मुख्य सड़क से बाईं ओर मुड़ती एक पतली मगर पक्की सड़क के पास हमारी गाड़ी ज्योंही रुकी, वहां खड़े एक नौजवान ने सवाल पूछने से पहले ही हमें जवाब दे दिया गोया कि उसने हमारा मन पढ़ लिया हो।
“घिनहू ब्रह्म स्थान जाना है न? इसी सड़क पर चले जाइए…गाड़ी से पांच मिनट लगेगा, बस!,” नौजवान ने कहा।
रोहतास जिले के बिक्रमगंज थाना चौक से दाईं तरफ कटी स्टेट हाईवे पर करीब 6 किलोमीटर दूर बाएं हाथ जाती पतली सड़क संझौली प्रखंड मुख्यालय पर जाकर खत्म हो जाती है। बीच में कुछ गांव पड़ते हैं, जिनके लिए यह रोड संपर्क पथ का काम करता है। चूंकि यह किसी बड़ी सड़क से नहीं जुड़ती है, इसलिए इस पर वाहनों की आवाजाही भी कम ही रहती है।
लेकिन, जिस रोज़ हमलोग घिनहू ब्रह्म स्थान जा रहे थे, वह 18 अक्टूबर का दिन था। हिन्दू पंचांग के अनुसार, उस दिन पंचमी था और उस सड़क पर पड़ने वाला हर कदम, हर वाहन का चक्का घिनहू ब्रह्म स्थान की ओर मुखातिब था।
घिनहू ब्रह्म स्थान सड़क किनारे सीवान में स्थित है। गांव का नाम अज्ञात है। वैसे, कुछ लोगों का कहना है कि यह पवनी गांव में पड़ता है, मगर पवनी नाम किसी सरकारी दस्तावेज में दर्ज नहीं है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि घिनहू ब्रह्म नाम के एक लोक देवता ने पवनी गांव को श्राप दे दिया था, जिससे गांव के सभी लोगों की मृत्यु हो गई। गांव में कोई चिराग जलाने वाला न रहा और य ‘बेचिरागी’ गांव के नाम से जाना जाने लगा।
घिनहू ब्रह्म स्थान में कुछ मंदिर भी हैं। ये मंदिर कितने पुराने हैं, कोई नहीं जानता, लेकिन यहां हर साल दुर्गा पूजा से ठीक पहले पांच दिनों का मेला लगता है। यही मेला दुबारा अप्रैल माह में चैत्र नवरात्रि के वक्त भी लगता है। आधिकारिक तौर पर इस मेले को ‘घिनहू ब्रह्म’ मेला कहा जाता है, लेकिन असल में यह झाड़-फूंक करने वाले ओझाओं और कथित तौर पर भूत-प्रेत के साये से पीड़ित लोगों, जिन्हें ओझा लोग ‘जसनी’ कहते हैं, का मेला होता है।
हमलोग यही मेला देखने के लिए घिनहू ब्रह्म स्थान जा रहे थे। पतली सड़क पर कुछ मिनट चलने के बाद ही सड़क किनारे खाली खेत में कुछ तंबू नजर आने लगे, जो दूर से किसी शरणार्थी कैंप होने का अहसास दे रहे थे।
नजदीक पहुंचने पर मेले-सा माहौल था। दर्जनों तम्बू लगे हुए थे, जिनमें सैकड़ों लोग पसरे हुए थे। मंदिरों के आसपास हवन का धुआं फैला हुआ था। पूजा सामग्री की दुकानें गुलजार थीं और खाने-पीने की भी पर्याप्त दुकानें लगी हुई थीं।
ओझा अपनी जसनियों के साथ तिरपाल पर बैठकर ओझाई कर रहे थे। पीड़ितों में बहुतायत महिलाएं थीं। पुरुष इक्का-दुक्का ही थे।
उनकी वेशभूषा, बोलचाल से साफ जाहिर होता था कि वे समाज उस हिस्से से ताल्लुक रखते हैं, जो हाशिये पर है और शिक्षा उनसे कोसों दूर है।
मेले में बिजली की सप्लाई दे रहे राजू कहते हैं कि लगभग चार हजार ओझा यहां हैं और चार पांच दिनों में एक से डेढ़ लाख लोग प्रेत के प्रभाव की शिकायत लेकर आये व झाड़-फूंक करवा कर चले गये।
