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विकास हो या न हो नीतीश के गाँव कल्याण बिगहा के लोग जदयू को क्यों वोट करते हैं?

कल्याण बिगहा गांव, नालंदा जिले के हरनौत प्रखंड में आता है। यह गांव नालंदा लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है, जहां कुर्मी वोटरों की तादाद सबसे ज्यादा है और वे प्रभुत्व वाली बिरादरी हैं। दूसरे नंबर पर यादव समुदाय आते हैं। इसके अलावा यहां दलित और अतिपिछड़ा आबादी भी है। ये कुर्मी नीतीश कुमार के वफादार हैं। हालांकि अन्य तबकों के वोट भी नीतीश कुमार को मिलते हैं।

Reported By Umesh Kumar Ray |
Published On :
why do people of nitish kumar village kalyan bigha vote for jdu irrespective of development work
नीतीश के गांव कल्याण बिगहा में विकास की दो अलग तस्वीरें दिखती हैं।

गांव में प्रवेश करते ही एक बड़ा सा पार्क नजर आता है, जिसमें तीन मूर्तियां लगी हुई हैं। पार्क के बगल में ही एक मकान है, जिसमें ताले लगे हुए हैं और मकान के सामने एक बड़ा सा मोबाइल टावर लगा हुआ है। इस टावर में ही कई लाइट्स लगे हुए हैं, जो रात में गांव में दुधिया रौशनी बिखेरते हैं।


tower in front of nitish kumar house
नीतीश कुमार के घर के सामने लगा टावर।

गांव में प्रवेश कर रही सड़क चौड़ी और पक्की है। सड़क के किनारे के मकान पक्के हैं और उनमें रंगरोगन किया हुआ है। गांव का ये हिस्सा किसी सामान्य गांव से अलग दिखता है। ये गांव नालंदा जिले का कल्याण बिगहा गांव है, जहां के निवासी नीतीश कुमार पिछले 17 वर्षों से लगातार बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं।

गांव के इस हिस्से के कमोबेश हर घर में नल लगा हुआ है और पानी की एक टंकी भी है। गांव का ये समृद्ध सा दिखता हिस्सा ‘कुर्मी लैंड’ है, इसी कुर्मी जाति से नीतीश कुमार भी ताल्लुक रखते हैं।


गांव के प्रवेशद्वार पर ही एक लोहार का छोटा-सा वर्कशॉप है, जहां एक अधेड़ ग्रिल बना रहा है। “इस पार्क में साल में तीन बार कार्यक्रम होता है और नीतीश कुमार तभी इस गांव में आते हैं,” लोहार ने कहा।

पार्क में नीतीश कुमार के पिता, मां और पत्नी की मूर्तियां स्थापित हैं, जिनका देहांत हो चुका है। इनकी पुण्यतिथि के मौके पर नीतीश कुमार यहां आते हैं।

park built by nitish kumar in memory of his father at kalyan bigha
अपने पिता की याद में नीतीश कुमार द्वारा बनाया गया पार्क

उक्त लोहार को बढ़ती महंगाई की चिंता है। वह कहते हैं, “पहले लोहा 45 से 50 रुपये किलो मिलता था, लेकिन अब 80 से 90 रुपये किलो मिलता है। पहले एक किलोग्राम लोहे पर 20 रुपये की बचत होती थी, लेकिन अब मुश्किल से 5 रुपये ही बच पाते हैं।” लेकिन, चुनाव को लेकर वह काफी उदासीन हैं। उन्हें नहीं पता कि उनके इलाके से कौन उम्मीदवार चुनावी मैदान में है। हालांकि, यह पूछे जाने पर कि क्या इस गांव के लोग नीतीश कुमार को वोट डालते हैं, वह कहते हैं, “यह मुख्यमंत्री का गांव है, तो यहां के लोग उनकी पार्टी को वोट करेंगे ही न!”

कुर्मी टोले में विकास की गंगा

इसी गांव के रहने वाले मुकेश कुमार व गणेश कुमार, जो कुर्मी जाति से आते हैं, नीतीश कुमार के कामकाज से काफी खुश हैं और वे उन्हें ‘विकास पुरुष’ का दर्जा देते हैं। उनका कहना है कि गांव में नीतीश कुमार ने काफी विकास किया है, जिसके चलते वे नीतीश कुमार के वफादार हो गये हैं उन्हीं की पार्टी को वोट देंगे।

पार्क के सामने ही चिप्स, वगैरह की छोटी सी दुकान चला रही नीरू देवी कहती हैं कि नीतीश कुमार ने काफी काम किया है और वे शुरू से ही उनकी पार्टी को वोट दे रही हैं। नीरू देवी भी कुर्मी जाति से ताल्लुक रखती हैं। वह कहती हैं कि लालू (लालू प्रसाद यादव) की सरकार में महिलाएं सुरक्षित नहीं थीं, लेकिन नीतीश सरकार में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित हुई है। योगेंद्र, यादव जाति से आते हैं और वह भी नीतीश कुमार के समर्थक हैं।

