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कम मजदूरी, भुगतान में देरी – मजदूरों के काम नहीं आ रही मनरेगा स्कीम, कर रहे पलायन

मनरेगा मजदूरों को इस योजना से फायदे के बजाय नुकसान ज्यादा हो रहा है। काम करने के बाद वे महीनों भुगतान के इंतजार में बैठे रहते हैं जिससे उन्हें और उनके परिवारों को आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ता है। इसी वजह से ज्यादातर मजदूर प्रदेश पलायन कर रहे हैं।

Aaquil Jawed Reported By Aaquil Jawed |
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बिहार के कटिहार ज़िला निवासी विष्णु राय मनरेगा मजदूर हैं, लेकिन कई महीनों से उन्हें काम नहीं मिला है और अब वह पलायन करने के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं।

कटिहार के कदवा प्रखंड के भेलागंज गांव के रहने वाले विष्णु राय कहते हैं, “अब मैं और मेरे कुछ साथी बाहर प्रदेश जाने का सोच रहे हैं क्योंकि मनरेगा में काफी कम मजदूरी है और उसका भी भुगतान कई दिनों बाद होता है।”

“बाहर प्रदेश में एक मजदूर हर दिन 600 रुपये से 900 रुपये तक कमा लेता है और उसका भुगतान भी रोजाना हो जाता है। अगर इस तरह से मनरेगा में काम मिलेगा, तो कौन करना चाहेगा। मनरेगा से परिवार चलाना काफी मुश्किल हो रहा है, “उन्होंने कहा।


महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम योजना (मनरेगा) को कानूनी स्तर पर रोजगार की गारंटी देने वाला विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक कल्याणकारी कार्यक्रम माना जाता है।

इस योजना को 7 सितंबर 2005 को पारित किया गया था। इसके बाद 200 जिलों में 2 फरवरी 2006 को मनरेगा योजना को शुरू किया गया। शुरुआत में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (NREGA) कहा जाता था। लेकिन 2 अक्टूबर 2009 को इसका नाम बदलकर ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ कर दिया गया।

भारत सरकार द्वारा मनरेगा योजना को शुरू करने का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण नागरिकों को उनके निवास स्थान के समीप ही 100 दिनों का रोजगार प्रदान करना है, ताकि ग्रामीणों की आजीविका के आधार को मजबूत कर उनका सामाजिक समावेश सुनिश्चित किया जा सके। साथ ही इस योजना के माध्यम से ग्राम पंचायत स्तर पर रोजगार प्रदान कर अन्य शहरों में होने वाले पलायन को रोका जा सके।

लेकिन, इसके कार्यान्वयन में ढिलाई के चलते लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। इस वजह से विष्णु राय जैसे मजदूरों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

कम मजदूरी से हो रहा मोहभंग

मनरेगा मजदूरों को इस योजना से फायदे के बजाय नुकसान ज्यादा हो रहा है। काम करने के बाद वे महीनों भुगतान के इंतजार में बैठे रहते हैं जिससे उन्हें और उनके परिवारों को आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ता है। इसी वजह से ज्यादातर मजदूर प्रदेश पलायन कर रहे हैं।

सोतिश राय कटिहार जिले के कदवा प्रखंड अंतर्गत मधाईपुर पंचायत के मनरेगा मजदूर हैं। उनकी उम्र अब ढलने लगी है लेकिन आठ सदस्यों के परिवार का पेट पालने के लिए वह हर दिन मजदूरी करने जाते हैं। इसके बदले उन्हें लगभग 300 रुपये मिलते हैं।

लेकिन, हर दिन एक जैसा नहीं गुजरता है कभी-कभी कई दिनों तक कोई काम नहीं मिलता है। ‘मैं मीडिया’ से बात करते हुए वह बताते हैं, “हम लोग मनरेगा मजदूर हैं लेकिन पिछले कई महीनों से काम नहीं होने की वजह से काफी दिक्कत हो रही है। गांव में घूम-घूम कर काम ढूंढते हैं। गांव में मजदूरों का रेट काफी कम है और महंगाई आसमान छू रही है। अब हम लोगों की उम्र ढल रही है लेकिन लगता है कि गांव में मजदूरी कर गुजारा नहीं हो पाएगा, क्योंकि मनरेगा में इतनी कम मजदूरी है कि परिवार चलाना मुश्किल है।”

इसी प्रखंड के बनियाटोली गांव के मनरेगा मजदूर खतइब-उल-हसन का घर काफी जर्जर स्थिति में है।‌ कई दिनों की बारिश के कारण उनके घर के चारों तरफ पानी लगा है। घर में चौकी नहीं होने की वजह से जमीन पर बिस्तर लगता है लेकिन आस-पास बारिश का पानी होने की वजह से बिस्तर नम हो चुका है। बिस्तर में कई तरह के कीड़े मकोड़े भी आ जाते हैं।

a mnrega worker from katihar district

वह बताते हैं कि वह एक मनरेगा मजदूर हैं लेकिन अभी बरसात में काम नहीं चल रहा है। “आर्थिक तंगी के चलते हर दिन सुबह पानी पीकर घर से निकलते हैं और बगल के गांव में काम ढूंढते हैं, “उन्होंने कहा।