मेले के दुकानदारों का कहना है कि पहले जैसी भीड़ अब यहां नहीं होती। “पहिले काफी मातरा में लोग आबत रहे। जब लइका रहीजा न तब इ गलिया में गरदा उरत रहे… आदमी रेल लेखा दउरत रहे… अब का, कुछो नईखे (पहले तो बड़ी तादाद में लोग आते थे। जब मैं छोटा था, तो देखता था कि इस गली में लोगों की भीड़ इतनी होती थी कि धूल उड़ती रहती थी। लोग रेलगाड़ी की तरह दौड़ा करते थे। अब तो उसके मुकाबले कुछ भी नहीं है),” तीन दशक से मेले में पान की दुकान लगाने वाले 46 वर्षीय संजय कुमार सिंह कहते हैं।
मेला प्रांगण में सबसे पहले जो मंदिर था, उसके आसपास कम से कम एक दर्जन ओझा अपनी जसनियों को शरीर से कथित भूत को उतारने में व्यस्त थे और भूत उतारने के बदले चढ़ावा देने का वादा ले रहे थे।
इस मंदिर को पार कर जब हम दूसरे मंदिर के पास पहुंचे, तो वहां पहले वाले मंदिर से ज्यादा गहमागहमी थी। मंदिर के दालान पर ही आधा दर्जन महिलाएं सिर को जोर जोर से हिला रही थीं और गाना जैसा कुछ गा रही थीं। क्या गा रही थीं, समझना मुश्किल था। इन महिलाओं के बगल में उनके परिजन बैठकर ओझाओं के चमत्कार का इंतजार कर रहे थे।
सूअर, मुर्गा, अंडे की बलि
मंदिर की दूसरी तरफ एक खाली मैदान था। मैदान में मुर्गियों व सूअरों के कटे हुए सिर, कटे हुए नींबू, फूटे हुए अंडे नजर आ रहे थे। जगह-जगह खून के धब्बे थे, जिसे देखकर एकबारगी लगता था कि अभी कुछ देर पहले यहां एक खूंखार जंग खत्म हुआ है। दरअसल, यह मैदान बलिगाह था। कथित भूत शरीर छोड़ने की शर्त रखता था। कोई अंडे की बलि देने की शर्त रखता, तो कोई सुअर और कोई मुर्गा। इन्हें इसी मैदान में बलि दी जा रही थी। बलि से पहले उनकी गर्दन पर शराब, सिंदूर और अरवा चावल के दाने डाले जाते। पूरा मैदान ही शराब की गंध से सराबोर था।
बलि के लिए स्थानीय लोग सूअर के पिल्लों, मुर्गियों, अंडों और शराब लेकर मेले में पहुंचे थे। यह आयोजन उनके लिए रोजगार था। मैदान में चाकू लेकर एक दर्जन से अधिक डोम और मुसहर समुदाय के लोग भी पहुंचे थे, जो कुछ पैसा लेकर बलि देते थे। इनमें 14-15 साल के बच्चे से लेकर 40 साल के अधेड़ शामिल थे।
मैं अपने एक स्थानीय साथी के साथ मैदान में टहल ही रहा था कि छोटी कद काठी का अधेड़ हाथ में चाकू लिये नमूदार हुआ और सीधे ऑफर किया – लागी का सर….मुर्गा, छौना? लागी त धीरे से कहीं (कुछ चाहिए क्या सर…मुर्गा, सूअर का बच्चा? चाहिए होगा, तो धीरे से बता दीजिए)।
बातचीत में वह अपना नाम कन्हैया डोम बताते हैं। वह झाड़ फूंक कराने आये लोगों के लिए बलि देने का काम करते हैं। वह सूअर की बलि देने का 100 रुपये और मुर्गे की बलि देने का 20 रुपये लेते हैं। यही चार्ज कमोबेश सभी लोग लेते हैं।
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मेले में बलि के लिए लाये गये सूअर के पिल्लों व मुर्गियों के दाम आसमान छू रहे हैं। बाजार में सूअर का मीट अमूमन 200 से 250 रुपये किलोग्राम बिकता है और मुर्गे का मीट 125 से 150 रुपये किलोग्राम, मगर यहां लाये सूअर के पिल्ले की कीमत 3000 रुपये और मुर्गे की कीमत लगभग 1000 रुपये है।
मगर, कन्हैया डोम हमें कम दाम में भी सूअर या मुर्गा दिला देने का प्रस्ताव देते हैं और यह भी कि बलि में भी हमें छूट दिलवा देंगे। जब उन्हें हम बताते हैं कि हम सिर्फ जानकारी लेने के लिए यहां आये हैं, तो वह कुछ सतर्क होकर कहते हैं, “दाम में हम लोग कोई गड़बड़ी नहीं करते हैं सर। किसी से भी पूछ लीजिए।”
