आरक्षण नियमों की अनदेखी के आरोपों के बीच पिछले साल दिसम्बर में दो चरणों में नगर निकायों का चुनाव सम्पन्न हो गया। चुनाव के परिणाम भी तुरंत घोषित हो गए और चुने गये जनप्रतिनिधियों ने शपथ भी ले ली।
लेकिन, आरक्षण नियमों की अनदेखी का आरोप लगाकर कोर्ट में दायर किया गया मामला अब भी जिंदा है और 20 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करने जा रहा है।
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ऐसे में कोर्ट में आसन्न सुनवाई को लेकर कई तरह की आशंका उठने लगी है कि सुनवाई में क्या होगा। क्या सुप्रीम कोर्ट आरक्षण की अनदेखी करने पर चुनाव को ही रद्द कर सकता है? या फिर अपेक्षित भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अदालत नगर निकाय के बोर्ड कुछ ऐसे पद सृजित करने को कह सकता है, जिसके लिए चुनाव की जरूरत न पड़े, लेकिन हकदार समूहों की भागीदारी बढ़ जाए?
क्या है पूरा मामला
गौरतलब हो कि बिहार राज्य चुनाव आयोग ने पिछले साल अक्टूबर में ही नगर निकाय चुनाव कराने की घोषणा की थी, लेकिन पटना हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दायर कर दी गई थी।
याचिकाकर्ता सुनील कुमार का कहना था कि आरक्षण के सुप्रीम कोर्ट के ट्रिपल टेस्टिंग नियमों को ताक पर रखकर बिहार सरकार चुनाव कराने जा रही है। पटना हाईकोर्ट अक्टूबर में होने वाले चुनाव पर रोक लगा दी थी और बिहार सरकार से एक अतिपिछड़ा आयोग बनाने को कहा था।
बिहार सरकार ने भी आनन-फानन में अतिपिछड़ा आयोग का गठन कर दिया और दो महीने बाद इस आयोग ने बिहार सरकार को रिपोर्ट सौंप दी। इस रिपोर्ट के आने के तुरंत बाद चुनाव की नई तारीखों का ऐलान कर दिया गया। इस बार 18 दिसम्बर को पहले चरण और 28 दिसम्बर को दूसरे चरण के चुनाव की घोषण हुई। मगर, पटना हाईकोर्ट के याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर कर उक्त आयोग पर ही सवाल उठा दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल इस पर कोई सुनवाई नहीं की और सुनवाई के लिए 20 जनवरी की तारीख मुकर्रर की।
चूंकि चुनाव की नई तारीखों पर कोर्ट की तरफ से कोई टिप्पणी नहीं आई, तो निर्धारित तारीख 18 और 28 दिसम्बर को चुनाव हुए और परिणामों की घोषणा हो गई।
कितने नगर निकायों में हुए चुनाव
पहले चरण में 18 दिसम्बर को 156 नगर निकायों के चुनाव हुए। इन निकायों में वार्ड पार्षद के 3346 पदस, उपमुख्य पार्षद और पार्षद के क्रमशः 156, 156 पदों के लिए 21287 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। वहीं, दूसरे चरण में 28 दिसम्बर को कुल 68 नगर निकायों के लिए चुनाव कराए गए। इस चरण में मुख्य पार्षद के 68 पदों के लिए 992, उपमुख्य पार्षद 68 के लिए 888 और पार्षदों के 1529 पदों के लिए 10,000 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे।
इस चुनाव में एक एक उम्मीदवार ने लाखों रुपए खर्च किए थे। कई उम्मीदवारों ने कर्ज लेकर चुनाव लड़ा था। लेकिन अब जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने वाला है, तो उनमें भी डर है कि कहीं पूरा चुनाव ही रद्द हो जाए। चुनाव जीत चुके कई पार्षदों ने कहा कि अगर चुनाव रद्द हो जाता है, तो उनके लिए दोबारा चुनाव लड़ पाना मुश्किल हो जाएगा।
बारसोई नगर पंचायत से पार्षद का चुनाव जीतने वाले मोमिर आलम कहते हैं, “पटना हाईकोर्ट से हरी झंडी मिलने के बाद चुनाव हुआ है। अभी दोबारा चुनाव होता है, तो हर किसी के लिए दोबारा चुनाव लड़ना मुश्किल होगा। जो चुनाव नहीं जीत पाया, उसे तो बहुत असर नहीं पड़ेगा, लेकिन जिन्होंने जीत दर्ज की है, उनके लिए मुश्किल होगी।”
