कुल्हैया बिहार के सीमांचल की चुनिंदा आंचलिक भाषाओं में से एक है। कुल्हैया बोलने वाले अधिकतर लोग पूर्णिया, अररिया और कटिहार जिले में रहते हैं। कुल्हैया समुदाय की एक छोटी सी आबादी किशनगंज में भी पाई जाती है। नेपाल के मोरंग जिले में भी कुल्हैया बोलने वाले सैकड़ों लोग रहते हैं। माना जाता है कि कुल्हैया बोली मैथिली और बंगाली के मिश्रण से अस्तित्व में आई थी। सुनने में यह बोली मैथिली और सीमांचल की एक और आंचलिक भाषा सुरजापुरी जैसी लगती है।
एक क्षेत्रीय बोली के तौर पर कुल्हैया का इतिहास कई दशकों पुराना ज़रूर है लेकिन कुल्हैया में लिखने वालों की संख्या बेहद कम है। कुल्हैया ग्रामीणों की बोली है इसलिए कुछ सालों पहले तक कुल्हैया बोलने वाले अधिकतर लोग ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं होते थे। इस पिछड़ेपन को देखते हुए अररिया के हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ ने इस आंचलिक भाषा को शायरी का माध्यम बनाया। उन्होंने कुल्हैया में कई कविताएं लिखीं जिनमें उन्होंने गांव की समस्याओं, साक्षारता और महिलाओं से जुड़े मुद्दों को उजागर किया।
हारुन रशीद का जन्म 5 मई 1965 में अररिया जिले के कुकुड़वा बसंतपुर में हुआ। कुकुड़वा बसंतपुर उनका नानिहाल हुआ करता था और उनके पिता मोहम्मद नईमुद्दीन और उनका परिवार अररिया के गैयारी में रहता था। हारुन रशीद ने गैयारी में ही तालीम हासिल की। उस समय वह हारुन रशीद हुआ करते थे, लेकिन जब वह शायरी करने लगे तो उन्होंने “ग़ाफ़िल” का तखल्लुस ले लिया।
उन्होंने विज्ञान विषय से इंटर पास करने के बाद अररिया कॉलेज से उर्दू भाषा में बीए की डिग्री हासिल की। इसके बाद हारुन ने एमए, एलएलबी, बी लीब और एससी की पढ़ाई भी की। अपने आखिरी दिनों में वह पीएचडी भी कर रहे थे, लेकिन अचानक मृत्यु हो जाने से उनकी पीएचडी पूरी नहीं हो सकी।
हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ ने उर्दू में भी कई ग़ज़लें और नज़्में लिखीं लेकिन उन्हें प्रतिष्ठा, कुल्हैया में लिखी गई कविताओं ने दिलाई। 2017 में आयी भीषण बाढ़ पर उनके द्वारा लिखी गई कविता ”एलि इरंको ई बेर बान” बहुत पसंद की गयी थी। उन्होंने ‘ग़ाफ़िल’ के तख़ल्लुस के साथ उर्दू और कुल्हैया में कई ग़ज़लें और कविताएं लिखीं।
घंटों घर की लाइब्रेरी में बंद रहते थे ‘ग़ाफ़िल’
जब हम अररिया के गैयारी में स्थित हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ के घर पहुंचे तो उनके कमरे में बनी छोटी सी एक पुस्तकालय दिखी। अलग अलग विषयों की पुस्तकों के अलावा उनके कमरे में कई पुरस्कार रखे मिले। इस दौरान उनके पुत्र मामून रशीद ने ‘मैं मीडिया’ से अपने पिता की कई रचनाएं साझा कीं। उन्होंने बताया कि उनके पिता कमरे में रखे पुस्तकों से लदे बिस्तर पर दिन रात पुस्तक पढ़ते और लिखते रहते थे। जब खाने का समय होता तो थोड़ी देर के लिए नीचे आते और फिर अपने कमरे में बंद हो जाते। वह अपने शेर और कविताओं का एक संकलन तैयार कर रहे थे लेकिन उनकी अचानक मृत्यु होने से उनकी रचनाओं की पुस्तक अधूरी रह गई।
मेरी ग़ज़ल है फ़क़त उसके अंजुमन के लिए
जो जी रहे हैं मेरे दोस्तों वतन के लिए
बताओ तुम, के खरीदोगे क्या बदन के लिए
हज़ारों लाश पड़ी हैं यहां कफ़न के लिए
कुल्हैया कविता से ‘ग़ाफ़िल’ ने फैलाई जागरूकता
मामून ने आगे बताया कि उनके पिता ने अपने बचपन में बहुत ग़ुरबत देखी थी। इलाके की बदहाली और ग़रीबी ने उनके अंदर शिक्षा हासिल करने की भूख जगाई जो उनके आखिरी दिनों तक जारी रही। “हमारी बिरादरी बहुत पसमांदा हालत में है सीमांचल में। उनके दर्द को देखते हुए उन्होंने उन्हीं की आंचलिक भाषा में शायरी शुरू की जिसमें वह बहुत मक़बूल हुए। जब साक्षरता अभियान शुरू हुआ तो 2008-09 के आसपास उन्होंने बहनों को मुतासिर करने के लिए कुल्हैया में साक्षरता गीत लिखा, ताकि महिलाएं भी तालीम की तरफ आएं,” मामून ने कहा।
उर्दू में एमए मामून रशीद अभी यूपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनके पिता ने साक्षरता के लिए उनके इलाके में बहुत सारे अभियानों में अपनी हिस्सेदारी दी और कुल्हैया में कई शेर इस विषय पर लिखे। इसका नतीजा यह हुआ कि पहले जब गाँव में एक्का दुक्का लोग पढ़े लिखे मिलते थे आज ग़रीब से ग़रीब अपने बच्चों को पढ़ा रहा है।
महिला साक्षरता पर लिखी हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ की यह कविता बहुत पसंद की गई थी। इस कविता के बाद लोगों ने उन्हें ‘शायर ए इंक़ेलाब’ भी कहना शुरू कर दिया। उसी कविता के कुछ पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं-
सुने-सुने गे बहिन हमर,
छा कैहने तें बेख़बर !!