कल्याण बिगहा के रहने वाले कुर्मियों को इस बात पर गर्व है कि नीतीश कुमार जब गांव आते हैं, तो वे बेरोकटोक उनसे मिल लेते हैं। लोग बताते हैं कि नीतीश कुमार, व्यक्तिगत तौर पर भी बहुत आसानी से उनसे मिल लेते हैं औऱ समस्याएं सुनते हैं।

कल्याण बिगहा गांव, नालंदा जिले के हरनौत प्रखंड में आता है। यह गांव नालंदा लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है, जहां कुर्मी वोटरों की तादाद सबसे ज्यादा है और वे प्रभुत्व वाली बिरादरी हैं। दूसरे नंबर पर यादव समुदाय आते हैं। इसके अलावा यहां दलित और अतिपिछड़ा आबादी भी है। ये कुर्मी नीतीश कुमार के वफादार हैं। हालांकि अन्य तबकों के वोट भी नीतीश कुमार को मिलते हैं।

नालंदा लोकसभा सीट से 1996 से 2004 तक समता पार्टी के टिकट पर जॉर्ज फर्नांडिस सांसद रहे। इस पार्टी का गठन नीतीश कुमार ने जनता पार्टी से अलग होकर किया था। बाद में पार्टी का नाम बदल कर जदयू कर दिया गया। साल 2004 के लोकसभा चुनाव में इस सीट से नीतीश कुमार ने जीत दर्ज की। इसके एक साल बाद उन्होंने सांसद पद से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि वह सीएम बन गये थे। 2005 में इस सीट पर जदयू के राम स्वरूप प्रसाद की जीत हुई और इसके बाद 2009 से लेकर अब तक कुर्मी समुदाय से आने वाले कौशलेंद्र कुमार सांसद हैं और इस चुनाव में भी जदयू ने उन्हें ही टिकट दिया है। इंडिया अलायंस की तरफ से भाकपा – माले (लिबरेशन) के नेता व विधायक संदीप सौरभ चुनाव मैदान में हैं।

नीतीश की राजनीति

जेपी आंदोलन की उपज नीतीश कुमार का शुरुआती राजनीतिक करियर सामाजिक न्याय के इर्द गिर्द घूमता रहा था, लेकिन 1990 के बाद उन्होंने सामाजिक न्याय का लबादा उतार दिया और खुले तौर पर कुर्मियों की राजनीति शुरू की। उस वक्त बिहार में जनता दल की सरकार थी और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे और वह लगातार लोकप्रियता के सोपान चढ़ रहे थे। लेकिन, लालू के समकक्ष नीतीश कुमार, जनता दल का नेता होते हुए भी हाशिये पर थे। उनका राजनीतिक करियर का ग्राफ ऊपर नहीं जा रहा था। ठीक उसी वक्त एक अवसर नंगे पांव उनके पास चलकर आया था।

उस वक्त के सीपीआई विधायक और कुर्मी जाति से ताल्लुक रखने वाले सतीश कुमार ने 12 फरवरी 1994 को गांधी मैदान में कुर्मी चेतना महारैली आयोजित की थी। इस महारैली में नीतीश कुमार भी आये थे और खचाखच भीड़ को संबोधित करते हुए पहली बार कुर्मियों के अधिकार की बात की। इसके कुछ समय बाद ही जनता दल से अलग होकर उन्होंने अपनी पार्टी बना ली। बाद के दिनों में हालांकि वह सामाजिक न्याय की भी बात करते थे और कुर्मियों की भी। वर्ष 2005 में भाजपा के सहयोग से वह मुख्यमंत्री बने।

आरोप है कि उन्होंने अहम पदों पर कुर्मियों की भर्ती शुरू कर दी और पार्टी में भी कुर्मियों को अहम पद दिये। इस तरह उन्होंने लगभग 4 प्रतिशत कुर्मी वोट को अपने नाम कर लिया।

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मुसहर बस्ती विकास से दूर

विकास के उनके पक्षपाती रवैये की झलक उनके अपने गांव में कल्याण बिगहा में मिल जाती है। गांव के कुर्मियों के मोहल्ले से कटी एक पतली सड़क लगभग 100 घरों वाली मुसहर बस्ती में जाती है, जो कुर्मी लैंड में चमचमाते विकास को मुंह चिढ़ाती है। मुसहर बस्ती में घर बेतरतीबी से बने हुए हैं और अधिकतर घर काफी पुराने हैं, जो लगभग जर्जर नजर आते हैं। खुली नालियां बजबजाती हैं।

गांव के कुर्मी टोले के बनिस्बत इस टोले के लोगों में नीतीश कुमार पर बात करते हुए उत्साह नजर नहीं आता है, लेकिन लोग उन पर बात करते हुए सतर्कता बरतते हैं कि कहीं ऐसा कुछ न बोल जाएं कि बाद में उन्हें दिक्कत हो जाए।

