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संस्मरण: जब पाकिस्तान के निशाने पर था किशनगंज

Dr Sajal Prasad Reported By Dr Sajal Prasad |
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train bombed during india pakistan war of 1971 in kishanganj

वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय हमारा किशनगंज पाकिस्तानी फौज के टारगेट पर रहता था। दरअसल पूर्व दिशा में किशनगंज शहर से महज 30 किमी दूर पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पाकिस्तानी फौज को यह मालूम हो गया था कि पूर्वी पाकिस्तान के सर्वमान्य नेता शेख मुजीबुर्रहमान की मुक्तिवाहिनी के गुरिल्लाओं को किशनगंज में शरण व आर्थिक मदद मिलती है। इसलिए पाकिस्तानी फौज ने किशनगंज में मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों को टारगेट करने और किशनगंज में दहशत फैलाने सहित भारत सरकार को सबक सिखाने की मंशा से एक ही दिन सीरियल बम विस्फोट कराए थे।


बांग्ला संस्कृति के मुस्लिमों के इस क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान में शेख़ मुजीबुर्रहमान रहमान की अगुवाई में मुक्ति वाहिनी के बैनर तले पाकिस्तानी हुकूमत और पाकिस्तानी सेना के आतंक के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छिड़ गया था।

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तब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी के समर्थन में भारतीय सेना को उतार दिया था। और, भारत के आर्मी जनरल मानेक शॉ की सेना ने अपना जौहर दिखाते हुए पाकिस्तानी फौज के करीब एक लाख सिपाहियों को बंदी बना लिया था। इसके बाद ही पूर्वी पाकिस्तान का यह इलाका बांग्लादेश नामक एक नया मुल्क बना।


मनोरंजन क्लब की छत का सायरन

मेरा जब जन्म हुआ तो उस वक़्त भारत-चीन युद्ध चल रहा था। माँ बताती है कि उन दिनों दहशत की काली छाया मँडराती रहती। फिर, 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ। तब मैं अबोध था। पर, युद्ध की छाया में ही बचपन गुजर रहा था।

जगन्नाथ स्कूल में मैं तब चौथी कक्षा में था। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के कारण आसमान में भारतीय सेना के फाइटर प्लेन उड़ान भरते रहते। हम सभी बच्चे आसमान में प्लेन गुजरने के बाद छल्लेनुमा धुएँ की लकीर को अपलक देखते रहते। पास में मनोरंजन क्लब की छत पर प्रशासन ने सायरन लगा दिया था। बाल-सुलभ उत्सुकतावश मैंने क्लब की छत पर इस सायरन की इंस्टालेशन नीचे खड़े होकर देखी थी। 3-4 साल पहले तक यह सायरन मशीन क्लब की छत पर ही रखी देखी थी।

किसी खतरे की आशंका होते ही सायरन बज उठता और सड़क के लोग अपने-अपने घरों में ही छिप जाते थे। रात में सायरन बजते ही पूरे शहर में ‘ब्लैक आउट’ हो जाता। यानी, पूरे शहर की बिजली काट दी जाती। ऐसा इसलिए किया जाता था कि दुश्मन देश के फाइटर प्लेन को नीचे कोई रोशनी नज़र न आए और निर्जन इलाका जानकर दुश्मन बम न बरसाए।

उन दिनों एक अजीब-सी दहशत थी और रोमांच भी। मुझे याद है कि हम बच्चे भी मुक्ति वाहिनी को एक तरीके से नैतिक समर्थन दे रहे थे। घर से सटे प्रसन्न लाल दादा की किराना-दूकान पर लगे कैलेंडर में शेख़ मुजीबुर्रहमान की तस्वीर को देखकर मैं रोमांचित हो जाता था और उन्हें एक ‘रीयल हीरो’ मानकर मन ही मन सैल्यूट भी करता था।

इन्दू टॉकीज़ में बम ब्लास्ट

उस काली रात हम सभी भाई-बहन कमरे में सोये हुए थे। माँ-बाबा भी इसी कमरे में सोये थे। टीन की छत वाले हमारे कमरे का काठ का दरवाजा मामूली ढंग का ही था। काठ की ही कुंडी और काठ के ही एक डंडे से दरवाजा बंद किया जाता।