इसी बीच, एक चबूतरे पर बना हवन कुंड अभी अभी जला है। उसके आजू-बाजू कई चबूतरे हैं, जिन पर कई अर्ध गोलाकार पिंड चिपके हुए हैं। ये मिट्टी, पत्थर या सीमेंट के बने हैं, कहना मुश्किल है। चबूतरों पर अरवा चावल, नकुल दाने, अगरबत्ती, सिंदूर और फूलों की मालाएं बिखड़ी पड़ी हैं। अभी अभी जले हवनकुंड की एक ओर एक युवती को बैठा दिया गया है। उसकी गोद में उसका निजी सामान मसलन बैग, चूड़ियां, चश्मा, घड़ी आदि रख दिया गया है।
नंगे बदन पर नेहरू जैकेट, गले में रुद्राक्ष की माला और भगवा गमछा पहने हुए एक हट्टा-कट्टा ओझा आकर उस महिला के सामने बैठता है और अपनी कर्कश आवाज में जोर जोर से कोई फूंकने लगता है। फिर वह महिला के दोनों हाथ पकड़ लेता है। अब महिला और ओझा दोनों झूम रहे हैं। आधे मिनट तक झूमने के बाद ओझा अचानक जोर से महिला को अपनी तरफ खींचता है और एक हाथ उसके सिर पर रखकर सिर नीचे जमीन में गोंत देता है, जैसे की वह कुश्ती का कोई पहलवान हो और अपने प्रतिद्वंद्वी पहलवान को परास्त करने के लिए एक जोरदार पैंतरा आजमा रहा हो।
महिला भी कोई विरोध नहीं करती, मानो उसने हार मान ली हो। फिर ओझा अपने दूसरे हाथ को खींच लेता है और मुट्ठी बांध लेता है। शायद वह दिखाना चाह रहा था कि उसने भूत को मुट्ठी में कैद कर लिया है। वह मुट्ठी को महिला के बगल में बैठे अपने आदमी की तरफ बढ़ा देता है। वह व्यक्ति ओझा की मुट्ठी अपने हाथ में लेता है जैसे की भूत को ओझा के हाथ से अपने हाथ में हस्तांतरित कर रहा हो।
इसके बाद एक तीसरा आदमी महिला को उठाता है और उसे उसके तंबू में ले जाता है। महिला तेज कदमों से तम्बू की तरफ बढ़ती है और वहां जमीन बिछे बिस्तर पर लेट जाती है। मैं महिला से बात करने की कोशिश करता हूं, लेकिन वह कुछ भी नहीं बताती। उसके बगल में बैठा एक नौजवान उसका रिश्तेदार मालूम पड़ता है लेकिन बातचीत करने से यह कहकर इनकार कर देता है कि वह महिला को नहीं जानता।
” केकर घर के भूत हs बताव जल्दी”
तंबू से मंदिर की तरफ लौटते हुए एक बुजुर्ग महिला कुछ गाती हुई हाथ उठाकर झूमती नजर आती है और उसके सामने बैठा ओझा उससे पूछ रहा है कि बुजुर्ग महिला को क्यों परेशान किया जा रहा है। उस बुजुर्ग महिला से 10 कदम की दूरी पर एक महिला अपने शरीर के कमर से ऊपर के हिस्से को गोल-गोल घुमाते हुए झूम रही है। उसके सामने बैठा ओझा महिला पर आये कथित भूत से डपट कर पूछ रहा है कि वह क्या अपने ही घर का है या फिर दूसरे के घर का है।
“भूत कहां से हs …केकर घर के भूत हs बताव जल्दी (कहां का भूत हो…किसके के घर का भूत हो, बताओ जल्दी),” लगभग 50 साल की उम्र का ओझा पूछता है।
महिला कुछ नहीं कहती, बस झूमती रहती है। झूमते हुए उसकी साड़ी छाती से नीचे सरक जाती है। महिला को इसका एहसास होता है। वह कुछ पल ठहरती है और साड़ी से छाती ढकती है, फिर झूमना शुरू कर देती है। “जल्दी बताव..छिपाव मत…आंख बंद मत कर…आंख बंद करे से कुछ ना होई (जल्दी बताओ…छिपाओ मत…आंख बंद मत करो…आंख बंद करने से कुछ नहीं होने वाला),” ओझा फिर पूछता है। मगर, महिला की चुप्पी और झूमना बरकरार रहता है। ये सिलसिला लम्बे वक्त तक चलता है।
