“मिलती है ग़म से रूह को एक लज़्ज़त-ए-हयात
जो ग़म-नसीब है वह बड़ा खुश-नसीब है ”
बिहार के दरभंगा ज़िले के एक छोटे से गांव में जन्मे एक शायर ने उर्दू साहित्य में अपनी एक अलग पहचान बनाई और अपने दौर में सीमांचल के दो तीन सबसे कामयाब उर्दू शायरों में अपना शुमार करवाया। ऊपर लिखा गया शेर और यह परिचय पूर्णिया के मशहूर उर्दू शायर वफ़ा मालिकपुरी का है। वफ़ा मालिकपुरी का पूरा नाम सैय्यद अब्बास अली रिज़वी था। उन्होंने वफ़ा का ‘तखल्लुस’ अपनी जवानी के दिनों में ले लिया था।
वफ़ा मालिकपुरी की एक नज़्म बिहार बोर्ड के स्कूलों में भी पढ़ाई जाती है। पांचवीं कक्षा में पढ़ाए जाने वाला “हम्द” (ईश्वर की प्रशंसा) उनकी ही रचना है। वफ़ा मालिकपुरी का जन्म 1922 में दरभंगा जिला के मालिकपुरी नामक गांव में हुआ। कहा जाता है कि उन्होंने महज़ 13 साल की उम्र से शायरी शुरू कर दी थी। लेकिन पुख्ता शायरी उन्होंने कॉलेज के दिनों में शुरू की। शुरूआती दिनों में उन्होंने धार्मिक घटनाओं पर शायरी की, खासकर पैग़म्बर रसूल के नवासे की शहादत पर आधारित कई ‘मरसिये’, ‘क़सीदे’ और ‘सलाम’ लिखे। धीरे धीरे उन्होंने ग़ज़ल की तरफ रुख किया और फिर सीमांचल में ग़ज़ल लिखने वाले सबसे बड़े उर्दू शयरों में उनका नाम शुमार होने लगा। वह बिहार के पूर्णिया जिला से ताल्लुक रखते थे और अपने जीवन के आखिरी समय तक पूर्णिया में ही रहे।
“जो दिल ही जफ़ा से टूट गया उस दिल की तमन्ना कौन करे,
जब कश्ती अपनी टूट गई साहिल की तमन्ना कौन करे”
वफ़ा मालिकपुरी के व्यक्तित्व का एक अहम पहलु पत्रकारिता से भी जुड़ा हुआ है। उन्होंने 1952 में एक मासिक उर्दू पत्रिका की शुरुआत की। इस पत्रिका का नाम “सुबह-ए-नौ” (नयी सुबह) रखा गया। करीब 24 साल तक वफ़ा मालिकपुरी सुबह-ए-नौ को प्रकाशित करते रहे। पत्रिका में मुख्य रूप से साहित्य से जुड़े लेख छापे जाते थे जिसमें नए नए उर्दू शायरों के कामों को सराहा जाता था। वफ़ा मालिकपुरी की शायरी को संग्रह कर एक पुस्तक की शकल देने वाले लेखक, कवि और ओरिएंटल कॉलेज पटना के उर्दू विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर मोहसिन रज़ा ने मैं मीडिया को बताया कि वफ़ा मालिकपुरी की पत्रिका सुबह-ए-नौ देश में उर्दू साहित्य की सबसे चर्चित और पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में एक हुआ करती थी।
उन्होंने यह भी बताया कि 90 के दशक में अक्सर उनकी और वफ़ा मालिकपुरी की मुलाकातें हुआ करती थीं जिसमें वफ़ा साहब उन्हें अपनी शायरी और पत्रकारिता के बारे में बताया करते थे। मोहसिन कहते हैं कि ‘सुबह ए नौ’ शुरुआती दिनों से ही आर्थिक तंगी का शिकार था, लेकिन वफ़ा मालिकपुरी ने पत्रिका को बंद नहीं होने दिया और 24 सालों तक पत्रिका में सामाजिक और साहित्य से जुड़े लेख छपते रहे। सुबह-ए-नौ को वफ़ा मालिकपुरी के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक गिना जाता है।
वफ़ा मालिकपुरी ने जवादिया अरैबिक कॉलेज से फ़ाज़िल की डिग्री हासिल की। उस दौरान उनके उस्ताद रहे ज़फरुल हसन ने उन्हें उर्दू साहित्य और उर्दू शायरी की तकनीक और कलात्मकता से रूबरू कराया। उनकी ग़ज़लों की अब तक 3 पुस्तकें छप चुकी हैं। पहली पुस्तक “शाहरा-ए-वफ़ा” साल 1940 के दशक में प्रकाशित की गई थी। साल 1988 में उनकी ग़ज़लों की दूसरी पुस्तक “हर्फ़-ए-वफ़ा” आई। साल 2022 वफ़ा मालिकपुरी के जन्म की 100वीं वर्षगांठ का साल था। इस साल उनकी ग़ज़लों की तीसरी पुस्तक “कायनात-ए-वफ़ा” प्रकाशित हुई।
“कायनात-ए-वफ़ा” के लेखक डॉक्टर मोहसिन रज़ा ने मैं मीडिया से बातचीत में बताया कि 450 से अधिक पन्नों की इस पुस्तक में उन्होंने 70 पन्नों पर सिर्फ भूमिका लिखी है। उनका कहना है कि वफ़ा मालिकपुरी का व्यक्तित्व एक बहुत आम और साधारण इंसान जैसा था, लेकिन उनके कार्य बेहद असाधारण थे। वह वफ़ा मालिकपुरी को बीसवीं सदी के मध्य के वर्षों में सीमांचल का सबसे बड़ा उर्दू शायर मानते हैं। इस बात के लिए उन्होंने दलील दी कि उर्दू साहित्य में अज़ीमाबाद (पटना का पुराना नाम) और लखनऊ घराना बहुत अहम माना जाता है और वफ़ा मालिकपुरी ने दोनों जगह अपनी रचनाओं को जिया और लोगों के साथ बांटा।