मन कैहने तोर भारी छु,
आखिर कि लाचारी छू !!
गर धमकैतो तोरा ससुर,
मारै ली उठतो अगर भैंसुर !!
गोतिया अगर कैहतो कोई बात,
घर वाला नै दो गर साथ !!
राबड़ी देवी क करीहैंन फून,
बनै क एक बढ़िया मजमून !!
सुने-सुने गे बहिन हमर…
उर्दू शायरी में सीमांचल की पहचान बने ‘ग़ाफ़िल’
हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ ने उर्दू भाषा में भी खूब शायरी की। उनकी उर्दू शायरी के लिए उन्हें कविरत्न, ग़ज़ल श्री जैसे सम्मानों से नवाज़ा गया। वह बिहार और ख़ास कर सीमांचल के मुशायरों में अक्सर संचालक के भूमिका निभाया करते थे। “मेरे पिता कहते थे कि मैं उर्दू का दरख्त लगा रहा हूँ। हमारे घर में हम सारे भाई बहन किसी न किसी तरह उर्दू से जुड़े हुए हैं। हम भाई बहनों के पास उर्दू की डिग्रियां हैं। मेरे पिता को उर्दू से बहुत मोहब्बत थी,” मामून रशीद कहते हैं।
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सामाजिक कार्य के लिए मिले कई अवार्ड
हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ ने सामाजिक मुद्दों पर अररिया के ग्रामीण इलाकों में कई अभियान चलाए। “गांव में वह कई जागरूकता अभियान चलाया करते थे। हम लोग जब छोटे थे तब यहाँ पर शिविर लगाया करते थे। कभी आँख के ऑपरेशन के लिए, कभी हर्निया वग़ैरह का ऑपरेशन करवाया करते थे। उन दिनों दूर दूर तक अस्पताल की सुविधा नहीं होती थी। वह डीएम, एसपी के पीछे लग कर उन्हें गांव गांव में शिविर लगवाने के लिए कहते थे। वह आईसीडीएस के मेंबर थे। उन्होंने पोलियो उन्मूलन अभियान में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। बुज़ुर्गों के लिए मोतियाबिंद के ऑपरेशन के लिए शिविर लगा कर वह उसमें हिस्सा लिया करते थे।”
हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ को उनकी शायरी के साथ साथ सामाजिक सक्रियता के लिए कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया। 2002 में उन्हें ‘शान ए अररिया’ पुरस्कार मिला, वहीँ 2006 में कला साहित्य मंच ने ‘कविरत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया। इन सम्मानों के अलावा उन्हें ‘पूर्णिया श्री’ पुरस्कार, राष्ट्रीय एकता अवार्ड, राजीव गाँधी मेमोरियल अवार्ड, मौलाना आज़ाद स्मृति अवार्ड, दिनकर अवार्ड, साहित्य सिंधु, जागरण अवार्ड, ‘ग़ज़ल श्री’ सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। शान ए अररिया कहे जाने वाले ‘ग़ाफ़िल’ अपने आखिरी दिनों में ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ के कार्यक्रमों में काफी सक्रीय रहे, जिसके लिए अगस्त 2021 में उन्हें उनके योगदान के लिए पुरस्कार दिया गया।
रेडियो पत्रकारिता में ‘ग़ाफ़िल’ ने किया अररिया का नाम रौशन
हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ ने रेडियो पत्रकारिता में भी अपना योगदान दिया। उन्होंने स्नातक के बाद आल इंडिया रेडियो में काम शुरू किया। 1987 में एआईआर के पटना स्टूडियो से अपने रेडियो कैरियर की शुरुआत की। रेडियो में उनका पहला कार्यक्रम “कलाम ए शायर” के नाम से रिले हुआ करता था। रेडियो उद्घोषक के तौर उन्होंने वर्ष 1992 में पूर्णिया स्टूडियो से शुरुआत की। रेडियो स्टेशन पूर्णिया 103.7 मेगा हर्ट्ज़ पर हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ रेडियो अनाउंसर के तौर पर काम किया करते थे।