एक अन्य महिला मंदिर के भीतर लम्बे समय से झूम रही है और गा रही है। उसका ओझा भी लगातार गा रहा है। महिला एक पंक्ति गाती है, तो उसके जवाब में ओझा भी एक पंक्ति गाता है। लगता है कि दोनों गाकर एक दूसरे से संवाद कर रहे हैं, लेकिन वो क्या गा रहे हैं, यह समझ नहीं आता है। महिला के साथ आया एक युवक नाम नहीं बताते की शर्त पर जानकारी देता है कि 10 साल पहले भी महिला को भूत ने पकड़ लिया था। उस वक्त उसे यहां लाया गया था। झाड़ फूंक हुई तो वह ठीक हो गई, लेकिन अब फिर उस पर भूत का साया मंडराने लगा, तो दोबारा यहां लेकर आया है।
ओझा ने महिला के साथ आये उस युवक से शराब के साथ अंडे की बलि देने को कहा है। ओझा ने अंडे की बलि देने की विधि भी बताई है। युवक ने अंडा और शराब खरीदा और महिला को विधि बता दी।
महिला एक हाथ में अंडा और एक हाथ में शराब भरी प्लास्टिक की बोतल लेकर मंदिर से सटे बलिगाह में आ गई है। वह गाते-गाते हाथ में अंडा लिये झूमते हुए दो कदम आगे फिर दो कदम पीछे जाती है। गाते गाते वह एक झटके से आगे बढ़ती है और अंडे को जमीन पर दे मारती है।
फिर वहां शराब उड़ेलती है और बायें हाथ से टूटे अंडे से निकले तरल पदार्थ को लीप कर मंदिर की तरफ दौड़ पड़ती है। पीछे-पीछे उसका रिश्तेदार युवक भागता है। मंदिर में वह चारों ओर महिला को खोजने लगता है, लेकिन वह नहीं मिलती। उसकी पेशानी पर चिंता की लकीरें आ जाती हैं। एक-डेढ़ मिनट बाद वह मंदिर के गर्भगृह से बाहर निकलती है और पहले की तरह ही झूमते हुए गाना गाने लगती है। महिला को देखकर युवक को थोड़ी राहत मिल जाती है।
एक अन्य महिला के सिर से भूत का साया हटाने के लिए एक मुर्गे को बलि देने और एक मुर्गे को उड़ाने का फरमान हुआ है। महिला के साथ उसका पति भी है। पति मुर्गा खरीद कर लाता है।
बलि देने वाला एक व्यक्ति मुर्गे को पकड़ लेता है और उसकी गर्दन जमीन पर रख देता है। महिला उसकी गर्दन पर चावल, सिंदूर और शराब डालती है। बलि देने वाला व्यक्ति चाकू पकड़ता है। महिला भी अपना हाथ चाकू के हत्थे पर सटा देती है। बलि देने वाला युवक गला रेत देता है। दूसरे मुर्गे को महिला अपने हाथों में पकड़ लेती है। उसके सिर पर भी चावल, सिंदूर और शराब उड़ेला जाता है और वह दोनों हाथों से उसे उड़ा देती है। मुश्किल से 10 फीट दूर जाकर मुर्गा जमीन पर आ जाता है। आधा दर्जन डोम के बच्चे उस पर झपट पड़ते हैं। उनमें से एक बच्चा उसे अपने कब्जे में लेकर घर की तरफ निकल जाता है। उसके परिवार के लोग आज मुर्गा भात खायेंगे।
झाड़ फूंक पर लोगों की अंधश्रद्धा देखकर मेरे जेहन में मुजफ्फरपुर के रामनाथ पासवान की लोक कविता बार बार कौंधती रही।
उनकी कविता की शुरुआत की दो पंक्तियां कुछ यूं हैं-
अशिक्षा अन्हरिआ में ओझा कमाइन है,
आदमी गेल चांद पर, आ गांव में डायन है।
गांवों में बढ़ेंगे झगड़े
ब्रह्म स्थान में जो भी पीड़ित आये हैं, उनके साथ एक ओझा है। यहां की रिवायत यही है कि कोई अनजान पीड़ित व्यक्ति यहां आकर किसी अनजान ओझा से झाड़ फूंक नहीं करवा सकता है। बल्कि उसे ओझा को साथ लेकर ही आना होगा।
70 साल के लक्ष्मण पासवान ओझा हैं और 25 साल की उम्र से ही झाड़ फूंक कर रहे हैं। वह मूल रूप से बक्सर के रहने वाले हैं। उन्होंने अपने पिता से झाड़ फूंक सीखा है।
वह कहते हैं, “लोग अलग तरह की शिकायत लेकर पहुंचते हैं और हम लोग झाड़ फूंक करते हैं। झाड़ फूंक की फीस क्या लेते हैं? इस सवाल पर वह कहते हैं, “अरे सर, हम लोग गरीब आदमी से क्या लेंगे!”
