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उर्दू अदब और हिन्दी साहित्य का संगम थे पूर्णिया के अहमद हसन दानिश

अहमद हसन दानिश ने उर्दू में शायरी के अलावा उपन्यास, विश्लेषण और समालोचना के मैदान में अपना योगदान दिया। उन्होंने हिंदी में भी कुछ कविताएं लिखीं जो काफी पसंद की गईं । उनकी कविताएं ''शिवाला'', ''कारगिल'' और ''हम आज़ाद हुए हैं क्या'' ने उन्हें राष्ट्रभक्त कवि के तौर पर पेश किया। उनकी मृत्यु पर सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि पेश करते हुए कई लोगों ने उन्हें 'देशभक्त कवि' कह कर याद किया।

syed jaffer imam Reported By Syed Jaffer Imam |
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Dr ahmad hasan danish

बीते 10 जुलाई को उर्दू शायर और साहित्यकार डॉ अहमद हसन ‘दानिश’ का देहांत हो गया। वह 77 वर्ष के थे। अहमद हसन दानिश सीमांचल के चुनिंदा ‘उस्ताद’ शायर और साहित्यकारों में से एक थे। उन्होंने उर्दू भाषा में कई पुस्तकें लिखीं जिनमें से कुछ पुस्तकों का उन्होंने हिन्दी में अनुवाद किया। सोमवार 10 जुलाई को उन्होंने पूर्णिया के सज्जाद कॉलोनी स्थित अपने आवास पर आखिरी सांसें लीं।


अहमद हसन दानिश ने उर्दू में शायरी के अलावा उपन्यास, विश्लेषण और समालोचना के मैदान में अपना योगदान दिया। उन्होंने हिंदी में भी कुछ कविताएं लिखीं जो काफी पसंद की गईं। उनकी कविताएं ”शिवाला”, ”कारगिल” और ”हम आज़ाद हुए हैं क्या” ने उन्हें राष्ट्रभक्त कवि के तौर पर पेश किया। उनकी मृत्यु पर सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि पेश करते हुए कई लोगों ने उन्हें ‘देशभक्त कवि’ कह कर याद किया।

भागलपुर में जन्में अहमद हसन दानिश पूर्णिया में आ बसे

अहमद हसन दानिश का जन्म 13 सितंबर 1945 को भागलपुर के नवगछिया प्रखंड अंतर्गत मखातकिया गांव में हुआ। उन्होंने नवगछिया से दसवीं करने के बाद कटिहार के डीएस कॉलेज से इंटर पास किया और फिर भागलपुर के टीएनबी कॉलेज से बी.ए (राजनीति विज्ञान) की पढ़ाई की।


1966 में उन्होंने एम.ए उर्दू में स्वर्ण पदक हासिल किया जिसके बाद उन्हें भागलपुर के एक इवनिंग कॉलेज में मामूली वेतन वाली अस्थायी नौकरी मिली। इस दौरान उन्होंने एलएलबी की डिग्री भी हासिल कर ली। 1970 में अपने बड़े भाई के कहने पर उन्होंने पूर्णिया आकर वकालत शुरू की।

उर्दू और फ़ारसी में एम.ए करने के बाद उन्होंने 1978 में बिहार यूनिवर्सिटी से उर्दू मसनवी लेखन पर पीएचडी की पढ़ाई की। पूर्णिया के महिला कॉलेज में संस्थापक सदस्य के तौर पर लेक्चरर बने। बाद में उन्हें पूर्णिया कॉलेज में उर्दू-फ़ारसी के लेक्चरर की नौकरी मिल गई।

सीमांचल में उर्दू अदब के एक युग का अंत!