आगे वह बताते हैं कि बच्चे एक वक्त का खाना स्कूल में खा लेते हैं लेकिन जिस दिन मजदूरी नहीं मिलती है उस दिन शाम में खाने के लाले पड़ जाते हैं। हर दिन बच्चे इंतजार करते हैं कि शाम में पिताजी कुछ लेकर आएंगे।

“सुनते हैं कि सरकार गरीबों को कॉलोनी देती है लेकिन हम लोगों को यहां कुछ नहीं मिलता है। हमारा घर ऐसा है कि जहां लोग मवेशी रखना भी पसंद नहीं करेंगे लेकिन हमारा परिवार उसी में रहता है,” निराश होकर उन्होंने कहा।

उन्हें मनरेगा मजदूरी के रूप में रोजाना 174 रुपये मिलते हैं, जो एक परिवार के लिए काफी कम है। “कुछ दिन पहले शिक्षक दिवस पर स्कूल में सब बच्चा शिक्षकों को गिफ्ट दिया। हमारा बेटा भी काफ़ी ज़िद कर रहा था कि गिफ्ट खरीद दें, लेकिन क्या करें। यहां परिवार चलाने को पैसे नहीं हैं गिफ्ट के लिए पैसे कहां से लाऊं। हमारे गांव के कुछ लोग बाहर गए हैं, सुनते हैं कि वहां अच्छा कमाई हो जाती है। गांव में रहने से अच्छा है कि बाहर जाकर काम करें ताकि परिवार का भरण-पोषण हो सके। गैस सिलेंडर रखा है लेकिन पैसा नहीं है कि गैस भरा सकें,” उन्होंने बताया।

मनरेगा के लिए नहीं मिलते मजदूर

मनरेगा में रुपये कम और अनिश्चित भुगतान के चलते लोग काम नहीं करना चाहते हैं और वे दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं। इसका असर यह हो रहा है कि यहां मनरेगा से ग्रामीण स्तर पर जो विकास कार्य होना है, उसके लिए मजदूर नहीं मिल रहे हैं।

आंकड़े भी बताते हैं कि मनरेगा में पंजीकृत मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा मनरेगा का काम नहीं कर रहा है।

मनरेगा की वेबसाइट के अनुसार, वर्तमान में देश में 14.35 करोड़ सक्रिय मजदूर रजिस्टर्ड हैं। वहीं, बिहार में सक्रिय मजदूरों की संख्या 94,81,881 है, जबकि कुल पंजीकृत मजदूर 2,16,53,600 हैं। यानी कि कुल पंजीकृत मजदूरों में से महज 43.79% मजदूर ही सक्रिय हैं, मतलब कि मनरेगा का काम कर रहे हैं।

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कदवा प्रखंड की शेखपुरा पंचायत अंतर्गत जितवारपुर गांव में मनरेगा योजना के तहत मिट्टी भराई का कार्य चल रहा है, जिसमें कुछ मजदूर काम कर रहे हैं। काम की देखरेख कर रहे माहे आलम ने बताया कि अभी मजदूर नहीं मिल रहा है। “सब मजदूर प्रदेश कमाने चले जाते हैं, क्योंकि मनरेगा की मजदूरी से घर चलना संभव नहीं। सरकार की तरफ से एक मजदूर के लिए 215 रुपए के आसपास दिया जाता है जबकि गांव में मजदूरी का रेट ₹300 से भी ज्यादा है तो इतने कम पैसे में हम लोग मजदूर कहां से ढूंढेंगे। लोग मनरेगा में काम नहीं करना चाहते हैं, “उन्होंने कहा।

a labour working in the field

“गांव के लोग बाहर जाकर कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी करते हैं, जहां उन्हें अच्छी खासी मजदूरी मिल जाती है और हर दिन पेमेंट भी मिल जाता है। लेकिन यहां मनरेगा में लगभग 15 दिन का समय लग जाता है इसलिए मजदूर प्रदेश जाना पसंद करते हैं,” आगे उन्होंने कहा।

रपटों के मुताबिक, केंद्र सरकार ने मनरेगा के बजट में इस बार कटौती है, जो मजदूरी मिलने में देरी की एक वजह हो सकती हैं।

बीबीसी की एक खबर के मुताबिक, 2020-21 में केंद्र सरकार ने मनरेगा के लिए 1,11,500 करोड़ रुपये आवंटित किये थे, लेकिन वर्ष 2022-23 में सरकार ने 89,400 करोड़ रुपये ही दिये। इसका ज्यादातर हिस्सा खर्च हो चुका है और कई राज्यों में मनरेगा फंड में कमी के चलते काम पर असर भी देखा जा रहा है।