टीन की छत वाले कमरे में लकड़ी के टेढ़े-मेढ़े तख्तों की दुछत्ती थी, जिसे आप आजकल के ज़माने की फॉल्स सीलिंग कह सकते हैं। दुछत्ती पर दादा-दादी के घर के कबाड़ और माँ को दहेज में मिले पुराने बर्तन रखे थे।

रात के करीब 11 बज रहे होंगे। अचानक एक जोरदार आवाज़ हुई। लगा जैसे कि हमारा कमरा पूरा हिल गया। टीन की छत और दुछत्ती पर रखे बर्तन ढ़नमना कर आवाज करने लगे थे। डर के मारे मैं बिस्तर पर उकड़ूं बैठ गया था। मेरी नज़र दरवाजे पर गई …. यकीन जानिए! काठ का पुराना दरवाजा हिल रहा था ..जैसे बाहर से कोई दरवाज़ा पीट रहा हो!

indian officers at indu talkies after the bomb blast in 1971
टाइमबम विस्फोट के बाद इंदु टॉकीज़ परिसर में बिहार के तत्कालीन आईजी, इंदु टाकीज़ के तत्कालीन मैनेजर माणिक बहादुर सिंह, किशनगंज के मशहूर सीआईडी ऑफिसर के.एन. सिंह, उस वक़्त की परम्परागत हाफ पैंट में एएसआई वर्मा जी

तबतक माँ-बाबा भी जग गए थे। बाबा ने तेजी से उठकर दरवाजा खोला, किन्तु बाहर हमारे बड़े-से आँगन में कोई नहीं था। बाबा के पीछे-पीछे मैं भी बाहर निकल आया था। मेरा डर कम हो गया था और घटना की वजह जानने को उत्सुक था।

दादा जी, बड़े बाबा और सभी चाचा भी कमरे से बाहर निकल कर आँगन में जमा हो गए थे। फिर, किसी ने मुख्य द्वार खोला और टार्च लेकर दरवाजे की तलाशी हुई। हमारा दरवाजा चौक पर पूरब में ठाकुरबाड़ी रोड और दक्षिण में धर्मशाला रोड से बिल्कुल सटा है। धमाके के बाद तबतक आस-पास के अन्य घरों के लोग भी सड़क पर आ गए थे।

थोड़ी देर में ही पता लग गया कि हमारे घर से बमुश्किल 300 मीटर की दूरी पर स्थित इन्दू टॉकीज़ में बम फटा है। कुछ लोग मरे हैं और दर्जनों घायल हैं। यह सूचना मिलते ही सभी दहशत में आ गए थे। दादा जी ने हम सभी बच्चों को कमरे में जाने की हिदायत दी। परंतु, मैं दादाजी की नज़र बचाकर दरवाजे से सटे उनके कमरे में ही खड़ा रहा था। वजह जानने की जिज्ञासा जो थी! इस बीच कुछ हिम्मती लोग इन्दू टॉकीज़ की तरफ निकल पड़े थे।

गज़ब थी टाइम बम फटने की टाइमिंग

उस हृदयविदारक घटना की रात इन्दू टॉकीज़ में वॉलीवुड की एक मशहूर फ़िल्म ‘सावन भादो’ चल रही थी। उस दिन का सेकेंड शो यानी रात के 9 से 12 बजे का अंतिम शो। उस रात मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों की इच्छा पर इन्दू टॉकीज में ‘सावन भादो’ फ़िल्म देखने के लिए फर्स्ट क्लास की शायद दो कतारें रिजर्व की गईं थीं। यह बात पाकिस्तानी जासूसों को पता चल गई थी।

फिल्म में नवीन निश्चल हीरो और आज की मशहूर अदाकारा रेखा हीरोइन थी। फ़िल्म में एक दृश्य था कि कार में बम फटता है।

आतंकवादियों ने सिनेमा हॉल के ग्राउंड फ्लोर में फर्स्ट क्लास की कतार में किसी सीट के नीचे टाइम बम फिट कर दिया था। बम ठीक उसी वक़्त फटा जब पर्दे पर चल रही फ़िल्म में कार में बम फटा। ऐसा इसलिए किया गया था कि सिनेमा हॉल में टाइम बम फटने की आवाज से दर्शक गच्चा खा जाएं और ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। यहाँ दुश्मनों की बम फटने की टाइमिंग सेट करने की फुलप्रूफ योजना की न चाहते हुए भी तारीफ करनी होगी।