इसी मोहल्ले में तीन चार युवकों से हमारी मुलाकात होती है, जो वक्त काट रहे थे। जब हम पूछते हैं कि क्या यहां सब ठीक है, तो एक युवक जवाब देता है – सब ठीके हैं। लेकिन जब हम थोड़ा कुरेदते हुए यह पूछते हैं कि कोई दिक्कत तो नहीं है, तो वह तपाक से कहते हैं – “दिक्कत ही दिक्कत है!” यह कहते हुए सभी हंस पड़ते हैं।

ये सभी मजदूर हैं। बुआई और कटनी के सीजन में गांव में ही काम करते हैं और जब खेती का सीजन खत्म हो जाता है, तो दूसरे राज्यों में मजदूरी करने चले जाते हैं।

इन युवकों में से एक का कहना है कि अगर यहां फैक्ट्री लग जाएगी, तो वे लोग दूसरे राज्य में काम करने नहीं जाएंगे।

मुसहरी टोले के लोग इस गांव के कुर्मियों की तरह प्रभुत्वशाली नहीं हैं। कुर्मी जिस गर्व के साथ ये बताते हैं कि नीतीश कुमार आते हैं, तो वे बेधड़क उनसे मिल लेते हैं, वही गर्व मुसहरों में नहीं दिखता है। बल्कि वह ऐसी बात बताते हैं, जिससे पता चलता है कि मुसहरों को दोयम दर्जे का समझा जाता है। वे बताते हैं कि जब वे नीतीश कुमार से मिलने जाते हैं, तो कुर्मी ही उन्हें भगा देते हैं। वे यह भी बताते हैं कि नीतीश कुमार कभी उनके मोहल्ले में नहीं आए।

एक युवक नाम नहीं छापने की शर्त पर कहता है, “इधर तो कभी नहीं आते हैं। वो उधर (कुर्मी टोले) ही रहते हैं। जब हमलोग जाते हैं, तो गांव वाला लोग भगा देता है हमलोगों को।”

स्थानीय लोगों ने बातचीत में बताया कि गांव के ही एक जमींदार ने 52 बीघा खेती की जमीन मुसहरों व अन्य दलित जातियों में बांट दी थी, लेकिन ज्यादातर मुसहरों का जमीन पर कब्जा नहीं है। उनके पास जमीन के कागजात हैं, वे टैक्स भी कटवाते हैं, लेकिन जमीन पर खेती कुर्मी लोग कर रहे हैं।

“बाबा साहेब (जमींदार) से किसी को एक बीघा किसी को सवा बीघा जमीन मिली थी। ज्यादातर मुसहरों ने शादी वगैरह में कुर्मियों को जमीन दे दी और कर्ज ले लिया। तब से कुर्मी लोग ही जमीन जोत रहे हैं,” एक अधेड़ मुनेसर मांझी (बदला हुआ नाम) ने बताया।

मुसहर टोले में सिर्फ दो चापाकल हैं। उनमें भी एक खराब है। स्थानीय निवासी प्रकाश मांझी (बदला हुआ नाम) कहते हैं, “कुर्मी टोले में आधा दर्जन से ज्यादा ट्यूबवेल हैं, लेकिन हमारे यहां सिर्फ दो हैं, जिनमें से एक खराब है। नल तो लगा हुआ है, लेकिन बिजली चली गई, तो हमलोग प्यास से मर जाएंगे।”

मुसहरों ने ये भी बताया कि अक्सर कुर्मियों के साथ उनका झगड़ा होता रहता है, लेकिन कभी भी पुलिस कुर्मियों पर कार्रवाई नहीं करती है और जमीन कब्जे के खिलाफ शिकायत करने पर भी पुलिस सक्रियता नहीं दिखाती।

कुर्मी टोले और मुसहरी टोले में विकास की विपरीत छवियां दिखने के बावजूद दोनों ही मोहल्ले के लोग वोटिंग को लेकर एकमत नजर आते हैं। कुर्मी इसलिए नीतीश कुमार को वोट करना चाहते हैं क्योंकि उनके मुहल्ले में काफी विकास हुआ है, जबकि मुसहरों का कहना है कि नीतीश कुमार उनके गांव के हैं और शुरू से ही वे नीतीश कुमार को वोट करते आ रहे हैं इसलिए इस बार भी वे उनको ही वोट करेंगे। हालांकि, वे दबी जुबान यह भी बताते हैं कि अगर वे नीतीश कुमार को वोट नहीं करेंगे और कुर्मियों को पता चल जाएगा, तो उनको परेशान भी कर सकते हैं।

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Umesh Kumar Ray started journalism from Kolkata and later came to Patna via Delhi. He received a fellowship from National Foundation for India in 2019 to study the effects of climate change in the Sundarbans. He has bylines in Down To Earth, Newslaundry, The Wire, The Quint, Caravan, Newsclick, Outlook Magazine, Gaon Connection, Madhyamam, BOOMLive, India Spend, EPW etc.

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