुआ। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने इतनी शादियां पुत्र की चाहत में की थी या कोई और कारण था।
अलबत्ता, उनकी एक बेटी थी, जिसका नाम रमा था। उसका विवाह 1932 में ही डालमिया ने उत्तर प्रदेश के एक जमींदार साहू शांति प्रसाद जैन से कर दी थी। जैन को तुरंत ही कंपनी के आर्थिक मोर्चे की जिम्मेवारी मिल गई। धीरे-धीरे उन्हें डालमिया समूह के बिहार, बंगाल और ओडिशा में फैला कारोबार मिल गया, जिसमें रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड भी एक था।
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बाद में डालमिया समूह से साहू शांति प्रसाद जैन के रिश्तेदार श्रियांश प्रसाद जैन और बाद में रामकृष्ण लमिया के छोटे भाई जयदयाल भी जुड़ गये।
जैन के इस समूह से जुड़ने के बाद डालमिया समूह का नाम बदल कर डालमिया-जैन समूह कर दिया गया।
देश की आजादी तक इस समूह ने लगभग हर क्षेत्र मसलन सीमेंट, पेपर, इंश्योरेंस, कोल्ड स्टोरेज, आटोमोबाइल, एसबेस्टस में घुसपैठ कर ली थी। देशभर की दर्जनों फैक्टरियां खरीद ली थीं। यहां तक कि कारोबारियों के लिए भारत बैंक लिमिटेड नाम से एक फाइनेंशियल संस्थान भी खड़ा कर लिया था; देश की आजादी तक इस बैंक की देशभर में 292 शाखाएं खुल गई थीं।
मारवार इंडिया नाम की पत्रिका ने अपने एक लेख में लिखा है, “उस वक्त टाटा और बिड़ला के बाद डालमिया देश का दूसरा सबसे बड़ा कारोबारी घराना बन गया था।”
वित्तीय गड़बड़ी के आरोप व जांच
जिस तेजी से यह समूह औद्योगिक मानचित्र पर उभर रहा था, उसी तेजी से लोगों में समूह को लेकर संदेह भी पैदा हो रहा था।
60 के दशक की शुरुआत में ये बातें आम चर्चा का हिस्सा बन गई थीं कि डालमिया-जैन समूह ने आर्थिक हेराफेरी कर अपना अम्पायर खड़ा कर लिया है।
वित्तीय गड़बड़ियों के आरोपों के मद्देनजर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने समूह की जांच के लिए एक सदस्यीय जांच कमेटी का गठन कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के जज विवियन बोस को कमेटी का प्रमुख बनाया गया।
जांच कमेटी की रिपोर्ट पर राज्यसभा में बहस के दौरान तत्कालीन राज्यसभा सदस्य प्रो. एआर वाडिया ने कहा था, “विवियन बोस की रिपोर्ट को पढ़ते हुए भयावह अनुभव हुआ। कंपनी कानून और भारतीय दंड संहिता में जितने भी अपराध दर्ज हैं शायद ही इनमें से कोई अपराध ऐसा अपराध है, जिसे डालमिया-जैन समूह ने नहीं किया है।”
इसके बाद 1955 में तत्कालीन सांसद फिरोज गांधी ने डालमिया-जैन समूह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। उन्होंने डालमिया जैन समूह पर वित्तीय हेराफेरी के बेहद गंभीर आरोप लगाये।
पहले विवियन बोस की जांच रिपोर्ट में वित्तीय गड़बड़ियां उजागर होने और फिर फिरोज गांधी द्वारा सार्वजनिक तौर पर गंभीर आरोप लगाने से कंपनी की साख पर गहरा असर हुआ। और जाहिर है कि इसका असर डालमियानगर पर भी पड़ा।
माना जा रहा है कि 60 के दशक के मध्य के बाद से ही डालमियानगर के भी बुरे दिन शुरू हो गये। लेकिन, इसका असर उतना जल्द नहीं दिखा। 1970 के बाद से डालमियानगर औद्योगिक कस्बे का इकबाल गिरना शुरू हुआ।
तब की स्थितियों के बारे में स्थानीय निवासी व यूथ इंडिया के संस्थापक व अध्यक्ष शिव गांधी कहते हैं, “उस वक्त बहुत सारी श्रमिक यूनियनें बन गई थीं, जिनका कतिपय लोगों ने निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया। उस वक्त लगातार आंदोलनों के चलते मालिक परेशान हो गये थे और धीरे धीरे यहां के फूलते-फलते उद्योग में गिरावट आने लगी।”
संघर्षशील श्रमिक संघ से जुड़े सियाराम सिंह यादव, जो डालमियानगर की पेपर फैक्टरी में काम किया करते थे, भी शिव गांधी की बातों से सहमति जताते हुए कहते हैं कि उस वक्त श्रमिक यूनियनें अनर्गल आंदोलन भी किया करती थीं।
इसी बीच, बिहार सरकार ने बकाया बिजली बिल के चलते कारखानों में बिजली सप्लाई बंद कर दी।
1970-71 के आसपास ही बिहार में खासकर दक्षिण बिहार में नक्सलबाड़ी आंदोलन जैसी ही सुगबुगाहट शुरू हो गई थी जो आने वाले सालों में और घनीभूत हुई। बिहार सशस्त्र नक्सली आंदोलन की चपेट आ गया और इनसे मुकाबला करने के लिए ऊंची जातियों के भूस्वामियों ने अपनी निजी सेनाएं बनाईं, जिसके बाद राज्य में जातीय हिंसाओं का भीषण दौर चला।