चंदहर पंचायत के मुखिया प्रतिनिधि रागीब शजर भी कम मजदूरी दर को मनरेगा मजदूरों के पलायन का मुख्य कारण मानते हैं। उन्होंने बताया कि इतनी कम मजदूरी होने की वजह से धरातल पर मनरेगा कार्यों को अमल में लाना एक टेढ़ी खीर है। सरकार को मजदूरी दर बढ़कर 400 से 500 रुपए करना चाहिए तभी पलायन को रोका जा सकता है। आए दिन प्रदेश में प्रवासी मजदूरों की मौत होती रहती है। सरकार जल्द इस पर ध्यान दे ताकि मजदूरों का पलायन रोका जा सके।

गौरतलब हो कि पिछले कुछ महीनों में कटिहार जिले के सिर्फ बारसोई अनुमंडल में लगभग दस से अधिक प्रवासी मजदूरों की प्रदेश में काम के दौरान मौत हो गई और उनके शव गांव पहुंचे।

मनरेगा में भ्रष्टाचार!

आए दिन मनरेगा में भ्रष्टाचार होने की खबरें भी सामने आती रहती हैं। कुछ दिन पहले किशनगंज जिले में एक मनरेगा अधिकारी का घूस लेते हुए वीडियो वायरल हुआ था।

कदवा प्रखंड के एक पंचायत प्रतिनिधि ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि मनरेगा में बिना भ्रष्टाचार किए ठेकेदार को फायदा नहीं हो सकता है, क्योंकि अधिकारी से लेकर कर्मचारी हर किसी को कमीशन देना होता है। लगभग 40% पैसा कमीशन में चल जाता है बाकी जो बचा उसमें ठेकेदार को भी रखना है और काम भी करवाना है। यही वजह है कि मनरेगा योजना के तहत किए गए कार्यों में गुणवत्ता की कमी भी हो जाती है।

ज्ञात हो कि बीते अगस्त महीने में बिहार के मुखिया संघ ने 19 सूत्री मांगों को लेकर राज्य के हर प्रखंड मुख्यालय में प्रदर्शन किया था और कुछ दिनों तक कार्य का बहिष्कार भी किया था। प्रदर्शन के दौरान मुखियाओं ने अधिकारियों पर मनरेगा और बाकी योजनाओं में कमीशन लेने के गंभीर आरोप लगाये थे।

क्या कहते हैं अधिकारी

इन समस्याओं के बारे जब हमने शेखपुरा पंचायत के पीआरएस मनोज कुमार ने फोन पर बात की तो उन्होंने कहा कि हां कुछ मजदूरों के प्रदेश पलायन करने की बात सही है। वर्तमान में 228 रुपये मजदूरी दर हमारी पंचायत में निर्धारित है लेकिन गांव में मजदूरी करने पर तीन सौ से चार सौ रुपए मिल जाते हैं। ज्यादातर खाली बैठी औरतें मनरेगा में काम करती है और पुरुष पंजाब, मुंबई जैसे शहरों में पलायन कर जाते हैं या कहीं और काम करते हैं, “उन्होंने कहा।

पेमेंट में देरी होने की बात पर मनोज कुमार बताते हैं कि जब पैसा आया हुआ रहता है तो लगभग 10-15 दिन में मिल जाता है लेकिन कभी-कभी पैसा नहीं रहने पर दो महीने से ज्यादा समय भी लग जाता है।

वहीं, मधाईपुर पंचायत के पीआरएस मनीष कुमार कहते हैं, “मनरेगा योजना चलाने में हम लोगों को काफी परेशानी होती है। मजदूर नहीं मिलता है। वे पलायन कर जाते हैं या दूसरी जगह गांव में मजदूरी करते हैं। मजदूरों का कहना है कि जब इससे ज्यादा मजदूरी उन्हें कहीं और मिल जाती है तो मनरेगा में मजदूरी क्यों करें,” उन्होंने कहा।

इस संबंध में कटिहार के डीडीसी सौरभ सुमन यादव कहते हैं, “हमें काम के लिए मजदूर मिल जाते हैं। और जहां तक मनरेगा मजदूरों के पलायन की बात है, तो इसकी जानकारी मुझे नहीं है।” मजदूरी बढ़ाने के सवाल पर उन्होंने कहा कि मजदूरी की दर सरकार निर्धारित करती है। सरकार जैसा निर्णय लेगी, हम लोग उसका पालन करेंगे।

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Aaquil Jawed is the founder of The Loudspeaker Group, known for organising Open Mic events and news related activities in Seemanchal area, primarily in Katihar district of Bihar. He writes on issues in and around his village.

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