वह समाचार बुलेटिन के साथ साथ कई सरकारी योजनाओं की जानकारी दिया करते थे। इसके अलावा वह ग्रामीण मुद्दे जैसे कृषि और शिक्षा के विषयों पर कार्यक्रम किया करते थे। 90 के दशक में उनका रेडियो कार्यक्रम “किसान सभा” लोगों काफी लोकप्रिय था। वह कार्यक्रम की संरचना और लेखन खुद ही किया करते थे।
“हम लोग छोटे छोटे थे तो उनका कार्यक्रम ‘किसान सभा’ सुना करते थे। इन कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट वह खुद लिखा करते थे। सुबह की नमाज़ के बाद ऑफिस निकलने से पहले वह कार्यक्रम का स्क्रिप्ट लिखने बैठ जाते थे। अपने देहांत तक यानी 2021 तक रेडियो में काम करते रहे। आखिर दिनों में रेडियो पर कार्यक्रमों की अनुसूची के बारे में बताया करते थे। जब पूर्णिया एफ़ एम का कार्यक्रम पूरा हो जाता था तो वह विवध भारती के कार्यक्रम को रिले किया करते थे। कौन सा कार्यक्रम किस समय पर होगा वह ये सब देखते थे,” मामून ने बताया।
मृत्यु के बाद ‘शान ए अररिया’ को प्रशासनिक श्रद्धांजलि नहीं मिली
28 नवंबर 2021 को दिल का दौरा पड़ने से कवी रत्न हारुन रशीद “ग़ाफ़िल” का देहांत हो गया। वह 56 वर्ष के थे। “वह मार्किट से लौटे थे। चाय पीने के बाद उन्होंने सीने में दर्द की शिकायत की, उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। यह सब अचानक हुआ, कोई भी यक़ीन नहीं कर पा रहा था। उनके जनाज़े पर काफी लोग पहुंचे थे। यहां के बुज़ुर्ग बताते हैं कि आज तक हमारे गांव में इतने ज़्यादा लोग किसी और के जनाज़े में शरीक नहीं हुए थे। ऐसे ऐसे लोग आए थे जिन्हें हम खुद भी नहीं जानते थे। सियासी, सामाजिक और साहित्य से जुड़े कई लोग आए थे,” मामून रशीद कहते हैं।
“तू ने समझा ही नहीं ‘ग़ाफ़िल’ मुझे
इक देहाती दिलरुबा है ज़िंदगी ”
मामून ने आगे बताया कि उनके पिता को अक्सर सरकारी कार्यक्रमों में संचालन के लिए बुलाया जाता था। रेडियो पर एक जानी पहचानी आवाज़ होने के कारण उन कार्यक्रमों के संचालन के लिए वह पहली पसंद हुआ करते थे। अररिया में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कई जन समारोह में भी हारुन रशीद ने मंच संचालन किया था। मामून ने आगे कहा कि हारुन रशीद ग़ाफ़िल की मौत के बाद सरकारी विभाग की तरफ से उनको किसी तरह की श्रद्धांजलि या ‘ट्रिब्यूट’ नहीं पेश किया गया जिस बात का उन्हें दुःख है।
“मेरे वालिद साहब कहा कहते थे कि अगर किसी की इज़्ज़त करनी है तो उसके जीते जी करो, मरने के बाद उन्हें क्या पता चलेगा कि कौन उन्हें इज़्ज़त दे रहा है। जिला प्रशासन की तरफ से जितने कार्यक्रम हुआ करते थे उनमें एंकरिंग, मंच संचालन करना उनका ही काम था। उनके जाने के बाद लेकिन सरकार और प्रशासन की तरफ से किसी ने किसी तरह की सराहना नहीं की। जो श्रद्धांजलि पेश की वह उनके घर वालों और अपनों ने ही की,” मामून ने कहा।
हारुन रशीद ‘ग़ाफ़िल’ ने कुल्हैया बोली को शायरी के ढाँचे में ढालने की शुरुआत की। उन्होंने अपने पीछे जो परंपरा छोड़ी है वो कुल्हैया बोलने और समझने वालों के लिए धरोहर जैसी है। कुल्हैया जैसी आंचलिक भाषाओं में अगली पीढ़ी कितना पढ़ेगी और लिखेगी, यह समय बताएगा लेकिन ‘ग़ाफ़िल’ जैसे शायरों और रचनाकारों की विरासत लंबे समय तक याद की जाती रहेगी।
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