भारत की कुल आबादी अभी कितनी है, इसका पता लगाने के लिए इस साल भारत सरकार जनगणना करा रही है। इसके लिए पिछले साल के बजट में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 3736 करोड़ रुपए आवंटित किये हैं। भारत में हर 10 साल के अंतराल पर लोगों की गिनती की जाती है।
जनगणना की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई थी और पहली जनगणना साल 1881 में पूरी हुई। वहीं, आखिरी जनगणना साल 2011 में की गई थी। तमाम सरकारी योजनाओं में जनसंख्या के सदर्भ में साल 2011 के आंकड़े ही पेश किये जाते हैं। यानी कि अभी हमारे पास जनसंख्या का जो आंकड़ा है वो 10 साल पहले का है। साल 2022 में जनगणना हो जाएगी, तो पता चलेगा कि वर्तमान में हमारे देश की आबादी कितनी है।
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जातिगत जनगणना की मांग
लेकिन इस बार की जनगणना को लेकर सियासी पारा हाई है। पिछड़ी व दलित समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियां सिर्फ जनगणना नहीं, जातिगत जनगणना की मांग कर रही हैं। इसमें सबसे मुखर आवाज बिहार से आई, जहां मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल लगातार जातिगत जनगणना की मांग करती रही और केंद्र सरकार की तरफ से इस मांग पर विचार नहीं किये जाने की सूरत में बिहार में ही जातिगत जनगणना कराने की माँग उठाती रही।
जातिगत जनगणना इतना संवेदनशील मुद्दा है कि NDA का हिस्सा होने और भाजपा के सख्त विरोध के बावजूद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस पर तेजस्वी के सुर में सुर मिलाना ही पड़ा। हैरानी तो यह कि बिहार भाजपा के अध्यक्ष संजय जायसवाल ने कुछ दिन पहले ही जातिगत जनगणना पर चुटकी लेते हुए कहा था कि जातियां सिर्फ दो हैं – अमीर और गरीब, लेकिन 1 जून की सर्वदलीय बैठक में भाजपा के नेता भी शामिल हुए। अगले ही दिन यानी दो जून को बिहार कैबिनेट ने इसी मंजूरी देते हुए इसके लिए 500 करोड़ रुपयों का बजट भी आवंटित कर दिया।
भाजपा का सीमांचल पर निशाना
1 जून की सर्वदलीय बैठक में भाजपा बिहार में जातिगत जनगणना के लिए मान तो गई, लेकिन भाजपा के नेता इसे जाति से ज़्यादा धर्म से जोड़ने में लगे हैं।
बैठक के बाद बिहार भाजपा के अध्यक्ष संजय जायसवाल फेसबुक पर लिखते हैं – “मैंने अपनी बातों को रखते हुए मुख्यमंत्री जी के सामने तीन आशंकाएं प्रकट कीं जिनका निदान गणना करने वाले कर्मचारियों को स्पष्ट रूप से बताना होगा। पहला जातीय व उप जातीय गणना के कारण कोई रोहिंग्या और बांग्लादेशी का नाम नहीं जुड़ जाए और बाद में वह इसी को नागरिकता का आधार नहीं बनाएं। दूसरा सीमांचल में मुस्लिम समाज में यह बहुतायत देखा जाता है कि अगड़े शेख समाज के लोग शेखोरा अथवा कुलहैया बन कर पिछड़ों की हकमारी करने का काम करते हैं। यह भी गणना करने वालों को देखना होगा कि मुस्लिम में जो अगड़े हैं, वे इस गणना की आड़ में पिछड़े अथवा अति पिछड़े नहीं बन जाएं। ऐसे हजारों उदाहरण सीमांचल में मौजूद हैं जिनके कारण बिहार के सभी पिछड़ों की हकमारी होती है।”
कटिहार में भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में शामिल होने आए केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने भी 1 जून को जातीय जनगणना की आड़ में सीमांचल के मुसलामानों पर निशाना साधा।
उसके एक दिन बाद 2 जून को पूर्णिया भाजपा विधायक विजय खेमका ने किशनगंज में कहा कि इस क्षेत्र में सीमा से घुसपैठिए प्रवेश करते हैं, जातीय जनगणना में इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।
जातिगत जनगणना इतना अहम क्यों?
अब सवाल यह है कि जातिगत जनगणना इतना अहम क्यों हो गया है? दरअसल, जातिगत जनगणना होने से पिछड़ी जातियों की असली संख्या मालूम होगी, जिससे आबादी के अनुपात में पिछड़े तबके को आरक्षण देने की मांग को एक तार्किक वजह मिलेगी।
पिछड़ों की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियां इनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण मांगेंगी। इससे इन तबकों के बीच इन राजनीतिक पार्टियों का वोट बैंक बनेगा। बिहार में पिछड़ों का वोट बैंक भाजपा से खिसक जाने के डर से बिहार भाजपा को भी न चाहते हुए भी इसके लिए सहमति देनी पड़ी।
मुसलिम समुदाय की भी जातिगत जनगणना
बिहार में जातिगत जनगणना में एक दिलचस्प बात यह भी है कि मुसलिम समुदाय की भी जातिगत जनगणना की जाएगी। कटिहार में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने ये भी कहा था कि जातिगत जनगणना में मुसलमानों को भी शामिल करना चाहिए।
शायद उन्हें लगा था कि मुस्लिम तबका इसका विरोध करेगा, लेकिन हुआ ठीक उल्टा। सर्वदलीय बैठक में शामिल होने वाले सीमांचल से AIIMIM के नेता अख्तरूल ईमान ने कहा कि मुसलमानों की जाति-उपजाति का आकलन होना चाहिए। बैठक में नीतीश कुमार ने भी कह दिया कि सभी धर्म-संप्रदाय की जाति-उपजाति की गिनती होगी, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं। आगे देखना ये होगा कि सीमांचल को रणक्षेत्र बनाकर भाजपा जातीय जनगणना की आड़़ में मुसलामानों पर कब तक निशाना साधती रहेगी, और क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ऐसे बयानों पर पलट कर भाजपा को जवाब देंगे?
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