हॉल का बड़ा दरवाजा टूटकर छिटक गया था क्योंकि दरवाजा अंदर खुलते ही फर्स्ट क्लास की ‘ए’ या ‘बी’ कतार की सीट के नीचे बम फटा था। इसके ठीक करीब 8 फीट ऊपर छत पर बॉलकनी और लेडीज़ सेक्शन था। यहां हमेशा मद्धिम रोशनी वाले बल्ब ही लगे होते थे।

सिनेमा हॉल के दो-तिहाई हिस्से के मुकाबले इस एक तिहाई वाले निचले हिस्से में अपेक्षाकृत अंधेरा ज्यादा होता था, इसलिए दुश्मनों को बम फिट करने में आसानी हुई थी। बाद में, दरबान ने पुलिस को बताया था कि बम फटने के ठीक पहले एक दर्शक पेशाब करने के बहाने बाहर निकला, किन्तु फिर वापस अंदर नहीं गया। बताए हुलिए के मुताबिक पुलिस उस शख्स की तलाश करती रही, पर वह तो फुर्र हो चुका था।

इस लोमहर्षक घटना में बुरी तरह घायल हुए रिश्ते में मेरे एक चाचा (बाबा के खास मौसेरे भाई) प्रकाश चन्द्र साहा का बायां हाथ काटना पड़ा था और फुफेरी बड़ी बहन अंजलि दीदी के पति यानी बड़े बहनोई प्रह्लाद मोदी के कान के पर्दे फट गए थे और आजीवन वे इसी हाल में रहे। हाँ! प्रकाश चाचा आज भी उस बम-विस्फोट के जीवित गवाह हैं और स्वस्थ हैं।

रेलवे ट्रैक पर हुआ था पहला बम-विस्फोट

इन्दू टॉकीज़ में बम फटने के कुछ घंटे पहले खगड़ा और रामपुर के बीच रेलवे ट्रैक पर भी पाकिस्तानी फौज के जासूसों ने बम विस्फोट किया था। इस विस्फोट के कारण ट्रेन पटरी से उतर गई थी और काफी नुकसान हुआ था। पाकिस्तानी जासूसों को शायद यह जानकारी मिली थी कि मिलिट्री स्पेशल ट्रेन किशनगंज आ रही है।

train bombed in kishanganj during bengladesh liberation war

उन दिनों नवयुवक रहे बीरेंद्र कुमार दुबे भैया बताते हैं कि रामपुर की ट्रेन वाली घटना के बाद वे साइकिल से घटनास्थल पर पहुँचे थे तब इंजन से पानी रिस रहा था और जले कोयले बुझने जा रहे थे। यह एक अप लाइन की स्टीम इंजिन की मालगाड़ी थी जिसे मिलिट्री स्पेशल समझ कर एंटी टैंक लैंड माइंस द्वारा उड़ाया गया था।

दो और एंटी टैंक लैंड माइंस डाउन लाइन में रखे गए थे। परंतु, शायद हड़बड़ी में प्रेसर एरिया से नीचे प्लांट किये गये थे, इसलिए पैसेंजर ट्रेन गुजरने के बावजूद नहीं फटे। इन्हीं दोनों माइंस पर एक फ़ोटोग्राफर की नज़र पड़ी और उन्होंने ही सुरक्षाकर्मियों को यह दिखाया था। जिन्हें सुरक्षाकर्मियों ने डिफ्यूज कर दिया था।

किशनगंज में मुक्तिवाहिनी के युवाओं को शस्त्र विधा में निपुण व पहलवान सरीखी कदकाठी वाले पूर्व सांसद व समाजवादी नेता लखन लाल कपूर और बड़े जीवट व गठीली देह वाले महेन्द्र साहा उपाख्य ‘महेन्द्र मास्टर’ यहां शरण-प्रशिक्षण देते थे।

ये लड़ाके मेरे घर के बगल में ही मनोरंजन क्लब में रहते थे। और भी कई जगहों पर इन्हें शरण मिलती थी। यद्यपि मैं बच्चा था पर, युवाओं की गतिविधियों पर उत्सुकतावश मेरी नज़र गड़ी रहती थी।

स्थानीय युवाओं की एक ‘थर्ड लाइन’ भी थी, जो किसी भी मदद के लिए खड़ी रहती। इन्हीं में शामिल थे अंग्रेजों के शासन काल मे ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के खिताब से नवाजे जमींदार व नगरपालिका के चेयरमैन चंचल प्रसाद के बड़े पुत्र व फर्राटे से अंग्रेजी बोलने वाले गोपाल प्रसाद, अधिवक्ता एवं मेरे काका विजय प्रसाद।