वह अब तक 15 लोगों की झाड़ फूंक कर चुके हैं। कई और परिवार उनका इंतजार कर रहे हैं। हम लोग लक्ष्मण पासवान से थोड़ी और बातचीत करना चाहते हैं लेकिन उनके साथ आया एक युवक उन्हें जल्दी चलकर झाड़ फूंक करने की गुजारिश करने लगता है और हमारी बातचीत अधूरी रह जाती है।
साल 1999 में डायन के संदेह में महिलाओं की प्रताड़ना के खिलाफ कानून लाने वाला बिहार पहला राज्य था। बाद में अन्य राज्यों ने भी इसका अनुसरण किया।
अधिनियम के अनुसार, न केवल किसी व्यक्ति की डायन के रूप में पहचान करना, बल्कि किसी महिला को ‘झाड़ फूंक’ या ‘टोटका’ द्वारा ठीक करना और शारीरिक या मानसिक नुकसान पहुंचाना दंडनीय अपराध है। हालांकि, इस अधिनियम के तहत सज़ा बहुत कम है। इस अधिनियम के तहत सभी अपराधों के लिए तीन महीने से एक साल तक की जेल की सजा या 1,000 रुपये से 2,000 रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है।
डायन और झाड़ फूंक के खिलाफ देश में सबसे पहले कानून वाले राज्य में सरकार के संरक्षणमें खुलेआम झाड़ फूंक का गोरखधंधा चल रहा है। सरकार यहां आने वाले पीड़ितों और ओझा से राजस्व वसूल रही है।
कथित भूतों के साये और उन्हें भगाने के लिए ओझाओं के तिकड़मों को देखते हुए शाम हो गई। गहराती शाम के साथ पीड़ितों का आना भी तेज हो गया था था। मैं भी मेले से लौटने लगा। लौटते हुए एक दुकानदार ने व्यंग्य के लहजे में टिप्पणी की – “ये झाड़ फूंक गांव गांव में झगड़ा लगाएगा।”
वह इस वाक्य को थोड़ा विस्तार से समझाते हैं – “ये ओझा लोग पीड़ितों से कहेगा कि आस पड़ोस लोगों ने ही उन पर भूत हुलका (लगा) दिया है। ये लोग यहां से घर लौटेंगे, तो भूत हुलकाने का आरोप लगाकर अपने पड़ोसियों से मारपीट करेंगे।”
दुकानदार की बातें सुनते ही मुझे गया जिले में पिछले बरस हुई एक वीभत्स घटना की याद ताजा हो गई।
2022 के नवंबर महीने की एक दोपहर गया के पंचमाहा गांव में करीब 1,000 लोगों की भीड़ जमा हुई थी।
उस भीड़ में से कुछ ग्रामीण महादलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले 45 वर्षीय अर्जुन दास के घर आये और उनकी 42 वर्षीय रीता देवी के साथ पंचायत में जाने के लिए कहा।
वह अकेले ही पंचायत स्थल पर पहुंचे तो देखा कि भीड़ में उत्तेजना थी। उसी भीड़ में एक ओझा भी था। उस ओझा ने अर्जुन दास से कहा – “तुम्हारी पत्नी डायन है। मैं यह साबित करूंगा और सबके सामने नचाऊंगा।”
उस ओझा को मुसहर समुदाय से आने वाले चंद्रदेव भुइयां ने बुलाया था, जिसे संदेह था कि अर्जुन दास की पत्नी डायन है और उसी ने उसके बेटे की हत्या की है।
अर्जुन दास ने ओझा के सामने शर्त रखी कि अगर वह उसकी पत्नी को डायन साबित नहीं कर पाया, तो उसे जुर्माना देना होगा। ओझा इसके लिए तैयार नहीं हुआ और पंचायत बेनतीजा रही। अर्जुन दास घर लौट गये।
उनके घर लौटने के कुछ देर बाद ही गुस्साई भीड़ ने उनके घर पर हमला कर दिया और उनकी पत्नी को जिंदा जलाकर मार दिया।
घिनहू ब्रह्म स्थान में जो कुछ मुझे दिखा, उससे डर है कि जिन गांवों से पीड़ित यहां पहुंचे हैं, उन गांवों में रीता देवियों की शिनाख्त की जाने लगेगी।
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