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Bihar Nikay Chunav: नगर निकाय चुनाव में आरक्षण का पूरा विवाद क्या है?

बिहार में फिर से नगर निकाय चुनाव की घोषणा हो गई है। पहले चरण के लिए 18 दिसंबर और दूसरे चरण के लिए 28 दिसंबर को चुनाव होंगे, जबकि नतीजे 20 और 30 दिसंबर को आएंगे।

Ariba Khan Reported By Ariba Khan |
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बिहार में एक बार फिर से नगर निकाय चुनाव की घोषणा हो गई है। पहले चरण के लिए 18 दिसंबर और दूसरे चरण के लिए 28 दिसंबर को चुनाव होंगे, जबकि नतीजे 20 और 30 दिसंबर को आएंगे।

बिहार सरकार ने आनन-फानन में भले ही निकाय चुनाव के लिए तारीखों का ऐलान कर दिया हो, लेकिन मामले के एक बार फिर से कानूनी दांव-पेंच में फंसने का अनुमान है।

बता दें कि बिहार राज्य निर्वाचन आयोग ने इससे पहले 10 और 20 अक्टूबर को दो चरणों में नगर निकाय चुनाव कराने के लिए तारीखों का ऐलान किया था, लेकिन पटना हाई कोर्ट ने ओबीसी वर्ग के आरक्षण के मुद्दे पर अपनी आपत्ति जताई, जिसके बाद नगर निकाय चुनाव को स्थगित कर दिया गया था।


सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, किसी भी राज्य में नगर निकाय चुनाव में ट्रिपल टेस्ट कराए बिना ओबीसी वर्ग को आरक्षण नहीं दिया जा सकता है और न ही चुनाव कराए जा सकते हैं।

आइए पहले समझते हैं कि ट्रिपल टेस्ट आखिर है क्या?

ट्रिपल टेस्ट दरअसल आरक्षण का त्रिस्तरीय मूल्यांकन है। पहले चरण में एक नये आयोग का गठन होता है,जो यह पता करता है कि जिस समुदाय के लिए आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाएगा, उसे इसकी जरूरत है कि नहीं। दूसरे चरण में आयोग की अनुशंसा के आधार पर स्थानीय निकायों में आरक्षण का प्रतिशत विभाजित किया जाता है और तीसरे चरण में आरक्षण विभाजन इस तरह से करना होता है कि वह 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा से अधिक न हो।

मार्च 2021 में महाराष्ट्र में नगर निकाय चुनाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि अगर कोई राज्य सरकार, नगर निकाय चुनाव में ओबीसी वर्ग के लिए सीटें आरक्षित करना चाहती हैं, तो उससे पहले उसे एक डेडिकेटेड ओबीसी कमीशन का गठन करना पड़ेगा, ताकि राज्य में पिछड़ेपन को लेकर जानकारी जुटाई की जा सके। आरक्षण की व्यवस्था इस तरीके से की जाए कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी को मिलाकर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण की सीमा का उल्लंघन ना हो। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में साफ तौर पर कहा है कि स्थानीय निकाय चुनाव में पिछड़े वर्ग को आरक्षण तभी दिया जा सकता है, जब सरकार ट्रिपल टेस्ट कराये। सरकार को यह पता लगाना चाहिए कि किस वर्ग को पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है।

महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में भी ऐसे ही चुनाव की घोषणा करने के बाद रोक लगा दी गई थी, जिसके बाद मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की ओबीसी के आंकड़े को पेश किया था, इसके बाद ही शहरी चुनाव हो सके थे।

इसी संबंध में पटना हाई कोर्ट का मानना था कि बिहार में नगर निकाय चुनाव में ओबीसी और ईबीसी वर्ग को आरक्षण देने की जो व्यवस्था बनाई गई थी, वह सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण के ट्रिपल टेस्ट से जुड़े दिशा-निर्देशों की खिलाफ था। ऐसे में पटना हाई कोर्ट ने राज्य निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया था कि वह नगर निकाय चुनाव पर रोक लगाए और ओबीसी वर्ग के लिए जो सीटें आरक्षित की गई थीं, उन्हें सामान्य वर्ग की सीटें घोषित करे।

इसके बाद राज्य सरकार ने 19 अक्टूबर को पटना हाई कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा कि वह मोस्ट बैकवर्ड क्लासेस कमीशन (ईबीसी कमीशन) की स्थिति का आकलन कर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेगी।