मेरे कॉलेज से सेवानिवृत्त लिपिक स्वपन दास ने भी मुझे बताया था कि वे अपने 20 साथियों व बेनी बाबू के साथ ट्रक में राशन सामग्री भरकर पूर्वी पाकिस्तान के बॉर्डर पहुंचे थे और सारा सामान भिजवाया था। स्वपन दा के अनुसार बॉर्डर पर पूर्वी पाकिस्तान के जगदल गाँव तक राशन पंहुचाने वाले किशनगंज के स्वयंसेवी दल में मेरे पिता श्री कृष्ण माधव प्रसाद भी शामिल थे।।

इन्दू टॉकीज में टाइम बम फटने के अगले ही दिन सूड़ी बस्ती के बड़े-बुजुर्गों के समक्ष गोपाल प्रसाद चाचा ने रहस्योद्घाटन किया था कि दरअसल मुक्तिवाहिनी के युवाओं ने इन्दू टॉकीज में ‘सावन-भादो’ फ़िल्म देखने की इच्छा जतायी थी और इसके लिए फर्स्ट क्लास की 15-16 सीटों वाली पूरी कतार बुक थी। शायद इसकी जानकारी पाकिस्तानी फौज को मिल गयी थी, इसलिए यहां टाइम-बम लगाकर विस्फोट कराया गया।

उन्होंने बताया था कि यह संयोग ही था कि शो शुरू होने के दो घंटे पहले खगड़ा और रामपुर के बीच हुए बम विस्फोट की खबर सुनते ही मुक्तिवाहिनी के युवाओं के साथ वे सभी घटनास्थल पर पंहुचे थे और बाद में सिनेमा देखने का प्रोग्राम कैंसिल कर दिया गया था। यदि सिनेमा देखने जाते तो उन सभी की मृत्यु निश्चित थी।

इस्लामपुर के रास्ते गोपाल चाचा व विजय काका अपने कई साथियों के साथ पूर्वी पाकिस्तान के अंदर भी गए थे। वहां उनका स्वागत मुरही और चाय से किया गया था। वहाँ के लोग ‘सुरजापुरी’ बोली में बातें कर रहे थे और गवालपोखर, इस्लामपुर, किशनगंज के जमींदार परिवारों से वाकिफ़ थे।

गोपाल चाचा व विजय काका अपने साथियों के साथ बलियाडाँगी के रास्ते ठाकुरगांव जाना चाहते थे। लेकिन, पाकिस्तानी फौज को खबर लग गई थी और इन लोगों की तलाश में निकल पड़ी थी, जिस कारण इन सभी को वहां से भागना पड़ा था। मेरे हैंडसम विजय काका बड़े दुस्साहसी हैं और वे समाजवादी लखन लाल कपूर के सच्चे अनुयायी आज भी हैं।

स्व. गोपाल प्रसाद चाचा ने मुझे बताया था कि जब पूर्वी पाकिस्तान को एक नए मुल्क ‘बांग्लादेश’ के रूप में पहचान मिली तो, ढ़ाका में इसका जश्न मनाया गया था और महेन्द्र मास्टर साहब को विशेष रूप से आमंत्रित करके ढ़ाका बुलाया गया था।

महेंद्र मास्टर जब ढाका से लौटे तो ‘थर्ड लाइन’ के उन जैसे सभी सहयोगियों के लिए मुक्तिवाहिनी ने ‘आमार सोनार बांग्ला’ लिखी टोपियाँ भिजवाई थीं। पर, गोपाल प्रसाद चाचा को इस बात का मलाल रहा कि जिस बांग्लादेश के गठन के लिए उनके जैसे युवाओं ने तन-मन-धन से मदद की, वही बांग्लादेश अब भारत विरोधी रुख अपनाने से गुरेज नहीं करता।


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डॉ. सजल प्रसाद मारवाड़ी कॉलेज, किशनगंज के हिंदी विभागाध्यक्ष व इग्नू सेंटर के को-कॉर्डिनेटर हैं।

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3 thoughts on “संस्मरण: जब पाकिस्तान के निशाने पर था किशनगंज

  1. पुरानी बातों को जानकर अच्छा भी लगा और घटना को लेकर दुख भी। एक निवेदन है कि इस तरह के आर्टिकल और भी पब्लिश करें

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