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वफ़ा अपनी जवानी के दिनों में लखनऊ के जामिया नाज़मिया अरैबिक कॉलेज में धार्मिक पढ़ाई के दौरान उर्दू और अरब देशों की ज़बान का साहित्य पढ़ रहे थे उसी दौरान उन्होंने उर्दू नज़्म और ग़ज़ल लिखना शरू किया। “वफ़ा साहब ने नसीम लखनवी और जलाल लखनवी की ही तरह उर्दू क्लासिकल और समकालीन शायरी का एक बेहतरीन नमूना पेशा किया। सौदा के बाद बीसवीं सदी के मध्य में भारत में जो बेहतरीन शायरी हुई उनमें चंद शायरों में वफ़ा मालिकपुरी भी शामिल थे। उनकी शायरी में रोमानी अंदाज़ था और वह बहुत सलीक़े से मोहब्बत और इश्क़ की बातें बोल दिया करते थे। सबसे बड़ी बात यह है कि वह मुशायरों के बहुत कामयाब शायर हुआ करते थे। लखनऊ, पटना में तो उनके नाम से भीड़ लगती थी। वह बेहद मेयारी शेर कहा करते थे,” डॉक्टर मोहसिन रज़ा ने कहा।
ऐसा माना जाता है कि वफ़ा मालिकपुरी मशहूर शायर जमील मज़हरी से अपनी शायरी की शुद्धि कराते थे। उर्दू भाषा में इसे ‘इस्लाह’ कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि अपने आखिरी दिनों तक वफ़ा अपनी ग़ज़लों और नज़्मों को जमील मज़हरी को दिखाते और उनकी राय लेते थे। डॉक्टर मोहसिन रज़ा ने अब तक डेढ़ दर्जन के करीब साहित्य से जुडी किताबें लिखी हैं और वह मानते हैं कि वफ़ा मालिकपुरी सीमांचल इलाके से अपने स्तर के अकेले शायर थे।
“दुनिया है क़ैद-खाना सभी क़ैद हैं मगर
इन क़ैदियों में तेरा गिरफ्तार कौन है”
साहित्य में वफ़ा मालिकपुरी के कद के बारे में डॉक्टर मोहसिन रज़ा कहते हैं, “वफ़ा साहब जब भी पटना आते थे तो हमारे घर ज़रूर आते थे। मैं यूँ ही उनसे उनकी शायरी और उनकी ज़िंदगी के बारे में पूछता रहता था। ‘कायनात-ए-वफ़ा’ में मैंने वफ़ा साहब के 200 से ज़्यादा ग़ज़लें शामिल की हैं। उन्होंने बिहार के बड़े बड़े उर्दू शायर जमील मज़हरी, इज्तिबा रिज़वी और परवेज़ शाहिदी की तरह ग़ज़लों को अपना अनूठा आकार दिया। वफ़ा साहब आज़ादी की तहरीक में भी शामिल थे और हमेशा आपसी एकता की बात करते थे। वह बेहद शांत मिज़ाज के थे और बहुत हसंकर मिला करते थे। वफ़ा साहब को उर्दू अदब उनके ग़ज़ल गोई और बेहतरीन सहाफत (पत्रकारिता) के लिए हमेशा याद रखेगा।”
वफ़ा मालिकपुरी के बेटे ताजदार अब्बास ने मैं मीडिया से बताया कि उनके पिता एक बेहद शांत और सामान्य व्यवहार के इंसान थे। वह बेहद समयनिष्ठ और व्यवस्थित इंसान थे। ताजदार कहते हैं, “उनका एक रूटीन वर्क बहुत ज़बरदस्त था। रोज़ाना वह शाम की नमाज़ के बाद 7:30 बजे बीबीसी रेडियो सुनते थे। वह वक़्त के बहुत पाबन्द थे। इसके साथ उनका खाना पीना भी बहुत सिस्टेमेटिक था।”
“अपनी दुकाँ बढ़ाइए अब हज़रत-ए-वफ़ा
इस दौर में वफ़ा का खरीदार कौन है”
ताजदा अब्बास ने आगे बताया कि वफ़ा मालिकपुरी को फखरुद्दीन मेमोरियल अवार्ड और उर्दू अकादमी वार्ड से सम्मानित किया गया था। उन्होंने ये भी बताया कि पहले बिहार बोर्ड के दसवीं क्लास में वफ़ा मालिकपुरी की शायरी पढ़ाई जाती थी। जानकार मानते हैं कि वफ़ा मालिकपुरी कवि और पत्रकार के साथ साथ एक अच्छे वक्ता भी थे। उन्होंने इस्लामिक अध्ययन में स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट) किया था और वह अक्सर मुहर्रम की सभाओं को संबोधित करते थे। 28 मार्च 2003 को ऐसे ही एक संबोधन के दौरान पूर्णिया में उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ और फिर 1 जून 2003 को उनका निधन हो गया। पूर्णिया स्थित सैय्यदबाड़ा में उनके घर पर उनकी लिखी डायरियाँ, पत्रिकाएं, शायरी और उनसे जुडी चीज़ें ‘गोशा-ए-वफ़ा’ के नाम से मौजूद हैं।
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