कई उर्दू पुस्तकों के लेखक और बिहार यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर फ़ारूक़ सिद्दीक़ी, डॉ अहमद हसन दानिश के करीबी थे। फ़ारूक़ सिद्दीक़ी ने प्रोफेसर दानिश को याद करते हुए कहा कि उनके चले जाने से ऐसा लगा जैसे अपने सगे भाई की मौत हो गई हो।

“शख्सी तौर पर और अदबी तौर पर उनका मुक़ाम बहुत बड़ा था। तारिक जमीली के बाद उनके जैसा साहित्यकार पूरे सीमांचल में और कोई दिखाई नहीं देता है। उन्होंने दर्जनों लोगों को अपनी निगरानी में पी.एच.डी करवाई। वह शायर, तनक़ीद निगार, अफसाना निगार, और रिसर्चर भी थे। उनके जैसा कोई साहित्यकार अब पूर्णिया में नहीं रहा। उनकी जगह अब भर नहीं सकेगी,” प्रोफेसर सिद्दीक़ी ने कहा।

गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल थे अहमद हसन दानिश

पेशे से डॉक्टर और हिंदी कवि, लेखक डॉ केके चौधरी प्रोफेसर अहमद हसन दानिश के सबसे क़रीबी शिष्यों में से एक हैं। उन्होंने बताया कि प्रोफेसर अहमद दानिश ने पूर्णिया और आसपास के कई हिन्दी के जानकारों को उर्दू ग़ज़ल और नज़्म से रूबरू कराया और उन्हें इनकी बारीकियां सिखाईं। डॉ चौधरी ने यह भी बताया कि कुल्हैया और उर्दू ज़ुबान के मशहूर शायर हारुन रशीद ग़ाफ़िल भी अहमद हसन दानिश से बहुत प्रभावित थे और वह अहमद हसन दानिश को अपना उस्ताद माना करते थे।

“बहुत लोगों को उन्होंने सिखाया। वह तहज़ीब भी सिखाते थे और उन्होंने हमें लिखने के लिए प्रेरित किया। इस समय उर्दू ग़ज़ल खूब चल रही है। बहुत सारे लोगों को उन्होंने हिन्दी में ग़ज़ल लिखना सिखाया। हमलोग खूब शौक़ से उनके पास जाते थे कि वह गुरु हैं हमारे, उनसे आज कुछ नयी चीज़ सीखेंगे,” केके चौधरी ने कहा।

उन्होंने एक रोचक घटना बताई। एक बार जलालगढ़ के एक शख्स उनके पास आए और कहा कि वह उर्दू का कार्यक्रम करवाना चाहते हैं तो प्रोफेसर अहमद दानिश ने उनसे कहा कि इस कार्य्रकम को शहर में न कर गाँव – देहात के इलाके में कीजिये ताकि ग़ज़ल गाँव गाँव पहुँच सके। उसके बाद वह कार्यक्रम जलालगढ़ के काली मंदिर के सामने एक चाय की दुकान में कराया गया।

डॉ केके चौधरी ने आगे बताया कि प्रोफेसर अहमद दानिश अक्सर आकाशवाणी पूर्णिया के दफ्तर पर अपनी शायरी पढ़ने जाया करते थे। चूँकि उनका घर आकाशवाणी दफ्तर से सटा हुआ है इस लिए प्रोफेसर दानिश अक्सर उनके घर आते थे।

“ग़ज़ल कविता, कहानी तो बहुत लोगों ने लिखा लेकिन आम आदमी के साथ दानिश जी का जो ताल्लुक था वह बहुत शानदार था। वह गंगा-जमुनी तहज़ीब के अलमबरदार बन कर उभरे थे। काली मंदिर में एक बार कार्यक्रम हुआ था तो वह उसमें भी आए थे। हम लोगों ने उनको सम्मानित भी किया था। वह सीमांचल और कोसी में बहुत पसंद किए जाते थे। दूर दूर से उन्हें बुलाया जाता था। अब बस उनकी यादें हैं। जिस दिन उनकी मौत हुई उस दिन से हम बीमार ही हैं,” डॉ चौधरी लड़खड़ाती आवाज़ में बोले।

