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अररिया: दशकों से बाँसुरी बेच रहे ग्रामीण बुनियादी सुविधाओं से वंचित

कोसी की पुरानी धार के किनारे बसा लहटोरा गांव बांसुरी वाले मोहल्ले के रूप में जाना जाता है। यहां लगभग 20 परिवार रहते हैं, ये लोग बाँसुरी बनाकर घूम घूम कर बेचते हैं।

ved prakash Reported By Ved Prakash |
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अररिया जिले की चातर पंचायत स्थित छोटी लहटोरा गांव के दिन की शुरुआत बाँसुरी की सुरीली आवाज़ से होती है। कोसी की पुरानी धार के किनारे बसा यह मोहल्ला बांसुरी वाले मोहल्ले के रूप में जाना जाता है। यहां लगभग 20 परिवार रहते हैं, ये लोग बाँसुरी बनाकर घूम घूम कर बेचते हैं। ये बाँसुरी फरोश मुस्लिम बिरादरी, शाह यानी मदारी समुदाय से आते हैं। समुदाय के लोगों ने बताया कि उनका समुदाय अत्यंत पिछड़ी जाति में शुमार किया जाता है। पुराने जमाने में ये लोग जानवरों का खेल दिखाते थे, लेकिन जानवर प्रतिबंधित कर दिए जाने के बाद से इन लोगों ने बाँसुरी बनाने और बेचने का व्यवसाय शुरू कर दिया।

गांव निवासी मोहम्मद मंज़ूर शाह बताते हैं कि वे बिहार के विभिन्न शहरों में लगे मेलों में जा कर बाँसुरी बेचते हैं। वे लोग बाँसुरी फ़रोशी का काम पिछले कई दशकों से कर रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि मेला लगता है, तो थोड़ी बिक्री हो जाती है , साल में 6 महीने चलता है और बाकी दिनों में खाली बैठना पड़ता है।

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गांव के सबसे अनुभवी बाँसुरी वादकों में से एक मोहम्मद दाऊद शाह ने बताया कि उनका समुदाय अत्यंत पिछड़ी जाति में आता है। बाँसुरी की अधिक बिक्री न होने के कारण बड़ी मुश्किल से गुज़ारा हो पाता है। उन्होंने आगे कहा कि उनके मोहल्ले में लोगों को इंदिरा आवास का लाभ मिला है और राशन कार्ड से उन्हें अनाज भी मिलता है हालाँकि वह शौचालय, जल और सड़क की सुविधा न देने पर सरकार से नाराज़ हैं।


उन्होंने यह भी कहा कि जन प्रतिनिधि से लेकर कई मीडियाकर्मी आए लेकिन न सड़क बनी न शौचालय तैयार किया गया। आमदनी कम होने के कारण मोहल्ले में किसी के घर भी शौचालय नहीं बन सका है।

लहटोरा गांव के वार्ड नंबर 05 में प्रवेश करने पर किसी न किसी घर से बाँसुरी की मनमोहक आवाज़ सुनाई दे जाती है। यहां के लोग जंगल से बांस जमा कर के लाते हैं और बांसुरी बनाने में लग जाते हैं। बांसुरी बनाने के बाद कई प्रकार की आवाजें निकाल कर बाँसुरी की गुणवत्ता का जायज़ा लिया जाता है।

मोहम्मद मंजूर शाह ने बताया कि बांसुरी बनाने के लिए सबसे पहले बांस का चयन किया जाता है। उसके बाद उसे 3 महीने तक सुखा कर बड़ी बारीकी से बाँसुरी का रूप दिया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि बरसात के दिनों में कोसी से पानी आ जाता है और इसके अलावा मोहल्ले में एक भी शौचालय न होने से घर वालों को बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

शौचालय बनाने में काफी खर्च आता है, उतनी बचत नहीं हो पाती कि शौचालय बनवा सकें, सरकार के द्वारा कहा जाता है कि शौचालय बनवा लो, बाद में पैसा मिलेगा अब उतना पैसा ही नहीं है तो कहां से बनाएं।

बाँसुरी बनाने वाले इन परिवारों के बच्चे शिक्षा के मैदान में क्या कर रहे हैं, जब हमने यह जाने की कोशिश की तो पता चला अधिकतर बच्चे स्कूलों से दूर हैं। स्थानीय निवासी मोहम्मद फ़िरोज़ ने बताया कि उनकी बिरादरी के 20 बच्चे स्कूल जाते हैं लेकिन बारिश के दिनों में पानी घरों में घुस जाता है और कहीं भी जा पाना बेहद मुश्किल हो जाता है।

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अररिया में जन्मे वेद प्रकाश ने सर्वप्रथम दैनिक हिंदुस्तान कार्यालय में 2008 में फोटो भेजने का काम किया हालांकि उस वक्त पत्रकारिता से नहीं जुड़े थे। 2016 में डिजिटल मीडिया के क्षेत्र में कदम रखा। सीमांचल में आने वाली बाढ़ की समस्या को लेकर मुखर रहे हैं।

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