“मामूली वार्ड मेंबर के चुनाव में दो से तीन लाख रुपए खर्च हो जाते हैं। हमलोग मजदूरी करने वाले हैं। पढ़-लिखकर नौकरी नहीं मिली, तो चुनाव में आ गए। अगर फिर से चुनाव होगा, तो दो-तीन लाख रुपए हमलोग कहां से ला पाएंगे,” उन्होंने कहा।
हालांकि कुछ ने यह भी कहा कि वे कोर्ट के आदेश को स्वीकार करेंगे। नरपतगंज की मेयर सन्नु कुमारी ने कहा, “अदालत के आदेश का इंतजार है। अदालत जो भी आदेश देगी, हमलोग उसका पालन करेंगा।”
क्या कहते हैं जानकार
हालांकि, जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला जो कुछ भी हो, लेकिन इस बात की संभावना बेहद कम है कि वह चुनाव परिणाम को ही रद्द कर नए सिरे से चुनाव कराने का आदेश देगा।
निकायों के बारे में गहरी जानकारी रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर पाल करते हैं, “सुप्रीम कोर्ट में जो मामला चल रहा है, वो अतिपिछड़ा आयोग की तरफ से आरक्षण के किए गए प्रावधान की वैधता को लेकर है, इसलिए कोर्ट का जो भी आदेश आएगा वह आयोग की वैधता या अवैधता तय करेगा। मुझे नहीं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट चुनाव रद्द करने का फैसला दे सकता है।”
उल्लेखनीय हो कि दिसम्बर में हुए नगर निकाय चुनाव के लिए 67.91 करोड़ रुपए का बजट रखा था। ये राशि जरूरत के हिसाब से अलग अलग जिलों को आवंटित की गई थी। इनमें पटना नगर निगम चुनाव के लिए सबसे अधिक 12.29 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। वहीं, गया नगर निगम चुनाव के लिए 3.69 करोड़ रुपए दिए गए थे। अन्य जिलों के एक से दो करोड़ के बीच राशि दी गई थी।
अगर सुप्रीम कोर्ट चुनाव रद्द कर देता है, तो न केवल दोबारा करोड़ रुपए खर्च कर चुनाव कराना होगा बल्कि संसाधन भी जाया हो जाएगा, ऐसे में बिहार सरकार कभी नहीं चाहेगी कि दोबारा चुनाव कराने की नौबत आए।
सुधीर पाल कहते हैं, “जो पार्षद, उपमुख्य पार्षद और मुख्य पार्षद चुनाव जीतकर आए हैं, वे संवैधानिक प्रक्रिया से होकर आए हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट चुनाव रद्द करता है, तो यह बड़ा मुद्दा बन जाएगा। मुझे नहीं पता कि आज तक ऐसा कभी हुआ है कि नहीं।”
“बिहार सरकार भी नहीं चाहेगी कि दोबारा चुनाव कराया जाए, इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा कोई फैसला देता है, जिसकी संभावना फिलहाल नहीं दिखती, तो बिहार सरकार इसके खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाएगी और कोशिश करेगी कि उक्त आदेश पर रोक लगा दी जाए,” उन्होंने कहा।
उल्लेखनीय हो कि जब पटना हाईकोर्ट ने अतिपिछड़ा आयोग का गठन करने को कहा था, तो आरोप है कि बिहार सरकार ने आनन-फानन में राजद और जदयू के नेताओं को इस कमेटी का हिस्सा बना दिया था, ताकि सरकार के अनुकूल रिपोर्ट दी जा सके। ऐसे में आयोग की रिपोर्ट के पक्षपातपूर्ण होने की भी आशंका है और अगर सुप्रीम कोर्ट को भी ऐसा ही लगता है, तो अदालत को यह सुनिश्चित करना होगा कि इस पक्षपात को दूर किया जाएगा। ऐसी सूरत में कोर्ट के पास क्या विकल्प बचेगा?
इस सवाल पर सुधीर पाल कहते हैं, “अगर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि आयोग की रिपोर्ट में अतिपिछड़े समुदाय का प्रतिनिधित्व सही नहीं हुआ है, तो वह कुछ ऐसे पद सृजित करने का आदेश दे सकता है, जिन पर चुनाव प्रक्रिया से इतर किसी दूसरे तरीके से अतिपिछड़ों को नियुक्त किया जा सके।”
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Darbhanga ka kiabhua
Court ko chunav radh nhi karama chahiye kyou jo chunav huwe hai ligal tarike se huwe har insan chunav Dhan man aur imandari se chunav partikriya se gujra hai uska gunah kya hai
Court ko chunav radh nahi karana chahiye kyou jo bhi chuna partiyasi chunav Lara hai sarlar ke kanoon ke hisab se Lara hai ???