डॉ अहमद हसन दानिश को सीमांचल में गंगा-जमुनी तहज़ीब को प्रचलित करने वाले शायर के तौर पर काफी पहचान मिली। उनकी कविता “मानवता की प्रयोगशाला” और “प्रश्न चिन्ह” बहुत मशहूर हुईं। पूर्णिया यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के शिक्षक प्रोफेसर सादिक़ ने बताया कि डॉ अहमद दानिश की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वह उर्दू में तो उस्ताद शायर थे ही, उसके साथ साथ उन्हें हिन्दी कवि सम्मेलनों में बहुत आदर सम्मान के साथ बुलाया जाता था और उन्हें उनकी कविता के लिए बहुत पसंद किया जाता था।

”आओ मुसलमानों ! लाओ तुम आबे ज़म-ज़म,
आओ हिन्दुओं ! लाओ तुम गंगा-जल

फिर दोनों को मिट्टी के पात्र में मिलाओ,
खूब और खूब हिलाओ……..”
(मानवता की प्रयोगशाला)

वह कहते हैं, “गंगा-जमुनी तहज़ीब पर जो उन्होंने लिखा उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। इनकी मौत के बाद पूरे बिहार से बहुत प्रतिक्रियाएँ आईं। मिथिला यूनिवर्सिटी, बिहार यूनिवर्सिटी और बाकी साहित्य से जुड़े लोगों में इनके जाने का बहुत दुःख है। डॉ अहमद दानिश का चले जाना उर्दू अदब का बहुत बड़ा नुकसान है।”

हिन्दी-उर्दू दोनों में खूब पसंद किए गए ‘दानिश’

प्रोफेसर अहमद हसन दानिश ने कुल 13 पुस्तकें लिखीं जिनमें 10 पुस्तकें छप कर आ चुकी हैं। इनमें शायरी के अलावा उपन्यास, विश्लेषण जैसे विषय शामिल हैं। उनकी सबसे पहली पुस्तक ‘बिहार में उर्दू मसनवी का इर्तेक़ा’ वर्ष 1989 में छपी, जिसे उन्होंने पी.एच.डी के थीसिस के तौर पर लिखा था। उनकी उर्दू शायरी का संग्रह ‘पैकर ए सुखन’ पुस्तक की शक्ल में मौजूद है।

जन्म के समय उनका नाम मुश्ताक़ अहमद रखा गया था, लेकिन स्कूल में उन्हें अहमद हसन लिखा गया। जब उन्होंने शायरी शुरू की तो ‘दानिश’ का तख़ल्लुस ले लिया। दानिश फ़ारसी भाषा का शब्द है जिसका मानी होता है ज्ञान।

हिंदी में उनकी दो पुस्तकें ‘सुर सरिता’ और ‘पग-पग दीप जले” भीं आईं। इन किताबों में उनकी हिंदी कविता और उर्दू नज़्म, ग़ज़ल और कहानियों को हिन्दी पढ़ने वालों के लिए देवनागरी में छापा गया। अहमद हसन ने ‘सीमांचल में उर्दू शायरी’, ‘जांच परख’, ‘बिहार में उर्दू मसनवी’ जैसी कई तहकीकी पुस्तकें लिखीं। उनकी कहानियों का संग्रह ‘शमा पिघलती रही’ नामक पुस्तक 2010 में छपी जिसे साहित्य के गलियारों में खूब सराहना मिली।

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अहमद हसन दानिश पर पीएचडी करने वाले फ़ुरक़ान क्या बोले

प्रोफेसर अहमद हसन दानिश पर पी.एच.डी करने वाले डॉ मोहम्मद फ़ुरक़ान मानते हैं कि उनकी कहानियों में महिलाओं के लिए बहुत सम्मान दिखता है। वह कहानियों में महिलाओं के सशक्तीकरण और समाज में उनकी अहमियत को दर्शाना का प्रयास करते नज़र आते हैं।