उस दौरान कानून व व्यवस्था की स्थितियां भी बिगड़ गई थीं। लूट, किड्नैपिंग आम हो गई थीं, जिसके डर से डालमियानगर औद्योगिक क्षेत्र में रहने वाले अफसरों में डर भर गया और वे वहां से भागने लगे।
तब तक रामकृष्ण डालमिया भी समूह में बहुत सक्रिय नहीं थे। उनके दामाद और दामाद के पुत्र सबकुछ संभाल रहे थे। माना यह भी जाता है कि रामकृष्ण डालमिया की निष्क्रियता में उनके वारिस बढ़िया प्रबंधन नहीं कर सके।
रामकृष्ण डालमिया बूढ़े हो चुके थे और डालमियानगर को बर्बाद होते हुए सिर्फ देख रहे थे। 26 सितम्बर 1978 को 85 साल की उम्र में उनका निधन हो गया।
माना जाता है कि इन सबके सम्मिलित असर ने डालमियानगर के औद्योगिक क्षेत्र का भट्ठा बैठा दिया और सितंबर 1984 में यहां की सभी इकाइयां बंद हो गईं। डालमियानगर की औद्योगिक इकाइयों में काम करने वाले प्रबंधकीय अधिकारी व अन्य अफसरों को वापस बुला लिया गया।
उसी साल कंपनी के एक क्रेडिटर अजीत कुमार सिंह कासलीवाल ने पटना हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी। साल 1986 में पटना हाईकोर्ट ने रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड की संपत्ति बेचकर कर्जदाताओं व पूर्व कर्मचारियों के बकाये के भुगतान के लिए एक लिक्विडेटर नियुक्त किया।
उस वक्त तक डालमियानगर में स्टाफ क्वार्टर्स, औद्योगिक इकाइयों के परिसरों को मिलाकर कंपनी के पास कुल 219 एकड़ जमीन थी।
इसी बीच, कंपनी के लगभग 12000 पूर्व कर्मचारियों ने बकाया भुगतान के लिए 1989 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तो सुप्रीम कोर्ट ने बकाया भुगतान के लिए एक पुनर्वास आयुक्त नियुक्त कर दिया। इन नियुक्तियों के बावजूद न तो कंपनी के लिक्विडेशन का मसला सुलझा और न ही कर्मचारियों के बकाया भुगतान का।
कंपनी को उबारने के प्रयासों का हश्र
ऐसा नहीं है कि 1984 में रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड की औद्योगिक इकाइयों में तालाबंदी के बाद इसे दोबारा उबारने का प्रयास नहीं हुआ।
एक बड़ा प्रयास साल 1990 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुआ था। उस वक्त कोर्ट ने बिहार सरकार और केंद्र सरकार से 35 करोड़ रुपये जमा कर कंपनी दोबारा शुरू करने को कहा था। बिहार सरकार ने 35 करोड़ रुपये जमा किये थे और कंपनी की सीमेंट फैक्टरी में दोबारा काम शुरू हुआ था, लेकिन यह दो साल तक ही चल पाया।
लालू प्रसाद यादव जब यूपीए-। की सरकार में रेलमंत्री बने, तो उन्होंने उच्च क्षमता वाली फ्रेट बोगी बनाने की फैक्टरी स्थापित करने के लिए साल 11 जनवरी 2007 में रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड की पेपर मिल की जमीन खरीदी।
बताया जाता है कि उस वक्त पटना हाईकोर्ट के आदेश पर उक्त जमीन व वहां बंद पड़ी फैक्टरी के स्क्रैप की नीलामी हो रही थी। इस बात की जानकारी कुछ स्थानीय विधायकों ने लालू प्रसाद यादव को दी, तो उन्होंने हाजीपुर जोन के अधिकारी को फोन कर कहा कि किसी भी कीमत पर उक्त जमीन खरीदी जाए।
सियाराम सिंह यादव कहते हैं, “उस नीलामी में जमीन की बिडिंग 130 करोड़ रुपये तक गई थी और रेलवे ने 140 करोड़ की बोली लगाकर जमीन खरीद ली।”
हालांकि रेलवे की यह खरीद भी विवादों में रही। उक्त जमीन को ऊंची कीमत पर खरीदने के रेलवे बोर्ड के औचित्य पर गंभीर सवाल उठे।
कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि रेलवे बोर्ड ने जमीन अधिग्रहण करने का फैसला बिना किसी पूर्व योजना के ले लिया था, जो भारतीय रेलवे फाइनेंस कोड के खिलाफ है। कैग ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा था कि रेलवे ने इस अधिग्रहण के लिए पहले से फंड की मंजूरी भी नहीं दी थी।
इधर, लालू प्रसाद यादव ने अधिग्रहित जमीन पर बोगी बनाने वाली फैक्टरी स्थापित करने के लिए 22 नवम्बर 2008 को आधारशिला भी रखी थी, लेकिन वह फैक्टरी बन नहीं सकी। साल 2009 में दूसरी बार यूपीए की सरकार बनी, तो लालू प्रसाद यादव को रेलमंत्री नहीं बनाया गया और फिर यह प्रोजेक्ट अनिश्चितकाल के लिए ठंडे बस्ते में चला गया।
पेपर मिल की आधी ढह चुकी दीवार पर ‘यह संपत्ति भारतीय रेलवे की है’ लिख दिया गया है ताकि कोई कब्जा न जमा ले। निकट भविष्य में इस भूखंड पर रेलवे की तरफ से कोई फैक्टरी लगेगी भी या नहीं, पता नहीं है।
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