इसके लिए 2005 में अस्तित्व में आए बिहार अति पिछड़ा वर्ग आयोग को एक समर्पित आयोग के रूप में पुनर्जीवित किया गया और 19 अक्टूबर, 2022 को जदयू) के वरिष्ठ नेता डॉ नवीन चंद्र आर्य की अध्यक्षता में अति पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन हुआ। इसका उद्देश्य था, सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के अनुसार निकाय चुनावों में अति पिछड़ों के लिए आरक्षण की अनुशंसा करना।

हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार कर लिया और कहा कि बिहार में निकाय चुनाव ईबीसी आयोग की रिपोर्ट आने के बाद ही होंगे। साथ ही कोर्ट ने अति पिछड़ा वर्ग आयोग को अपनी रिपोर्ट देने के लिए अधिकतम तीन महीने का समय दिया।

लेकिन, एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के कारण यह मामला कानूनी दांवपेच में उलझ सकता है।

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने 28 नवंबर को बिहार नगर निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर गंभीर टिप्पणी की और राज्य सरकार की ओर से गठित राज्य के अति पिछड़ा वर्ग आयोग को एक डेडिकेटेड कमीशन नहीं माना। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिहार सरकार जिस अति पिछड़ा आयोग के जरिए ओबीसी आरक्षण के लिए रिपोर्ट तैयार करवा रही है, वह समर्पित कमीशन नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी किया और चार सप्ताह के अंदर अपना पक्ष रखने के लिए कहा। इधर, सुप्रीम कोर्ट के आदेश की आधिकारिक जानकारी पहुंचने से पहले ही बिहार सरकार ने आनन-फानन में 30 नवंबर की शाम नगर निकाय चुनाव कराने को लेकर तारीखों की घोषणा कर दी। सरकार ने इस बार भी पुराने फॉर्मूले से निकाय चुनाव कराने की घोषणा की है, जिसके चलते चुनाव फिर से कानूनी दांव-पेंच में फंस सकती है।

इस पूरे मामले के बाद राज्य में बीजेपी और जेडीयू नेताओं में जुबानी जंग की शुरुआत भी हो गई है। भाजपा राज्यसभा सांसद सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि सुप्रीम कोर्ट ने नगर निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण के लिए नीतीश कुमार सरकार को डेडिकेटेड कमीशन बनाने का निर्देश दिया गया था, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश ने अति पिछड़ा आयोग को ही डेडिकेटेड कमीशन अधिसूचित कर दिया, जिसमें अध्यक्ष समेत सभी सदस्य जनता दल यूनाइटेड और आरजेडी के वरिष्ठ नेता हैं।

बीजेपी ने मांग उठाई थी कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार राज्य सरकार किसी सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता में डेडिकेटेड कमीशन का गठन करे, जो पारदर्शी हो और भेदभाव के बिना काम करे।

वहीं, जेडीयू संसदीय बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि निकाय चुनाव चल रहा था, लेकिन बीजेपी के लोगों ने गलत तथ्यों के आधार पर कोर्ट के जरिए अति पिछड़ों का आरक्षण समाप्त करने की कोशिश की। लेकिन यह बाधा थोड़ी देर के लिए ही आई है।

अब माना जा रहा है कि चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद एक बार फिर से याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की तुरंत सुनवाई की याचिका डाल सकते हैं।

बता दें कि बिहार में दो चरणों में 224 शहरी निकाय चुनाव होने हैं। इनमें 17 नगर निगम, 70 नगर परिषद और 137 नगर पंचायत के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और पार्षद की सीट पर चुनाव होने हैं। निकाय चुनाव में राज्य के कुल 1 करोड़ 14 लाख 52 हजार 759 मतदाता हिस्सा लेंगे।

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सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश और बिहार सरकार की तरफ से चुनाव के ऐलान के बाद आगे क्या होता है, यह देखना दिलचस्प होगा।

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अरीबा खान जामिया मिलिया इस्लामिया में एम ए डेवलपमेंट कम्युनिकेशन की छात्रा हैं। 2021 में NFI fellow रही हैं। ‘मैं मीडिया’ से बतौर एंकर और वॉइस ओवर आर्टिस्ट जुड़ी हैं। महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर खबरें लिखती हैं।

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