डॉ फ़ुरक़ान कहते हैं, “मरहूम दानिश साहब के बारे में जितना कहा जाए कम है। अदब में बहुत बड़ा मक़ाम है उनका। उनकी कहानियों में महिलाओं की नफ़सियात पर बात की गई है। उनकी सबसे छोटी कहानी “मरयम” है, एक पेज में, जिसमें इसा नफ़स बच्चे को बयान किया गया है। एक कहानी ‘अमोल’ है जिसमें एक औरत अपने बच्चे के लिए अमोल खरीदने जाती है लेकिन उसके पास पैसे नहीं रहते। जैसे जैसे वह पैसे जमा करती है वैसे वैसे उस अमोल का दाम बढ़ता जाता है।”

फ़ुरक़ान ने आगे कहा कि अहमद हसन दानिश की शायरी भी बहुत आला दर्जे की है। उनकी शायरी में उर्दू और हिंदी की बहुत अच्छी मिलावट मिलती है और उसमें गंगा-जमुनी तहज़ीब भी झलकती है। डॉ मोहममद फ़ुरक़ान ने अहमद हसन दानिश के जीवन और साहित्य एक थीसिस लिखी, जिसके लिए उन्हें पीएचडी की डिग्री मिली और उन्होंने फिर उस को एक पुस्तक में ढाला। उन्होंने इस थीसिस को ‘अहमद हसन दानिश – हयात और कारनामे’ का नाम दिया।

डॉ फ़ुरक़ान ने अपनी थीसिस में प्रोफेसर अहमद हसन दानिश का शजरा (वंशवृक्ष) लिखा जिसमें उन्होंने उनके सभी बेटों का नाम दिया। एक दिन प्रोफेसर अहमद दानिश ने उन्हें फ़ोन कर कहा कि शजरे में उनकी बेटियों के नाम नहीं है, शजरे में बेटियों के नाम होने चाहिए थे। फ़ुरक़ान कहते हैं कि इस बात से अहमद हसन दानिश साहब की शख्सियत के बारे में काफी कुछ समझा जा सकता है।

मशहूर शायर की देहांत पर परिवार ने क्या कहा

प्रोफेसर अहमद हसन दानिश के बेटे शादान दानिश ने कहा कि उनके पिता ने सभी बच्चों को अपने काम खुद करने की आदत डाली थी चाहे वह घर के दरवाज़े के बाहर झाड़ू लगाना हो या नाले की सफाई, इन कामों के लिए वह कभी मज़दूर नहीं बुलाते थे। “अब्बा ने हमें हमेशा मेहनत करना सिखाया और कहा कि कभी हराम के पैसे मत कमाना। ऐसा पैसा कभी काम नहीं आएगा।”

शादान के बड़े भाई और प्रोफेसर दानिश के मंझले बेटे डॉ शहज़ाद दानिश ने बताया कि 2005 में पूर्णिया कॉलेज के लेक्चरर की नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्होंने बड़े कम समय में कई किताबें लिखीं। उन्होंने हिन्दी और मैथिली में भी शायरी की और इस कारण हिन्दी पढ़ने वालों में वह काफी मशहूर हुए। वह मशहूर लेखक अकमल यजदानी के बहुत करीब थे।

“अब्बा की यह कोशिश होती थी कि जो पसमांदा इलाका है, उधर ज्यादा से ज्यादा काम किया जाए। पूर्णिया में उन्होंने छात्रों को प्रेरित कर आगे बढ़ाने की बहुत कोशिश की ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग साहित्य की तरफ आएं। उनको कभी कभी मायूसी भी होती थी कि लोग उर्दू अदब को बहुत हलके में लेने लगे लेकिन उन्होंने कोशिश कभी नहीं छोड़ी,” शहज़ाद ने कहा।

शहज़ाद ने आगे बताया कि साहित्यकारों के अलावा उनसे शहर के दूसरे लोग जैसे डॉक्टर, वकील, शिक्षक आदि बहुत मोहब्बत किया करते थे। वह अक्सर सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लिया करते थे। उनके लिए हिन्दू-मुसलमान, सब लोगों में बहुत इज़्ज़त थी और उनके देहांत के बाद हर तबके, हर धर्म और जाति के लोग श्रद्धांजलि देने के लिए पहुंचे थे।

छोटी आयु से था मदद करने का जज़्बा

डॉ मोहम्मद फ़ुरक़ान ने अपनी थीसिस में प्रोफेसर अहमद हसन दानिश के लड़कपन के दिनों की कुछ बातें लिखी हैं। अहमद हसन दानिश जब आठवीं कक्षा में थे तो उन्होंने अपने गाँव मखातकिया में ‘विलेज वेलफेयर कमेटी’ की शुरुआत की जिसका मक़सद था गाँव में पढ़ने लिखने का माहौल तैयार करना। उसी दौर में उन्होंने ‘इल्मी लाइब्रेरी’ की बुनियाद डाली जिसमें कई बेहतरीन पुस्तकों को जमा कर रखा गया था।

उन्होंने गाँव में ग़रीब बच्चों के पढ़ने के लिए Ahmad Brother’s Collection नाम से एक व्यक्तिगत लाइब्रेरी भी खोली। वह ग़रीब बच्चों को एक साल के लिए स्कूल की किताबें दिया करते थे और साल खत्म होने पर उनसे किताबें वापस लेकर नए छात्रों को दे देते थे। शिक्षा के लिए वह अपने जीवन के आखिरी दिनों तक काम करते रहे।

दानिश की रचनाएँ विदेश में भी लोकप्रिय

डॉ अहमद हसन दानिश को साहित्य, शायरी और समाज में उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार मिले। इनमें बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार, मिल्लत युथ फॉउंडेशन अवार्ड, बी.एन.मंडल यूनिवर्सिटी पुरस्कार, मिलिया एजुकेशन ट्रस्ट अवार्ड , स्मृति समिति पुरस्कार जैसे कई सम्मानों से नवाज़ा गया।

उनकी नज़्म, कविताएं और कहानियां ‘देहली’ , ‘सुबह ए नौ’, ‘क़ाफ़िला’, ‘रूह ए अदब कलकत्ता’ जैसी पत्रिकाओं में छपती रही हैं। उनकी कहानी ‘अमोल’ को बांग्लादेश से निकलने वाली पत्रिका ‘महाज़’ में शामिल किया गया था। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया के ‘शाम ए अफसाना’ कार्यक्रम में उनकी कहानी ”यह लाश-लाश ज़िंदगी” को सराहा गया था। कोलकाता की रहने वाली प्रोफेसर कहकेशां ने भी इस कहानी को अपनी थीसिस में शामिल किया है।

उनकी पुस्तक और थीसिस ”बिहार में उर्दू मसनवी का इर्तेक़ा” लंबे समय से बी.एन मंडल यूनिवर्सिटी के एमए के पाठ्यक्रम में शामिल है। उनकी एक नज़्म ”तराना ए मिलिया” मिलिया कान्वेंट स्कूल के बच्चों द्वारा स्कूल-गान के तौर पर गया जाता है।

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सैयद जाफ़र इमाम किशनगंज से तालुक़ रखते हैं। इन्होंने हिमालयन यूनिवर्सिटी से जन संचार एवं पत्रकारिता में ग्रैजूएशन करने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया से हिंदी पत्रकारिता (पीजी) की पढ़ाई की। 'मैं मीडिया' के लिए सीमांचल के खेल-कूद और ऐतिहासिक इतिवृत्त पर खबरें लिख रहे हैं। इससे पहले इन्होंने Opoyi, Scribblers India, Swantree Foundation, Public Vichar जैसे संस्थानों में काम किया है। इनकी पुस्तक "A Panic Attack on The Subway" जुलाई 2021 में प्रकाशित हुई थी। यह जाफ़र के तखल्लूस के साथ 'हिंदुस्तानी' भाषा में ग़ज़ल कहते हैं और समय मिलने पर इंटरनेट पर शॉर्ट फिल्में बनाना पसंद करते हैं।

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